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जैन दर्शन में नैतिक मूल्याङ्कन का विषय
२६१ उत्पत्ति के विचार की एक बारगी उपेक्षा कर दी हो, लेकिन अन्त मानना पड़ेगा, दूसरे शब्दों में उन्हें नैतिकता की परिसीमा में मानना में उन्हें स्वयं ही यह स्वीकार करना पड़ा कि “यदि मैं कर्म न करूं होगा, क्योंकि उनके क्रिया-कलाप भी किसी के सुख और दुःख के तो यह लोक भ्रष्ट हो जाए और मैं वर्णसङ्कर का करने वाला होऊ कारण तो बनते ही हैं और ऐसी दशा में उन्हें शुभाशुभ का बन्ध तथा इस सारी प्रजा का मारने वाला बनें।" क्या यह कृष्ण की फल भी होगा ही। दूसरे यदि शुभ का अर्थ स्वयं का दुःख और अशुभ दृष्टि नहीं है? स्वयं तिलकजी भी गीता-रहस्य में इसे स्वीकार करते का अर्थ स्वयं का सुख हो तो वीतराग तपस्या के द्वारा शुभ का बन्ध हैं, उनके शब्दों में गीता यह कभी नहीं कहती कि बाह्य कर्मों की करेगा एवं ज्ञानी आत्मसंतोष की अनुभूति करते हुए भी अशुभ या
ओर कुछ भी ध्यान न दो। किसी मनुष्य की विशेषकर अनजाने मनुष्य पाप का बन्ध करेगा। की बुद्धि की समता की परीक्षा करने के लिए यद्यपि केवल उसका अत: यह सिद्ध होता है कि स्वयं का अथवा दूसरों का सुख बाह्य कर्म या आचरण, प्रधान साधन है; तथापि केवल इस बाह्य आचरण अथवा दुःख रूप परिणाम शुभाशुभता का निर्णायक नहीं हो सकता, द्वारा ही नीतिमत्ता की अचूक परीक्षा हमेशा नहीं हो सकती। ११ इस वरन् उसके पीछे रहा हुआ कर्ता का शुभाशुभ प्रयोजन ही किसी कार्य प्रकार सैद्धान्तिक दृष्टि से गीता हेतुवाद की समर्थक होते हुए भी के शुभत्व और अशुभत्व का निश्चय करता है। व्यावहारिक दृष्टि से कर्म के बाह्य परिणाम की उपेक्षा नहीं करती है। अष्टसहस्री में आचार्य विद्यानन्दी फलवाद या कर्म के बाह्य परिणाम गीता कर्मफलाकांक्षा का या कर्मफलासक्ति का निषेध करती है, न कि के आधार पर नैतिक मूल्याङ्कन करने की वस्तुनिष्ठ पद्धति का विरोध कर्म-परिणाम के अग्रावलोकन या पूर्व विचार का। यह ठीक है कि करते हैं। वे कहते हैं कि किसी दूसरे के हिताहित के आधार पर पुण्य-पाप उसकी दृष्टि में शुभाशुभत्व के निर्णय का विषय कर्म-सङ्कल्प है। का मूल्याङ्कन नहीं किया जा सकता, क्योंकि कुछ तत्त्व तो पुण्य-पाप
अब यदि कार्य के मानसिक हेतु और भौतिक परिणाम में कौन के इस माप से नीचे हैं, जैसे जड़ पदार्थ और कुछ पुण्य-पाप के नैतिक मूल्याङ्कन का विषय है? इस समस्या पर जैन दृष्टि से विचार इस माप के ऊपर हैं, जैसे अर्हत्। पुण्य-पाप के क्षेत्र में अपनी क्रियाओं करें, तो हम पाते हैं कि जैन दृष्टिकोण ने इस समस्या के निराकरण के आधार पर वे ही लोग आते हैं जो वासनाओं से युक्त हैं। दूसरे का समुचित प्रयास किया है। जैन दृष्टि एकाङ्गी मान्यताओं की विरोधी शब्दों में बन्धन के हेतुरूप में वासना ही सामान्य तत्त्व है। अत: मात्र रही है और यही कारण है कि प्रथमत: उसने हेतुवाद की एकाङ्गी किसी को सुख देने या दुःख देने से कोई कार्य पुण्य-पाप नहीं होता मान्यता का खण्डन किया है।
वरन् उस कार्य के पीछे जो वासना है, वही कार्य को शुभाशुभ बनाती जैनागम सूत्रकृताङ्ग में हेतुवाद का जो खण्डन किया गया है वह है। अर्हत् की वीतरागता के कारण किसी को सुख या दुःख तो हो एकाङ्गी हेतुवाद का है। जैन दार्शनिकों द्वारा किए गए हेतुवाद के खण्डन सकता है, लेकिन उसकी अपनी कोई वासना या प्रयोजन नहीं है, के आधार पर उसे फलवादी परम्परा का समर्थक मान लेना स्वयं में अत: उसे पुण्य-पाप का बन्ध नहीं होता है। सबसे बड़ी भ्रान्ति होगी। जैन चिन्तकों द्वारा हेतुवाद का फलवाद से निष्कर्ष यह है कि जैन दृष्टि के अनुसार भी कर्ता का प्रयोजन भी अधिक समर्थन किया गया है, जिसे अनेक तथ्यों से परिपष्ट किया या अभिसंधि ही शुभाशुभत्व की अनिवार्य शर्त है, न कि मात्र सुख-दुःख जा सकता है। आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार में, आचार्य समन्तभद्र के परिणाम। की आप्तमीमांसा की वृत्ति में तथा आचार्य विद्यानन्दी की अष्टसहस्री भारतीय दर्शन के अधिकारी विद्वान् श्री यदुनाथ सिन्हा भी जैन टीका में फलवाद का खण्डन और हेतुवाद का मण्डन पाया जाता नैतिक विचारणा को इसी रूप में देखते हैं, वे लिखते हैं कि “जैन है। आचार्य कुन्दकुन्द समयसार में स्पष्ट रूप से लिखते हैं कि “हिंसा आचार दर्शन कार्य के परिणाम (फल) से व्यतिरिक्त उसके हेतु की का अध्यवसाय अर्थात् मानसिक हेतु ही बंधन का कारण है, चाहे शुद्धता पर ही बल देता है। उसके अनुसार यदि कार्य किसी शुद्ध बाह्य रूप में हिंसा हुई हो या न हुई हो। १२ वस्तु (घटना) नहीं वरन् प्रयोजन से किया गया है तो वह शुभ ही होगा, चाहे उससे दूसरों सङ्कल्प ही बन्धन का कारण है। १३ दूसरे शब्दों में बाह्य रूप में घटित को दुःख क्यों नहीं पहुँचा हो। कार्य यदि अशुभ प्रयोजन से किया कर्म-परिणाम नैतिक या अनैतिक नहीं है, वरन् व्यक्ति का कर्म-सङ्कल्प गया है तो अशुभ ही होगा, चाहे परिणाम के रूप में उससे दूसरों या हेतु ही नैतिक या अनैतिक होता है। इसी सन्दर्भ में आचार्य समन्तभद्र को सुख हुआ हो।'१५ श्री सुशीलकुमार मैत्रा भी लिखते हैं- "शुभाशुभ
और विद्यानन्दी के दृष्टिकोणों का उल्लेख सुशीलकुमार मैत्रा और यदुनाथ का विनिश्चय बाह्य परिणामों पर नहीं वरन् कर्ता के आत्मगत प्रयोजन - सिन्हा ने भी किया है।४ जैन दार्शनिक समन्तभ्रद बताते हैं कि कार्य की प्रकृति के आधार पर करना चाहिए।"१६ तुलनात्मक दृष्टि से
का शुभत्व केवल इस तथ्य में निहित नहीं है कि उससे दूसरों को अपने-अपने हेतुवाद के समर्थन में जैन, बौद्ध और गीता के आचार सुख होता है और स्वयं को कष्ट होता है। इसी प्रकार कार्य का अशुभत्व दर्शनों में अद्भुत साम्य परिलक्षित होता है। हम विषय की गहराई इस बात पर निर्भर नहीं करता कि उसकी फल-निष्पत्ति के रूप में में प्रवेश नहीं करते हुए मात्र तुलना की दृष्टि से धम्मपद और गीता दूसरों को दुःख होता है और स्वयं को सुख होता है। क्योंकि यदि के एक श्लोक को प्रस्तुत करेंगे। जैन ग्रन्थ पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में आचार्य शुभ का अर्थ दूसरों का सुख और अशुभ का अर्थ दूसरों का दुःख अमृतचन्द्र कहते हैं- "रागादि से रहित अप्रमाद युक्त आचरण करते हो तो हमें अचेतन जड़ पदार्थ और वीतराग संत को भी बन्धन में हुए यदि प्राणाघात हो जाए तो वह हिंसा नहीं है अर्थात् ऐसा व्यक्ति
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