________________
जैन आचार में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न
२९३
उल्लेख मिलता है। इसमें वस्त्रादि के सन्दर्भ में कोई चर्चा नहीं है। टीकाकार अपराजित ने यहाँ उत्सर्गलिंग का अर्थ स्पष्ट करते हुए सकल मात्र महावीर पर यह आरोप है कि वे पहले अकेले वन में निवास परिग्रहत्यागरूप अचेलकत्व के ग्रहण को ही उत्सर्गलिंग कहा है। इसी करते थे, अब संघ सहित नगर या गाँव के उपान्त में निवास करते प्रकार अपवाद की व्याख्या करते हुए कारणसहित परिग्रह को हैं और तीर्थङ्कर न होकर भी अपने को तीर्थङ्कर कहते हैं। किन्तु इस अपवादलिंग कहा है। अगली गाथा की टीका में उन्होंने स्पष्ट रूप विवाद के प्रसंग में, जो सबसे महत्त्वपूर्ण बात है, वह यह कि से सचेललिंग को अपवादलिंग कहा है। इसके अतिरिक्त आराधनाकार पालित्रिपिटक में इसका सम्बन्ध धर्म-विनय से जोड़ा गया है और औदात्त शिवार्य एवं टीकाकार अपराजित ने यह भी स्पष्ट किया है कि जिनका अर्थात् श्रेष्ठ-वस्त्र धारण करने वाले निर्ग्रन्थ श्रावकों को इस विवाद पुरुष-चिह्न अप्रशस्त हो अर्थात् लिंग चर्मरहित हो, अतिदीर्घ हो, से उदासीन बताया गया है। इससे इतना तो अवश्य प्रतिफलित अण्डकोष अतिस्थूल हो तथा लिंग बार-बार उत्तेजित होता हो तो उन्हें होता है कि विवाद का मूलभूत विषय धर्म-विनय अर्थात् श्रमणाचार सामान्य दशा में तो अपवादलिंग अर्थात् सचेललिंग ही देना होता से ही सम्बन्धित रहा होगा। अत: उसका एक पक्ष वस्त्र-पात्र रखने है, किन्तु ऐसे व्यक्तियों को भी संलेखना के समय एकान्त में उत्सर्गलिंग या न रखने से सम्बन्धित हो सकता है।
अर्थात् अचेलकत्व प्रदान किया जा सकता है। किन्तु उसमें सभी इस समस्त चर्चा से यह प्रतिफलित होता है कि सचेलता और अपवादलिंगधारियों को संलेखना के समय अचेललिंग ग्रहण करना अचेलता की समस्या निम्रन्थ संघ की एक पुरानी समस्या है और इसका आवश्यक नहीं माना गया है। आगे वे स्पष्ट लिखते हैं कि जिनके आविर्भाव पार्श्व और महावीर के निर्ग्रन्थ संघ के सम्मेलन के साथ स्वजन महान् सम्पत्तिशाली, लज्जाशील और मिथ्यादृष्टि अर्थात् जैन हो गया था। साथ ही यह भी सत्य है कि जहाँ एक ओर आजीवकों धर्म को नहीं मानने वाले हों, ऐसे व्यक्तियों के लिये न केवल सामान्य की अचेलता ने महावीर के निर्ग्रन्थ संघ में स्थान पाया, वहीं पार्श्व दशा में अपितु संलेखना के समय भी अपवादलिंग अर्थात् सचेलता की सचेल परम्परा ने भी उसे प्रभावित किया। परिणामस्वरूप वस्त्र ही उपयुक्त है। के सम्बन्ध में महावीर के निर्ग्रन्थ संघ में एक मिली-जुली व्यवस्था इस समग्र चर्चा से स्पष्टत: यह फलित होता है कि यापनीय स्वीकार की गई। उत्सर्ग मार्ग में अचेलता को स्वीकार करते हुए भी सम्प्रदाय उन व्यक्तियों को, जो समृद्धिशाली परिवारों से हैं, जो लज्जालु आपवादिक स्थितियों में वस्त्र-ग्रहण की अनुमति दी गयी। पालित्रिपिटक हैं तथा जिनके परिजन मिथ्यादृष्टि हैं अथवा जिनके पुरुषचिह्न अर्थात् में आजीवकों को सर्वथा अचेलक और निम्रन्थ को एकशाटक कहा लिंग चर्मरहित है, अतिदीर्घ है, अण्डकोष स्थूल हैं एवं लिंग बार-बार गया है और इसी आधार पर वे आजीवकों और निम्रन्थ में अन्तर उत्तेजित होता है, को आपवादिक लिंग धारण करने का निर्देश करता भी करते हैं। आजीवकों के लिये 'अचेलक' शब्द का भी प्रयोग करते है। इस प्रकार वह यह मानता है कि उपर्युक्त विशिष्ट परिस्थितियों हैं। धम्मपद की टीका में बुद्धघोष कहते हैं कि कुछ भिक्षु अचेलकों में व्यक्ति सचेल लिंग धारण कर सकता है। अत: हम कह सकते की अपेक्षा निर्ग्रन्थ को वरेण्य समझते हैं क्योंकि अचेलक तो सर्वर्था हैं कि यापनीय परम्परा यद्यपि अचेलकत्व पर बल देती थी और यह नग्न रहते हैं, जबकि निर्ग्रन्थ प्रतिच्छादन रखते हैं। ३२ बुद्धघोष के इस भी मानती थी कि समर्थ साधक को अचेललिंग ही धारण करना चाहिए उल्लेख से भी यह प्रतिफलित होता है कि निम्रन्थ नगर-प्रवेश आदि किन्तु उसके साथ-साथ वह यह मानती थी कि आपवादिक स्थितियों के समय जो एक वस्त्र (प्रतिच्छादन) रखते थे, उससे अपनी नग्नता में सचेल लिंग भी धारण किया जा सकता है। यहाँ उसका श्वेताम्बर छिपा लेते थे। इस प्रकार मूल त्रिपिटक में निर्ग्रन्थ को एकशाटक कहना, परम्परा से स्पष्ट भेद यह है कि जहाँ श्वेताम्बर परम्परा जिनकल्प का बुद्धघोष द्वारा उनके द्वारा प्रतिच्छादन रखने का उल्लेख करना और विच्छेद बताकर अचेललिंग का निषेध कर रही थी, वहाँ यापनीय परम्परा मथुरा से प्राप्त निम्रन्थ मुनियों के अंकन में उन्हें एक वस्त्र से अपनी समर्थ साधक के लिये हर युग में अचेलता का समर्थन करती है। नग्नता छिपाते हुए दिखाना–ये सब साक्ष्य यही सूचित करते हैं कि जहाँ श्वेताम्बर परम्परा वस्त्र-ग्रहण को सामान्य नियम या उत्सर्ग मार्ग उत्तर भारत में निर्ग्रन्थ संघ में कम से कम ई० पू० चौथी-तीसरी शताब्दी मानने लगी वहाँ यापनीय परम्परा उसे अपवाद मार्ग के रूप में ही में एक वस्त्र रखा जाता था और यह प्रवृत्ति बुद्धघोष के काल तक स्वीकार करती रही। अत: उसके अनुसार आगमों में जो वस्त्र-पात्र अर्थात् ईसा की दूसरी-तीसरी शताब्दी तक भी प्रचलित थी। सम्बन्धी निर्देश हैं, वे मात्र आपवादिक स्थितियों के हैं। दुर्भाग्य से
मुझे यापनीय ग्रन्थों में इस तथ्य का कहीं स्पष्ट निर्देश नहीं मिला वस के सम्बन्ध में यापनीय दृष्टिकोण
कि आपवादिक लिंग में कितने वस्त्र या पात्र रखे जा सकते थे। यापनीय-परम्परा का एक प्राचीन ग्रन्थ भगवतीआराधना है। इसमें यापनीय ग्रन्थ भगवतीआराधना की टीका में यापनीय आचार्य दो प्रकार के लिंग बताये गये हैं-१. उत्सर्गलिंग (अचेल) और २. अपराजित सूरि लिखते हैं कि चेल (वस्त्र) का ग्रहण, परिग्रह का उपलक्षण अपवादलिंग (सचेल)। आराधनाकार स्पष्ट रूप से कहता है कि संलेखना है, अत: समस्त प्रकार के परिग्रह का त्याग ही आचेलक्य है। आचेलक्य ग्रहण करते समय उत्सर्गलिंगधारी अचेल श्रमण का तो उत्सर्गलिंग के लाभ या समर्थन में आगे वे लिखते हैंअचेलता ही होता है, अपवादलिंगधारी सचेल श्रमण का भी यदि लिंग १. अचेलकत्व के कारण त्याग धर्म (दस धर्मों में एक धर्म) प्रशस्त है तो उसे भी उत्सर्गलिंग अर्थात् अचेलकत्व ग्रहण करना चाहिये। में प्रवृत्ति होती है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org