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सदाचार के शाश्वत मानदण्ड और जैनधर्म
२५१ परम्पराएं स्वीकृत रही हैं, उन्हीं के अनुसार आचरण सदाचार कहा पारम्परिक शब्दावली में परभाव से हटकर स्वभाव में स्थित हो जाना जावेगा। किन्तु यह दृष्टिकोण समुचित प्रतीत नहीं होता है। वस्तुतः ही मोक्ष है। यही कारण था कि जैन-दार्शनिकों ने धर्म की एक विलक्षण कोई आचरण किसी देश, काल और समाज में आचरित एवं अनुमोदित एवं महत्त्वपूर्ण परिभाषा दी है। उनके अनुसार धर्म वह है जो वस्तु होने से सदाचार नहीं बन जाता।
का निज स्वभाव है (वत्थुसहावो धम्मो)। व्यक्ति का धर्म या साध्य कोई आचरण केवल इसलिए सत् या उचित नहीं होता है कि वही हो सकता है जो उसकी चेतना या आत्मा का निज-स्वभाव है वह किसी समाज में स्वीकृत होता रहा है, अपितु वास्तविकता तो और जो हमारा निज-स्वभाव है उसे पा लेना ही मुक्ति है। अत: उस यह है कि वह इसलिए स्वीकृत होता रहा है क्योंकि वह सत् है। स्वभाव-दशा की ओर ले जाने वाला आचरण ही सदाचरण कहा जा किसी आचरण का सत् या असत् होना अथवा सदाचार या दुराचार सकता है। होना स्वयं उसके स्वरूप पर निर्भर होता है, न कि उसके आचरित पुन: यह प्रश्न उठता है कि हमारा स्वभाव क्या है? भगवती-सूत्र अथवा अनाचरित होने पर। महाभारत में दुर्योधन ने कहा था- में गौतम ने भगवान् महावीर के सन्मुख यह प्रश्न उपस्थित किया था। जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिः ।
वे पूछते हैं- हे भगवन् ! आत्मा का निज स्वरूप क्या है और आत्मा ... जानाम्यधर्म न च मे निवृत्तिः ।। शान्तिपर्व
का साध्य क्या है? महावीर ने उनके इन प्रश्नों का जो उत्तर दिया ___अर्थात् मैं धर्म को जानता हूँ किन्तु उस ओर प्रवृत्ति नहीं होती, था, वह आज भी समस्त जैन आचार-दर्शन में किसी कर्म के नैतिक उसका आचरण नहीं करता। मैं अधर्म को भी जानता हूँ परन्तु उससे मूल्याङ्कन का आधार है। महावीर ने कहा था- आत्मा समत्व स्वरूप निवृत्ति नहीं होती हूँ। अत: हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि है और उस समस्व स्वरूप को प्राप्त कर लेना ही आत्मा का साध्य किसी आचरण का सदाचार या दुराचार होना इस बात पर निर्भर नहीं है। दूसरे शब्दों में समता या समभाव आत्मा का स्वभाव है और विषमता है कि वह किसी वर्ग या समाज द्वारा स्वीकृत या अस्वीकृत होता विभाव है। विभाव से स्वभाव की दिशा में अथवा विषमता से समता रहा है। सदाचार और दुराचार की मूल्यवत्ता उनके परिणामों पर या की दिशा में ले जाने वाला आचरण ही सदाचार है। संक्षेप में जैनधर्म उस साध्य पर निर्भर होती है, जिसके लिए उनका आचरण किया के अनुसार सदाचार या दुराचार का शाश्वत मानदण्ड समता एवं विषमता जाता है। आचरण की मूल्यवत्ता, स्वयं आचरण. पर ही नहीं, अपितु अथवा स्वभाव एवं विभाव है। स्वभाव दशा से फलित होने वाला उसके साध्य या परिणाम पर निर्भर होती है। किसी आचरण की आचरण सदाचार है और विभाव-दशा या पर-भाव से फलित होने मूल्यवत्ता का निर्धारण उसके समाज पर पड़ने वाले प्रभाव के आधार वाला आचरण दुराचार है। पर भी है, फिर भी उसकी मूल्यवत्ता का अन्तिम आधार तो कोई यहाँ हमें समता के स्वरूप पर भी विचार कर लेना होगा। यद्यपि आदर्श या साध्य पर ही विचार करना होगा जिसके आधार पर किसी द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि से समता का अर्थ पर-भाव से हटकर शुद्ध कर्म को सदाचार या दुराचार की कोटि में रखा जाता है। वस्तुतः स्वभाव दशा में स्थित हो जाना है किन्तु अपनी विविध अभिव्यक्तियों मानव-जीवन का परम साध्य ही वह तत्त्व है, जो सदाचार का मानदण्ड की दृष्टि से विभिन्न स्थितियों में इसे विभिन्न नामों से पुकारा जाता या कसौटी बनता है। पाश्चात्य आचार-दर्शनों में सदाचार और दुराचार है। आध्यात्मिक दृष्टि से समता या समभाव का अर्थ है- राग-द्वेष के जो मानदण्ड स्वीकृत रहे हैं उन्हें मोटे-मोटे रूप से दो भागों में से ऊपर उठकर वीतरागता या अनासक्त भाव की उपलब्धि। मनोवैज्ञानिक बाँटा जाता है-१. नियमवादी और २. साध्यवादी। नियमवादी-परम्परा दृष्टि से मानसिक समत्व का अर्थ है समस्त इच्छाओं, आकांक्षाओं सदाचार और दुराचार का मानदण्ड सामाजिक अथवा धार्मिक नियमों से रहित मन की शान्त एवं विक्षोभ (तनाव) रहित अवस्था। यही समत्व को मानती है, जबकि साध्यवादी-परम्परा सुख अथवा आत्म-पूर्णता को। जब हमारे सामुदायिक या सामाजिक जीवन में फलित होता है तो
इसे हम अहिंसा के नाम से अभिहित करते हैं। वैचारिक दृष्टि से इसे जैन-दर्शन में सदाचार का मापदण्ड
हम अनाग्रह या अनेकान्त-दृष्टि कहते हैं। जब हम इसी समत्व के ___ जैन-दर्शन मानव के चरम-साध्य के बारे में स्पष्ट है। उसके अनुसार आर्थिक पक्ष पर विचार करते हैं तो इसे अपरिग्रह के नाम से पुकारते व्यक्ति का चरम-साध्य मोक्ष या निर्वाण की प्राप्ति है। वह यह मानता हैं- 'साम्यवाद' एवं 'न्यासी-सिद्धान्त' इसी अपरिग्रह-वृत्ति की
कि जो आचरण निर्वाण या मोक्ष की दिशा में ले जाता है, वही आधुनिक अभिव्यक्तियाँ हैं। यह समत्व ही मानसिक क्षेत्र में अनासक्ति "सदाचार की कोटि में आता है। दूसरे शब्दों में जो आचरण मुक्ति या वीतरागता के रूप में, सामाजिक क्षेत्र में अहिंसा के रूप में, वैचारिकता
का कारण है वह सदाचार है और जो आचरण बन्धन का कारण है, के क्षेत्र से अनाग्रह या अनेकान्त के रूप में और आर्थिक क्षेत्र में अपरिग्रह वह दुराचार है। किन्तु यहाँ पर हमें यह भी स्पष्ट करना होगा कि के रूप में अभिव्यक्त होता है। अत: समत्व को निर्विवाद रूप से सदाचार उसका मोक्ष अथवा निर्वाण से क्या तात्पर्य है? जैनधर्म के अनुसार का मानदण्ड स्वीकार किया जा सकता है। किन्तु 'समत्व' को सदाचार निर्वाण या मोक्ष स्वभाव-दशा एवं आत्मपूर्णता की प्राप्ति है। वस्तुतः का मानदण्ड स्वीकार करते हुए भी हमें उसके विविध पहलुओं पर हमारा जो निज-स्वरूप है उसे प्राप्त कर लेना अथवा हमारी बीजरूप विचार तो करना ही होगा क्योंकि सदाचार का सम्बन्ध अपने साध्य क्षमताओं को विकसित कर आत्मपूर्णता की प्राप्ति ही मोक्ष है। उसकी के साथ-साथ उन साधनों से भी होता है जिसके द्वारा हम उसे पाना
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