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नहीं है।
जैन धर्म में प्रायश्चित्त एवं दण्ड-व्यवस्था दिगम्बर परम्परा यापनीय ग्रन्थ षट्खण्डागम की धवला टीका दर्शन और चारित्र की विराधना होने पर मूल प्रायश्चित्त दिया जा सकता
प्रायश्चित्त नहीं मानती है। उसमें श्वेताम्बर परम्परा है. परन्त व्यवहारनय की दृष्टि से ज्ञान और दर्शन की विराधना होने सम्मत दस प्रायश्चित्तों का उल्लेख हुआ है जिसमें परिहार का उल्लेख पर मूल प्रायश्चित्त दिया भी जा सकता है और नहीं भी दिया जा सकता
है परन्तु चारित्र की विराधना होने पर तो मूल प्रायश्चित्त दिया ही जाता
है। जो तप के गर्व से उन्मत्त हों अथवा जिन पर सामान्य प्रायश्चित्त छेद प्रायश्चित्त
या दण्ड का कोई प्रभाव ही न पड़ता हो, उनके लिए मूल प्रायश्चित्त जो अपराधी शारीरिक दृष्टि से कठोर तप-साधना करने में असमर्थ का विधान किया गया है। है अथवा समर्थ होते हुए भी तप के गर्व के उन्मत्त है और तप प्रायश्चित्त से उसके व्यवहार में सुधार सम्भव नहीं होता है और तप अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त प्रायश्चित्त करके पुन:-पुन: अपराध करता है, उसके लिए छेद प्रायश्चित्त अनवस्थाप्य का शाब्दिक अर्थ व्यक्ति को पद से च्युत कर देना का विधान किया गया है। छेद प्रायश्चित्त का तात्पर्य है भिक्षु या भिक्षुणी है या अलग कर देना है। इस शब्द का दूसरा अर्थ है- जो सङ्घ के दीक्षा-पर्याय को कम कर देना, जिसका परिणाम यह होता है कि में स्थापना अर्थात् रखने योग्य नहीं है। वस्तुत: जो अपराधी ऐसे अपराधी का श्रमण सङ्घ में वरीयता की दृष्टि से जो स्थान है, वह अपराध करता है जिसके कारण उसे सङ्घ से बहिष्कृत कर देना अपेक्षाकृत निम्न हो जाता है अर्थात् जो दीक्षा पर्याय में उससे लघु आवश्यक होता है वह अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त के योग्य माना जाता हैं वे उससे ऊपर हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में उसकी वरिष्ठता है। यद्यपि परिहार में भी भिक्षु को सङ्घ से पृथक् किया जाता है किन्तु (सीनियारिटी) कम हो जाती हैं और उसे इस आधार पर जो भिक्षु वह एक सीमित रूप में होता है और उसका वेष-परिवर्तन उससे कभी कनिष्ठ रहे हैं उनको उसे वन्दन आदि करना होता है। आवश्यक नहीं माना जाता। जबकि अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त के योग्य किस अपराध में कितने दिन का छेद प्रायश्चित्त आता है इसका स्पष्ट भिक्षु को सङ्घ से निश्चित अवधि के लिए बहिष्कृत कर दिया जाता उल्लेख मुझे देखने को नहीं मिला। सम्भवतः यह परिहारपूर्वक तप है और उसे तब तक पुन: भिक्षु-सङ्घ में प्रवेश नहीं दिया जाता है प्रायश्चित्त का एक विकल्प है। अर्थात् जिसके अपराध के लिए मास जब तक कि वह प्रायश्चित्त के रूप में निर्दिष्ट तप-साधना को पूर्ण या दिन के लिए तप निर्धारित हो, उस अपराध के करने पर कभी नहीं कर लेता है और सङ्घ इस तथ्य से आश्वस्त नहीं हो जाता है उतने दिन का दीक्षा छेद का प्रायश्चित्त दिया जाता है। जैसे जो अपराध कि वह पुन: अपराध नहीं करेगा। जैन परम्परा में बार-बार अपराध पाण्मासिक प्रायश्चित्त के योग्य होते हैं, उनके करने पर कभी उसे छह करने वाले आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों के लिए यह दण्ड प्रस्तावित मास का छेद प्रायश्चित्त भी दिया जाता है। दूसरे शब्दों में उसकी किया गया है। स्थानाङ्ग सूत्र के अनुसार साधर्मियों की चोरी करने वरीयता छह मास कम कर दी जाती है। अधिकतम तप की अवधि वाला, अन्य धर्मियों की चोरी करने वाला तथा डण्डे, लाठी आदि ऋषभदेव के समय में एक वर्ष, अन्य बाईस तीर्थङ्करों के समय में से दूसरे भिक्षुओं पर प्रहार करने वाला भिक्षु अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त आठ मास और महावीर के समय में छह मास मानी गई है। अत: के योग्य माना जाता है। अधिकतम एक साथ छह मास का ही छेद प्रायश्चित्त दिया जा सकता है। सामान्यतया पार्श्वस्थ, अवसन्न, कशील और संसक्त भिक्षुओं को पारांचिक प्रायश्चित्त छेद प्रायश्चित्त दिये जाने का विधान है।
वे अपराध जो अत्यन्त गर्हित हैं और जिनके सेवन से न केवल
व्यक्ति अपितु सम्पूर्ण जैनसङ्घ की व्यवस्था धूमिल होती है, वे पारांचिक मूल प्रायश्चित्त
प्रायश्चित्त के योग्य होते हैं। पारांचिक प्रायश्चित्त का अर्थ भी भिक्षु-सङ्घ ___ मूल प्रायश्चित्त का अर्थ होता था, पूर्व की दीक्षा-पर्याय को पूर्णतः से बहिष्कार ही है। वैसे जैनाचार्यों ने यह माना है कि पारांचिक अपराध समाप्त कर नवीन दीक्षा प्रदान करना। इसके परिणामस्वरूप ऐसा भिक्षु करने वाला भिक्षु यदि निर्धारित समय तक निर्धारित तप का अनुष्ठान स भिक्षुसङ्घ में जिस दिन उसे यह प्रायश्चित्त दिया जाता था वह सबसे पूर्ण कर लेता है तो उसे एक बार गृहस्थवेष धारण करवाकर पुन: कनिष्ठ बन जाता था। मूले प्रायश्चित्त अनवस्थाप्य और पारांचिक सङ्घ में प्रविष्ट किया जा सकता है। बौद्ध परम्परा में भी पारांचिक प्रायश्चित्तों से अर्थ में भिन्न था कि इसमें अपराधी भिक्षु को गृहस्थवेष अपराधों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि ऐसा अपराध करने धारण करना अनिवार्य न था। सामान्यतया पञ्चेन्द्रिय प्राणियों की हिंसा वाला भिक्षु सदैव के लिए सङ्घ से बहिष्कृत कर दिया जाता है। जीतकल्प एवं मैथुन सम्बन्धी अपराधों को मूल प्रायश्चित्त के योग्य माना जाता के अनुसार अनवस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्त भद्रबाहु के काल से है। इसी प्रकार जो भिक्षु मृषावाद, अदत्तादान और परिग्रह सम्बन्धी बन्द कर दिया गया है। इसका प्रमुख कारण शारीरिक क्षमता की कमी दोषों का पुन:-पुन: सेवन करता है वह भी मूल प्रायश्चित्त का पात्र हो जाना है। स्थानाङ्ग सूत्र में निम्न पाँच अपराधों को पारांचिक प्रायश्चित्त माना गया है। जीतकल्प भाष्य के अनुसार निश्चयनय की दृष्टि से ज्ञान, के योग्य माना गया है।
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