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जैन आचार में उत्सर्ग-मार्ग और अपवाद-मार्ग
उत्सर्ग और अपवाद
स्थविरकल्प में यह अनिवार्य हो गया कि जितना “प्रतिषेध" का पालन जैन आचार्यों ने आचार सम्बन्धी जो विभिन्न विधि-निषेध प्रस्तुत आवश्यक है, उतना ही आवश्यक “अनुज्ञा" का आचरण भी है। किये हैं वे निरपेक्ष नहीं हैं। देश-काल और व्यक्ति के आधार पर उनमें बल्कि परस्थितिविशेष में "अनुज्ञा" के अनुसार आचण नहीं करने परिवर्तन सम्भव हो सकता है। आचार के जिन नियमों का विधि-निषेध पर प्रायश्चित का भी विधान करना पड़ा है। जिस प्रकार प्रतिषेध का जिस सामान्य स्थिति को ध्यान में रखकर किया गया है उसमें वे आचार भंग करने पर प्रायश्चित है उसी प्रकार अपवाद का आचरण नहीं करने के विधि-निषेध यथावत् रूप में पालनीय माने गये हैं, किन्तु देश-काल, पर भी प्रायश्चित है अर्थात् “प्रतिषेध" और "अनुज्ञा" उत्सर्ग और परिस्थिति अथवा वैयक्तिक परिस्थितियों की भित्रता में उनमें परिवर्तन अपवाद दोनों ही समबल माने गये हैं। दोनों में ही विशुद्धि है। किन्तु भी स्वीकार किया गया है। व्यक्ति और देश-कालगत सामान्य यह भी नहीं भूलना चाहिए कि उत्सर्ग राजमार्ग है, जिसका अवलम्बन परिस्थितियों में जिन नियमों का पालन किया जाता है वे उत्सर्ग मार्ग साधक के लिए सहज है, किन्तु अपवाद, यद्यपि आचरण में सरल कहे जाते हैं किन्तु जब देशकालगत और वैयक्तिक विशेष परिस्थितियों है, तथापि सहज नहीं है।" में उन सामान्य विधि-निषेधों को शिथिल कर दिया जाता है तो उसे वस्तुत: जीवन में नियमों उपनियमों की जो सर्व सामान्य विधि अपवाद मार्ग कहा जाता है। वस्तुत: आचार के सामान्य नियम उत्सर्ग होती है वह उत्सर्ग और जो विशेष विधि है वह अपवाद विधि है। मार्ग कहे जाते हैं और विशिष्ट नियम अपवाद मार्ग कहे जाते हैं। उत्सर्ग सामान्य अवस्था में आचरणीय होता है और अपवाद विशेष दोनों की व्यावहारिकता परिस्थिति-सापेक्ष होती है। जैन आचार्यों की संकटकालीन अवस्था में। यद्यपि दोनों का उद्देश्य एक ही होता है मान्यता रही है कि सामान्य परिस्थितियों में उत्सर्ग मार्ग का अवलम्बन कि साधक का संयम सुरक्षित रहे। समर्थ साधक के द्वारा संयम रक्षा किया जाना चाहिए किन्तु देशकाल, परिस्थिति अथवा व्यक्ति के स्वास्थ्य के लिए जो अनुष्ठान किया जाता है वह उत्सर्ग है और असमर्थ साधक एवं क्षमता में किसी विशेष परिवर्तन के आ जाने पर अपवाद मार्ग के द्वारा संयम की रक्षा के लिए ही उत्सर्ग से विपरीत जो अनुष्ठान का अवलम्बन किया जा सकता है। यहाँ इस तथ्य को भी स्पष्ट रूप किया जाता है वह अपवाद है। अनेक परिस्थितियों में यह स्थिति से समझ लेना चाहिए कि अपवाद मार्ग का सम्बन्ध केवल आचरण उत्पन्न हो जाती है कि व्यक्ति उत्सर्ग मार्ग के प्रतिपालन के द्वारा संयम सम्बन्धी बाह्य विधि-निषेधों से होता है और आपवादिक परिस्थिति और ज्ञानादि गुणों की सुरक्षा नहीं कर पाता तब उसे अपवाद मार्ग में किये गये सामान्य नियम के खण्डन से न तो उस नियम का मूल्य का ही सहारा लेना होता है। यद्यपि उत्सर्ग और अपवाद परस्पर विरोधी कम होता है और न सामान्य रूप से उसके आचरणीय होने पर कोई प्रतीत होते हैं किन्तु लक्ष्य की दृष्टि से विचार करने पर उनमें वस्तुत: प्रभाव पड़ता है। जहाँ तक आचार के आन्तरिक पक्ष का प्रश्न है, विरोध नहीं होता है। दोनों ही साधना की सिद्धि के लिए होते है, जैनाचार्यों ने उसे सदैव निरपेक्ष या उत्सर्ग के रूप में स्वीकार किया उसकी सामान्यता एवं सार्वभौमिकता खण्डित होती है। उत्सर्गमार्ग को है। हिंसा का विचार या हिंसा की भावना किसी भी परिस्थिति में नैतिक सार्वभौम कहने का तात्पर्य भी यह नहीं है कि अपवाद का कोई स्थान या आचरणीय नहीं मानी जाती। जिस सम्बन्ध में अपवाद की चर्चा नहीं है। उसे सार्वभौम कहने का तात्पर्य इतना ही है कि सामान्य की जाती है वह अहिंसा के बाह्य विधि निषेधों से सम्बन्धित होता परिस्थितियों में उसका ही आचरण किया जाना चाहिए। उत्सर्ग और है। मान लीजिए कि हम किसी निरपराध प्राणी का जीवन बचाने के अपवाद दोनों की आचरणीयता परिस्थिति-सापेक्ष है, निरपेक्ष नहीं। लिए अथवा किसी स्त्री का शील सुरक्षित रखने के लिए हिंसा अथवा यह उस परिस्थिति पर निर्भर होता है कि व्यक्ति उसमें उत्सर्ग का असत्य का सहारा लेते हैं तो इससे अहिंसा या सत्यसम्भाषण का अवलम्बन ले या अपवाद का। कोई भी आचार, परिस्थिति निरपेक्ष सामान्य नैतिक आदर्श समाप्त नहीं हो जाता। अपवाद मार्ग न तो नहीं हो सकता। अत: आचार के नियमों के परिपालन में परिस्थिति कभी मौलिक एवं सार्वभौमिक नियम बनता है और न अपवाद आचरण के विचार को सम्मिलित किया गया है। फलत: अपवाद मार्ग की का कारण माना जाता है, उसी प्रकार अनुज्ञा के अनुसार अर्थात् अपवाद आवश्यकता स्वीकार की गई है। मार्ग पर चलने पर भी आचरण को विशुद्ध ही माना जाना चाहिए। जैन संघ में अपवाद मार्ग का कैसे विकास हुआ? इस सम्बन्ध यदि ऐसा न माना जाता तब तो एकमात्र उत्सर्ग मार्ग पर ही चलना में पं० दलसुख भाई मालवणिया का कथन है कि आचारांग में निर्ग्रन्थ अनिवार्य हो जाता, फलस्वरूप अपवाद मार्ग का अवलम्बन करने के और निम्रन्थी संघ के कर्तव्य और अकर्तव्य के मौलिक उपदेशों का लिए कोई भी किसी भी परिस्थिति में तैयार ही न होता। परिणाम संकलन है किन्तु देश-काल अथवा क्षमता आदि के परिवर्तित होने यह होता कि साधना मार्ग में केवल जिनकल्प को ही मानकर चलना से उत्सर्ग मार्ग पर चलना कठिन हो जाता है। अस्तु ऐसी स्थिति पड़ता। किन्तु जब से साधकों के संघ एवं गच्छ बनने लगे, तब से में आचारांग की ही निशीथ नामक चूला में उन आचार नियमों के केवल औत्सर्गिक मार्ग अर्थात् जिनकल्प संभव नहीं रहा। अतएव विषय में जो वितथकारी है उनका प्रायश्चित बताया गया है। अपवादों
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