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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
प्राप्त नहीं हो सका जितना श्रमण धारा या संन्यासमार्गीय परम्परा में हो। फिर भी यह अतिशयोक्ति नहीं है कि अहिंसा को जितना व्यापक सम्भव था। यद्यपि श्रमण परम्पराओं के द्वारा हिंसापरक यज्ञ-यागों की अर्थ जैन परम्परा में दिया गया है, उतना अन्यत्र अनुपलब्ध ही है। आलोचना और मानवीय विवेक एवं संवेदनशीलता के विकास का एक परिणाम यह हुआ कि वैदिक परम्परा में भी एक ओर वेदों के जैन-परम्परा में अहिंसा का अर्थविस्तार पशु-हिंसापरक पदों का अर्थ अहिंसक रीति से किया जाने लगा।महाभारत संभवत: विश्व साहित्य में उपलब्ध प्राचीनतम जैन ग्रन्थ आचारांग के शान्तिपर्व में राजा वसु का आख्यान (अध्याय ३३७-३३८) इसका ही ऐसा है, जिसमें अहिंसा को सर्वाधिक अर्थविस्तार दिया गया है। प्रमाण है। तो दूसरी ओर धार्मिक जीवन के लिए कर्मकाण्ड को अनुपयुक्त उसमें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस प्राणी के रूप मानकर औपनिषदिक धारा के रूप में ज्ञानमार्ग का और भागवत धर्म में षट्जीवनिकाय के हिंसा का निषेध किया गया है। उसके प्रथमध्याय के रूप में भक्तिमार्ग का विकास हुआ। इसमें अहिंसा का अर्थविस्तार का नाम ही शस्त्र-परिज्ञा है, जो अपने नाम के अनुरूप ही हिंसा के सम्पूर्ण प्राणीजगत् अर्थात् त्रस चीजों की हिंसा के निषेध तक हुआ कारण और साधनों का विवेक कराता है। हिंसा-अहिंसा के विवेक है। वैदिक परम्परा में संन्यासी को कन्दमूल एवं फल का उपभोग करने के सम्बन्ध में षट्जीवनिकाय की अवधारणा आचारांग की अपनी की स्वतन्त्रता है, इस प्रकार वहाँ वानस्पतिक हिंसा का विचार उपस्थित विशेषता है जो कि परवर्ती सम्पूर्ण जैन साहित्य में स्वीकृत रही है। नहीं है। फिर भी यह तो सत्य है कि अहिंसक चेतना को सर्वाधिक आचारांग में न केवल अहिंसा की अवधारणा को अर्थ-विस्तार दिया विकसित करने का श्रेय श्रमण परम्पराओं को ही है। भारत में ई०पू० गया है अपितु उसे अधिक गहन और मनोवैज्ञानिक बनाने का भी ६ ठीं शताब्दी का जो भी इतिवृत्त हमें प्राप्त होता है उससे ऐसा लगता प्रयत्न किया गया है। है कि उस युग में पूर्ण अहिंसा के आदर्श को साकार बनाने में श्रमण आचारांग में धर्म की दो प्रमुख व्याख्यायें उपलब्ध हैं। प्रथम सम्प्रदायों में होड़ लगी हुई थी। कम से कम हिंसा ही श्रामण्य-जीवन व्याख्या है-सेमियाए धम्मे आरियेहिं पवेइए (१/८/३), आर्यजनों की श्रेष्ठता का प्रतिमान था। सूत्रकृतांग में आर्द्रक कुमार की विभिन्न ने समता (समभाव) को धर्म कहा है। धर्म की दूसरी व्याख्या हैमत वाले श्रमणों से जो चर्चा है उसमें मूल प्रश्न यही है कि कौन सव्वे भूया, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता, न हंतव्वा। एस धम्मे सुद्धे, सबसे अधिक अहिंसक है (देखिये, सूत्रकृतांग २/६)। त्रस प्राणियों निइए, सासए, समिच्च लोयं खेयन्नेहिं पवेइए (१/४१), किसी भी (पश, पक्षी, कीट-पतंग आदि) की हिंसा तो हिंसा थी ही किन्तु प्राणी, जीव और सत्व की हिंसा नहीं करना, यही शुद्ध, नित्य और वानस्पतिक और सूक्ष्म प्राणियों की हिंसा को भी हिंसा माना जाने शाश्वत धर्म है, जिसका उपदेश समस्त लोक की पीड़ा को जानकर लगा। मात्र इतना ही नहीं, मनसा, वाचा, कर्मणा और कृत, कारित दिया गया है। वस्तुत: धर्म की ये दो व्याख्याएँ दो भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों
और अनुमोदित के प्रकारभेदों से नवकोटिपूर्ण अहिंसा का विचार प्रविष्ट पर आधारित हैं। 'समभाव' के रूप में धर्म की परिभाषा समाज-निरपेक्ष हुआ, अर्थात् मन, वचन और शरीर से हिंसा करना नहीं, करवाना वैयक्तिक धर्म की परिभाषा है, क्योंकि समभाव सैद्धान्तिक और नहीं और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करना। बौद्ध और आजीवक मनोवैज्ञानिक दृष्टि से हमारे स्व-स्वभाव का परिचायक है। जबकि अहिंसा परम्परा के श्रमणों ने भी इस नवकोटिक अहिंसा के आदर्श को स्वीकार एक व्यावहारिक एवं समाज-सापेक्ष धर्म है, क्योंकि वह लोक की पीड़ा कर उसके अर्थ को गहनता और व्यापकता प्रदान की। फिर भी बौद्ध के निवारण के लिए है। अहिंसा समभाव की साधना की बाह्य अभिव्यक्ति परम्परा में षट्जीवनिकाय का विचार उपस्थित नहीं था। बौद्ध भिक्षु है। समभाव अहिंसा का सारतत्त्व है और अहिंसा की आधार-भूमि है। नदी-नालों के जल को छानकर उपयोग करते थे। दूसरे उनके यहाँ नवकोटि अहिंसा की. यह अवधारणा भी स्वयं की अपेक्षा से थी- अहिंसा का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण दूसरा हमारे निमित्त क्या करता है इसका विचार नहीं किया गया, जबकि आचारांग में अहिंसा के सिद्धान्त को मनोवैज्ञानिक आधार पर जैन परम्परा में श्रमण के निमित्त से की जाने वाली हिंसा का भी विचार भी स्थापित करने का प्रयास किया गया है। वहां अहिंसा को आर्हत् किया गया। निर्ग्रन्थ परम्परा का कहना था कि केवल इतना ही पर्याप्त प्रवचन का सार और शुद्ध एवं शाश्वत धर्म बताया गया है। सर्वप्रथम नहीं है कि हम मनसा, वाचा, कर्मणा हिंसा न करें, न करावें और हमें यह विचार करना है कि अहिंसा को ही धर्म क्यों माना जावे? न उसे अनुमोदन दें अपितु यह भी आवश्यक है कि दूसरों को हमारे सूत्रकार इसका बड़ा मनोवैज्ञानिक उत्तर प्रस्तुत करता है, वह कहता निमित्त हिंसा करने का अवसर भी नहीं देवें और उनके द्वारा की गई है कि सभी प्राणियों में जिजीविषा प्रधान है, पुन: सभी को सुख अनुकूल हिंसा में भागीदार न बनें। यही कारण था कि जहाँ बुद्ध और बौद्ध और दुःख प्रतिकूल है-सव्ये पाणा पिआउया सुहसाया दुःखपडिकूला, भिक्षु निमन्त्रित भोजन को स्वीकार करते थे वहाँ निर्ग्रन्थ परम्परा में (१/२/३)। अहिंसा का अधिष्ठान यही मनोवैज्ञानिक सत्य है। अस्तित्व
औद्देशिक आहार भी अग्राह्य माना गया था, क्योंकि उसमें नमत्तिक और सुख की चाह प्राणीय स्वभाव है। जैन विचारकों ने इसी मनोवैज्ञानिक हिंसा के दोष की सम्भावना थी। यद्यपि पिटकग्रंथों में बौद्ध भिक्षु के तथ्य के आधार पर अहिंसा को स्थपित किया है। यद्यपि मैकेंजी ने लिए ऐसा भोजन निषिद्ध माना गया है, जिसमें उसके लिए प्राणिहिंसा अपने ग्रन्थ Hindu Ethics में अहिंसा का आधार 'भय' को माना है की गई हो और वह इस बात को जानता हो या उसने ऐसा सुना किन्तु उसकी यह धारणा गलत है क्योंकि भय के सिद्धांत को यदि
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