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दूसरे की निन्दा न करें। ज्ञातव्य है कि संघ-भेद का कारण यह मिली-जुली व्यवस्था नहीं थी, अपितु इसमें अपनी-अपनी श्रेष्ठता का मिथ्या अहंकार ही आगे चलकर संघ- भेद का कारण बना है। जब सचेलकों ने अचेलकों की साधना सम्बन्धी विशिष्टता को अस्वीकार किया और अचेलकों ने सचेलक को मुनि मानने से इन्कार किया तो संघ भेद होना स्वाभाविक ही था।
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
ऐतिहासिक सत्य तो यह है कि महावीर के निर्वाण के पश्चात् जो निर्धन्य मुनि दक्षिण बिहार, उड़ीसा और आन्ध्र प्रदेश के रास्ते से तमिलनाडु और कर्नाटक में पहुंचे, वे वहाँ की जलवायुगत परिस्थितियों के कारण अपनी अचेलता को यथावत कायम रख सके, क्योंकि वहाँ सर्दी पड़ती ही नहीं है। यद्यपि उनमें भी क्षुल्लक और ऐलक दीक्षाएँ होती रही होंगी, किन्तु अचेलक मुनि को सर्वोपरि मानने के कारण उनमें कोई विवाद नहीं हुआ। दक्षिण भारत में अचेल रहना सम्भव था, इसलिये उसके प्रति आदरभाव बना रहा। फिर भी लगभग पाँचवीं छठीं शती के पश्चात् वहाँ भी हिन्दू मठाधीशों के प्रभाव से सवस्त्र भट्टारक परम्परा का क्रमिक विकास हुआ और धीरे-धीरे दसवीं- ग्यारहवीं शती से व्यवहार में अचेलता समाप्त हो गयी। केवल अचलता के प्रति सैद्धान्तिक आदर भाव बना रहा। आज वहाँ जो दिगम्बर हैं, वे इस कारण दिगम्बर नहीं हैं कि वे नग्न रहते हैं अपितु इस कारण हैं कि अचेलता / दिगम्बरत्व के प्रति उनमें आदर भाव है।
महावीर का जो निर्ग्रन्थ संघ बिहार से पश्चिमोत्तर भारत की ओर आगे बढ़ा, उसमें जलवायु तथा मुनियों की बढ़ती संख्या के कारण वस्त्र पात्र का विकास हुआ। प्रथम शक, हूण आदि विदेशी संस्कृति के प्रभाव से तथा दूसरे जलवायु के कारण से इस क्षेत्र में नग्नता को हेय दृष्टि से देखा जाने लगा, जबकि दक्षिण भारत में नग्नता के प्रति हेय भाव नहीं था। लोक-लज्जा और शीत-निवारण के लिये एक वस्त्र रखा जाने लगा। प्रारम्भ में तो उत्तर भारत का यह निर्ग्रन्थ संघ रहता तो अचेल ही था, किन्तु अपने पास एक वस्त्र रखता था जिसका उपयोग नगरादि में प्रवेश करते समय लोक-लज्जा के निवारण के लिये और शीत ऋतु में सर्दी सहन न होने की स्थिति में ओढ़ने के लिये किया करता था। मथुरा से अनेक ऐसे अचेल जैन मुनियों की प्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं जिनके हाथ में यह वस्त्र (कम्बल) इस प्रकार प्रदर्शित है कि उनकी नग्नता छिप जाती है। उत्तर भारत में निर्मन्थों, मुनियों की इस स्थिति को ही ध्यान में रखकर सम्भवतः पालित्रिपिटक में निर्मन्थों को एकशाटक कहा गया है। हमें प्राचीन अर्थात् ईसा की पहली दूसरी शती के जो भी साहित्यिक और पुरातात्त्विक प्रमाण मिलते हैं उनसे यही सिद्ध होता है कि उत्तर भारत के निर्मन्थ संघ में शीत और लोक-लज्जा के लिये वस्त्र ग्रहण किया जाता था । श्वेताम्बर मान्य आगमिक व्याख्याओं से जो सूचनाएँ उपलब्ध होती हैं, उनसे भी यह ज्ञात होता है कि उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ में वस्त्र का प्रवेश होते हुए भी महावीर के निर्वाण के पश्चात् लगभग छः सौ वर्षों तक अचेलकत्व उत्सर्ग या श्रेष्ठमार्ग के रूप में मान्य रहा है।
श्वेताम्बर आगमिक व्याख्या साहित्य से ही हमें यह भी सूचना
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मिलती है कि उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ के अनेक आचार्यों ने समय-समय पर वस्त्र ग्रहण की बढ़ती हुई प्रवृत्ति के विरोध में अपने स्वर मुखरित किये थे। आर्य भद्रबाहु के पश्चात् भी उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ में आर्य महागिरि, आर्य शिवभूति, आर्य रक्षित आदि ने वस्त्रवाद का विरोध किया था। ज्ञातव्य है कि इन सभी को श्वेताम्बर परम्परा अपने पूर्वाचार्यों के रूप में ही स्वीकार करती है। मात्र यही नहीं, इनके द्वारा वस्त्रवाद के विरोध का उल्लेख भी करती है। इस सबसे यही फलित होता है कि उत्तर भारत की निर्ग्रन्थ परम्परा में लगे चलकर वस्त्र को जो अपरिहार्य मान लिया गया और वस्त्रों की संख्या में जो वृद्धि हुई वह एक परवर्ती घटना है और वही संघ भेद का मुख्य कारण भी है।
जैन साहित्यिक एवं पुरातात्विक साक्ष्यों के अतिरिक्त निर्ग्रन्थ मुनियों के द्वारा वस्त्र ग्रहण करने के सम्बन्ध में यथार्थ स्थिति का ज्ञान जैनेतर साक्ष्यों से भी उपलब्ध होता है, जो अति महत्त्वपूर्ण है। इनमें सबसे प्राचीन सन्दर्भ पालित्रिपिटक का है। पालित्रिपिटक में प्रमुख रूप से दो ऐसे सन्दर्भ हैं जहाँ निर्धन्य की वस्त्र सम्बन्धी स्थिति का संकेत मिलता है। प्रथम सन्दर्भ तो निर्मन्य का विवरण देते हुए स्पष्टतया यह कहता है कि निर्मन्थ एकशाटक थे, इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि बुद्ध के समय या कम से कम पालित्रिपिटक के रचनाकाल अर्थात् ई० पू० तृतीय- चतुर्थ शती में निर्ग्रन्थों में एक वस्त्र का प्रयोग होता था, अन्यथा उन्हें एकशाटक कभी नहीं कहा जाता। जहाँ आजीवक सर्वथा नग्न रहते थे, वहाँ निर्ग्रन्थ एक वस्त्र रखते थे। इससे यही सूचित होता है कि वस्त्र ग्रहण की परम्परा अति प्राचीन है। पुनः निर्मन्य के एकशाटक होने का यह उल्लेख पालित्रिपिटक में ज्ञातृपुत्र महावीर की चर्चा के प्रसंग में हुआ है। अतः सामान्य रूप से इसे पार्श्व की परम्परा कही देना भी ठीक नहीं होगा। फिर भी यदि इसमें चातुर्याम की अवधारणा के उल्लेख के आधार पर इसे पार्श्व की परम्परा से सम्बन्धित माने तो भी इतना अवश्य है कि महावीर के संघ में पार्श्वापत्यों के प्रवेश के साथ-साथ वस्त्र का प्रवेश हो गया था। चाहे निर्ग्रन्थ परम्परा पार्श्व की रही हो या महावीर की। यह निर्विवाद है कि निर्ग्रन्थ संघ में प्राचीनकाल से ही वस्त्र के सम्बन्ध में वैकल्पिक व्यवस्था मान्य रही है, फिर चाहे वह अपवाद मार्ग के रूप में हो या स्थविर कल्प के रूप में ही क्यों न हो।
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पालित्रिपिटक के एक अन्य प्रसंग में महावीर के स्वर्गवास के पश्चात् निर्मन्य संघ के पारस्परिक कलह और उसके दो भागों में विभाजित होने का निम्न उल्लेख मिलता है— वे एक-दूसरे की आलोचना करते हुए कहते थे, "तू इस धर्म विनय को नहीं जानता। मैं इस धर्म-विनय को जानता हूँ। तू क्या इस धर्म-विनय को जानेगा ? आदि-आदि।" इस विवाद के सम्बन्ध में विद्वानों में दो प्रकार के मत हैं। मुनि कल्याणविजय जी आदि कुछ विद्वानों के अनुसार यह विवरण महावीर के जीवन काल में ही उनके और गोशालक के बीच हुए उस विवाद का सूचक है, जिसके कारण महावीर के निर्वाण का प्रवाद भी प्रचलित हो गया था भगवतीसूत्र" में इमें इस विवाद का विस्तृत
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