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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
पश्चिम में। जैनागम सूत्रकृताङ्ग में बौद्ध-विचारणा की हेतुवाद सम्बन्धी कि वह मिल और बेन्थम के लिए है। धारणा का रोचक उपहास प्रस्तुत किया गया है। बौद्धागम मज्झिमनिकाय जहाँ तक गीता की विचारणा का प्रश्न है, अपने आचार-दर्शन में भी बुद्ध ने स्वयं को हेतुवाद का समर्थक माना है और निर्ग्रन्थ में वह भी हेतुवाद का समर्थन करती है। गीताकार की दृष्टि में भी (जैन) परम्परा को फलवाद का समर्थक बताया है। यद्यपि निर्ग्रन्थ कर्म के नैतिक मूल्याङ्कन का आधार कर्म का परिणाम न होकर उसका परम्परा को एकान्तत: फलवादी मानना एक असङ्गत धारणा है; क्योंकि हेतु ही है। गीता का निष्काम कर्मयोग का सिद्धान्त “कर्मपरिणाम" पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती जैनागमों में हेतुवाद का भी प्रबल समर्थन की अपेक्षा कर्म-हेतु पर ही अधिक बल देता है। गीता में जिस आधार किया गया है, जिस पर प्रमाणपूर्वक थोड़ी गहराई से विचार करना पर अर्जुन के लिए युद्ध के औचित्य का समर्थन किया गया है उसमें - आवश्यक है।
कर्म-हेतु को ही प्रमुखता दी गई है, कर्म-परिणाम को नहीं। गीई यह तो निर्विवाद सत्य है कि बौद्धदर्शन हेतुवाद का समर्थक में कृष्ण स्पष्ट रूप से कहते हैं- “हे अर्जुन! अमुक कर्म का यह है। बौद्ध विचारणा नैतिक मूल्याङ्कन की दृष्टि से कर्ता के हेतु अथवा फल मिले यह बात (मन में) रखकर कर्म करने वाला न हो।'६ कार्य कार्य के मानसिक प्रत्यय को ही प्रमुखता देती है। धम्मपद के प्रारम्भ के परिणाम पर दृष्टि रखकर आचरण करना गीताकार को अभिप्रेत में ही बुद्ध कहते हैं- "सभी प्रकार के शुभाशुभ आचरण में मानसिक नहीं है, क्योंकि वह तो कर्म-फल पर व्यक्ति का अधिकार ही नहीं व्यापार (हेतु) ही प्राथमिक हैं, मन की दुष्टता और प्रसन्नता अर्थात् मानता है। गीताकार की दृष्टि में कर्मफल पर दृष्टि रखकर आचरण मन के भले-बुरे होने पर ही कर्म भी शुभाशुभ हुआ करते हैं, और करने वाले कृपण अर्थात् दीन या निचले दर्जे के हैं। बालगङ्गाधर उसी से सुख-दुःख मिलता है। (धम्मपद १.२)। यहीं नहीं मज्झिमनिकाय तिलक भी गीता के आचार-दर्शन को हेतुवाद का समर्थक मानते हैं, में एक और प्रबल प्रमाण है, जहाँ बुद्ध कर्म के मानसिक प्रत्यय की उनके अनुसार कर्म के बाह्य-परिणाम के आधार पर नैतिक निर्णय प्रमुखता के आधार पर ही बौद्ध परम्परा और निर्ग्रन्थ परम्परा में अन्तर देना असङ्गत है। वे लिखते हैं- कर्म छोटे या बड़े हों या बराबर भी स्थापित करते हैं। बुद्ध कहते हैं"- मैं (निग्रन्थों के) काय-दण्ड, हों उनमें नैतिक दृष्टि से जो भेद हो जाता है, वह कर्ता के हेतु के वचन-दण्ड और मनो-दण्ड के बदले काय-कर्म, वचन-कर्म और कारण ही हुआ करता है। गीता में भगवान् ने अर्जुन से कुछ यह मनस्-कर्म कहता हूँ और निर्ग्रन्थों की तरह काय-कर्म (कर्म के बाह्य सोचने को नहीं कहा, कि युद्ध करने से कितने मनुष्यों का कल्याण स्वरूप) की नहीं, वरन् मनस-कर्म (कर्म के मानसिक प्रत्यय) की प्रधानता होगा और कितने लोगों की हानि होगी; बल्कि अर्जुन से भगवान् यही मानता हूँ।
कहते हैं। इस समय यह विचार गौण है कि तुम्हारे युद्ध करने से भीष्म जैनागम सूत्रकृताङ्ग भी इस तथ्य का समर्थन करता है कि बौद्ध मरेंगे या द्रोण। मुख्य प्रश्न यही है कि तुम किस बुद्धि (हेतु या उद्देश्य) परम्परा हेतुवाद की समर्थक है। ग्रन्थकार ने बौद्ध हेतुवाद का से युद्ध करने को तैयार हुए हो, यदि तुम्हारी बुद्धि स्थित-प्रज्ञों के उपहासात्मक चित्र प्रस्तुत किया है। सूत्रकार प्रव्रज्या ग्रहण करने को समान शुद्ध होगी और यदि तुम उस पवित्र बुद्धि से अपना कर्तव्य तत्पर आर्द्रक कुमार के सम्मुख एक बौद्ध श्रमण के द्वारा ही बौद्ध करने लगोगे तो फिर चाहे भीष्म मरे या द्रोण; तुम्हें उसका पाप नहीं दृष्टिकोण को निम्न शब्दों में प्रस्तुत करवाते हैं -
लगेगा। गीता काँट के समान सङ्कल्प को ही समस्त कार्यों का मूल ___ “खोल के पिण्ड को मनुष्य जानकर भाले से छेद डाले और मानती है। गीता-शाङ्करभाष्य में कहा गया है “सभी कामनाओं का उसको आग पर सेके अथवा कुमार जानकर तूमड़े को ऐसा करे तो मूल सङ्कल्प है।"९ आचार्य शङ्कर ने मनुस्मृति (२/३) तथा महाभारत हमारे मत के अनुसार प्राणिवध का पाप लगता है। परन्तु खोल का से उद्धरण देकर भी इसे सिद्ध किया है। महाभारत के शान्तिपर्व में पिण्ड मानकर कोई श्रावक मनुष्य को भाले से छेदकर आग पर सेकें ___ कहा गया है, 'हे काम! मैं तेरे मूल को जानता हूँ, तू निस्संदेह “सङ्कल्प" अथवा तूमड़ा मानकर कुमार को ऐसा करे तो हमारे मत के अनुसार से ही उत्पन्न होता है, मैं तेरा सङ्कल्प नहीं करूँगा, अत: फिर तू मुझे उसको प्राणिवध का पाप नहीं लगता है'।
प्राप्त नहीं होगा। मज्झिमनिकाय और सूत्रकृताङ्ग के उपरोक्त सन्दर्भो के आधार यद्यपि अर्जुन के लिए युद्ध के औचित्य का समर्थन करते समय पर यह सिद्ध होता है कि बौद्ध नैतिकता हेतुवाद का समर्थन करती गीता कर्म के नैतिक मूल्याङ्कन के लिए बाह्य परिणाम पर विचार करने है, दूसरे शब्दों में उसके अनुसार कर्म की शुभाशुभता का आधार की दृष्टि को ओझल कर देती है और ऐसा प्रतीत होता है कि गीता कर्ता का आशय है, न कि कर्म परिणाम। फिर भी हमें यह स्मरण एकान्त हेतुवाद का समर्थन करती है। लेकिन यदि गीता के समग्र रखना चाहिए कि सैद्धान्तिक दृष्टि से हेतुवाद का समर्थन करते हुए स्वरूप को दृष्टिगत रखते हुए विचार किया जाए तो हमें अपनी इस
भी व्यवहारिक रूप में बौद्ध नैतिकता फलवाद की अवहेलना नहीं करती। धारणा के परिष्कार के लिए विवश होना पड़ता है। यदि गीता की विनयपिटक में ऐसे अनेकों प्रसङ्ग हैं जहाँ कर्म के हेतु को महत्त्व नहीं दृष्टि में कर्म का बाह्य परिणाम अपना कोई नैतिक मूल्य नहीं रखता देकर मात्र कर्म-परिणाम के लोक-निन्दनीय होने के आधार पर ही उसका है तो फिर गीता के कर्मयोग और लोकसंग्रह के हेतु कर्म करते रहने आचरण भिक्षुओं के लिए अविहित ठहराया गया है। भगवान् बुद्ध के उपदेश का कोई अर्थ नहीं रह जाता। चाहे कृष्ण ने अर्जुन के के लिए कर्म-परिणाम का अग्रावलोकन उतना ही महत्त्वपूर्ण है, जितना द्वारा प्रस्तुत युद्ध के परिणाम स्वरूप कुलक्षय और वर्ण-सङ्करता की
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