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जैन आचार में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न
२८९ से आजीवकों पर ही पड़ा, क्योंकि गोशालक महावीर के पास उनके सम्भव नहीं होता है। निर्ग्रन्थ संघ में युवा मुनियों में ये घटनाएँ घटित दूसरे नालन्दा चातुर्मास के मध्य पहुँचा था, जबकि महावीर उसके आठ होती थीं, ऐसे आगमिक उल्लेख है। यदि ये घटनाएँ अरण्य में घटित मास पूर्व ही अचेल हो चुके थे। दूसरे यह कि आजीवकों की परम्परा हों, तो उतनी चिन्तनीय नहीं थीं किन्तु भिक्षा, प्रवचन आदि के समय गोशालक के पूर्व भी अस्तित्व में थी, गोशालक आजीवक परम्परा स्त्रियों की उपस्थिति में इन घटनाओं का घटित होना न केवल उस का प्रवर्तक नहीं था। न केवल भगवतीसूत्र में, अपितु पालित्रिपटक मुनि की चारित्रिक प्रतिष्ठा के लिये घातक था, बल्कि सम्पूर्ण निर्ग्रन्थ में भी गोशालक के पूर्व हुए आजीवक सम्प्रदाय के आचार्यों के उल्लेख मुनि-संघ की प्रतिष्ठा पर एक प्रश्न-चिह्न खड़ा करता था। अत: यह उपलब्ध होते हैं। यदि आजीवक सम्प्रदाय महावीर के पूर्व अस्तित्व आवश्यक समझा गया कि जब तक वासना पूर्णत: मर न जाय, तब में था तो इस सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि उसकी तक ऐसे युवा मुनि के लिये नग्न रहने या जिनकल्प धारण करने अचेलता आदि कुछ आचार परम्पराओं ने महावीर को प्रभावित किया की अनुमति न दी जाय। श्वेताम्बर मान्य आगमिक व्याख्याओं में तो हो। अत: पार्थापत्य परम्परा के प्रभाव से महावीर के द्वारा वस्त्र का यह स्पष्ट निर्देश है कि ३० वर्ष की वय के पूर्व जिनकल्प धारण ग्रहण करना और आजीवक परम्परा के प्रभाव से वस्त्र का परित्याग नहीं किया जा सकता है। सत्य तो यह है कि निर्ग्रन्थ संघ में सचेल करना मात्र काल्पनिक नहीं कहा जा सकता। उसके पीछे ऐतिहासिक और अचेल ऐसे दो वर्ग स्थापित हो जाने पर यह व्यवस्था दी गई एवं मनोवैज्ञानिक आधार है। महावीर का दर्शन पापित्यों से और कि युवा मुनियों को छेदोपस्थापनीय चारित्र न दिया जाकर मात्र सामायिक आचार आजीवकों से प्रभावित रहा है।
चारित्र दिया जाय, क्योंकि जब तक व्यक्ति सम्पूर्ण परिग्रह त्याग करके जहाँ तक महावीर की शिष्य-परम्परा का प्रश्न है यदि गोशालाक अचेल नहीं हो जाता, तब तक उसे छेदोपस्थापनीय चारित्र नहीं दिया को महावीर का शिष्य माना जाए, तो वह अचेल रूप में ही महावीर जा सकता है। ज्ञातव्य है कि महावीर ने ही सर्वप्रथम सामायिक चारित्र के पास आया था और अचेल ही रहा। जहाँ तक गौतम आदि गणधरों एवं छेदोपस्थापनीय चारित्र (महाव्रतारोपण) ऐसे दो प्रकार के चारित्रों
और महावीर के अन्य प्रारम्भिक शिष्यों का प्रश्न है मुझे ऐसा लगता की व्यवस्था की जो आज भी श्वेताम्बर परम्परा में छोटी दीक्षा और है कि उन्होंने जिनकल्प अर्थात् भगवान् महावीर की अचेलता को ही बड़ी दीक्षा के नाम से प्रचलित है। युवा मुनियों के लिये 'क्षुल्लक' स्वीकार किया होगा, क्योंकि यदि गणधर गौतम सचेल होते या सचेल शब्द का प्रयोग किया गया और उसके आचार-व्यवहार के हेतु कुछ परम्परा के पोषक होते तो श्रावस्ती में हुई परिचर्चा में केशी उनसे विशिष्ट नियम बनाये गये, जो आज भी उत्तराध्ययन और दशवैकालिक सचेलता और अचेलता के सम्बन्ध में कोई प्रश्न ही नहीं करते। अतः के क्षुल्लकाध्ययनों में उपस्थित हैं। महावीर ने छेदोपस्थापनीय चारित्र श्रावस्ती में हुई इस परिचर्चा के पूर्व महावीर का मुनि-संघ पूर्णत: की व्यवस्था उन प्रौढ़ मुनियों के लिये की, जो अपनी वासनाओं पर अचेल ही रहा होगा। उसमें वस्त्र का प्रवेश क्रमश: किन्हीं विशेष पूर्ण नियन्त्रण प्रप्त कर चुके थे और अचेल रहने में समर्थ थे। परिस्थितियों के आधार पर ही हुआ होगा। महावीर के संघ में सचेलता 'छेदोपस्थापना' शब्द का तात्पर्य भी यही है कि पूर्व दीक्षा पर्याय को के प्रवेश के निम्नलिखित कारण सम्भावित हैं
समाप्त (छेद) कर नवीन दीक्षा (उपस्थापन) देना। आज भी श्वेताम्बर १. सर्वप्रथम जब महावीर के संघ में स्त्रियों को प्रव्रज्या प्रदान परम्परा में छेदोपस्थापना के समय ही महाव्रतारोपण कराया जाता है की गई तो उन्हें सवस्त्र ही दीक्षित किया गया क्योंकि लोक-लज्जा, और तभी दीक्षित व्यक्ति की संघ में क्रम-स्थिति अर्थात् ज्येष्ठता/ मासिक-धर्म आदि शारीरिक कारणों से उन्हें नग्न रूप में दीक्षित किया कनिष्ठता निर्धारित होती है और उसे संघ का सदस्य माना जाता है। जाना उचित नहीं था। अचेलता की सम्पोषक दिगम्बर परम्परा भी इस सामायिक चारित्र ग्रहण करने वाला मुनि संघ में रहते हुए भी उसका तथ्य को स्वीकार करती है कि महावीर के संघ में आर्यिकाएँ सवस्त्र सदस्य नहीं माना जाता है। इस चर्चा से यह फलित होता है कि निर्ग्रन्थ ही होती थीं। जब एक बार आर्यिकाओं के संदर्भ में विशेष परिस्थिति मुनि-संघ में सचेल (क्षुल्लक) और अचेल (मुनि) ऐसे दो प्रकार के में वस्त्र-ग्रहण की स्वीकृति दी गई तो इसने मुनि-संघ में भी आपवादिक वर्गों का निर्धारण महावीर ने या तो अपने जीवन-काल में ही कर परिस्थिति में जैसे भगन्दर आदि रोग होने पर वस्त्र-ग्रहण का द्वार दिया होगा या उनके परिनिर्वाण के कुछ समय पश्चात् कर दिया गया उद्घाटित कर दिया। सामान्यतया तो वस्त्र परिग्रह ही था किन्तु स्त्रियों होगा। आज भी दिगम्बर परम्परा में साधक की क्षुल्लक (दो वस्त्रधारी), के लिये और अपवादमार्ग में मुनियों के लिये उसे संयमोपकरण मान ऐलक (एक वस्त्रधारी) और मुनि (अचेल) ऐसी तीन व्यवस्थाएँ हैं। लिया गया।
अत: प्राचीनकाल में भी ऐसी व्यवस्था रही होगी, इससे इन्कार नहीं १. पुन: जब महावीर के संघ में युवा दीक्षित होने लगे होंगे किया जा सकता है। ज्ञातव्य है कि इन सभी सन्दर्भो में वस्त्र-ग्रहण तो महावीर को उन्हें भी सवस्त्र रहने का अनुमति देनी पड़ी होगी, का कारण लोक-लज्जा या लोकापवाद और शारीरिक स्थिति ही था। क्योंकि उनके जीवन में लिंगोत्थान और वीर्यपात की घटनाएँ सम्भव ३. महावीर के निर्ग्रन्थ संघ में वस्त्र के प्रवेश का तीसरा कारण थीं। ये ऐसी सामान्य मनोदेहिक घटनाएँ हैं जिनसे युवा-मुनि का पूर्णतः सम्पूर्ण उत्तर भारत, हिमालय के तराई क्षेत्र तथा राजस्थान में शीत बच पाना असम्भव है। मनोदैहिक दृष्टि से युवावस्था में चाहे कामवासना का तीव्र प्रकोप होना था। महावीर के निर्ग्रन्थ संघ में स्थित वे मुनि पर नियन्त्रण रखा जा सकता हो किन्तु उक्त स्थितियों का पूर्ण निर्मूलन जो या तो वृद्धावस्था में ही दीक्षित हो रहे थे या वृद्धावस्था की ओर
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