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का अर्थ होगा- उन मूल्यों की संस्थापना, जो विवेकशीलता की आँखों में मानवीय गुणों के विकास और मानवीय कल्याण के लिए सहायक हों, जिनके द्वारा मनुष्य की मनुष्यता जीवित रह सके। आज मनुष्य चाहे भौतिक दृष्टि से प्रगति की राह पर अग्रसर हो, किन्तु नैतिक दृष्टि से भी वह प्रगति कर रहा है यह कहना कठिन ही है। एक उर्दू शायर ने कहा है
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
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तालीम का शोर इतना, तहजीब का गुल इतना, फिर भी तरक्की न है, नीयत की खराबी है।
सन्दर्भ :
१.
बौद्धिक विकास से प्राप्त विशाल ज्ञानराशि, वैज्ञानिक तकनीक से प्राप्त भौतिक सुख-सुविधा एवं आर्थिक समृद्धि मनुष्य की आध्यात्मिक, मानसिक एवं सामाजिक विपन्नता को दूर नहीं कर पाई है ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा देने वाले सहस्राधिक विश्वविद्यालयों के होते हुए भी आज का शिक्षित मानव अपनी स्वार्थपरता और भोग-लोलुपता पर विवेक और संयम का अंकुश नहीं लगा पाया है।
Lectures in the youth League - उद्धृत नीतिशास्त्र का सर्वेक्षण, पृ० ३४४-३४५।
२.
Ethical Studies -- p. 223.
३.
देखिए - विषय और आत्म (यशदेव शल्य), पृ० ८८-८९ । ४. मनुस्मृति, १/८५ ।
५.
अष्टकप्रकरण (हरिभद्र) २७/५ की टीका में उद्धृत
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सदाचार और दुराचार का अर्थ
जब हम सदाचार के किसी शाश्वत मानदण्ड को जानना चाहते हैं, तो सबसे पहले हमें यह देखना होगा कि सदाचार का तात्पर्य क्या है और किसे हम सदाचार कहते हैं ? शाब्दिक व्युत्पत्ति की दृष्टि से सदाचार शब्द सत् और आचार, इन दो शब्दों से मिलकर बना है, अर्थात् जो आचरण सत् या उचित है वह सदाचार है। फिर भी यह प्रश्न बना रहता है कि सत् या उचित आचरण क्या है? यद्यपि हम आचरण के कुछ प्रारूपों को सदाचार और कुछ प्रारूपों को दुराचार कहते हैं किन्तु मूल प्रश्न यह है कि वह कौन-सा तत्त्व है जो किसी आचरण को सदाचार या दुराचार बना देता है। हम अक्सर यह कहते हैं कि झूठ बोलना, चोरी करना, हिंसा करना, व्यभिचार करना आदि दुराचार है और करुणा, दया, सहानुभूति, ईमानदारी, सत्यवादिता आदि सदाचार हैं, किन्तु वह आधार कौन सा है जो प्रथम प्रकार के आचरणों को दुराचार और दूसरे प्रकार के आचरणों को सदाचार बना देता है?
भौतिक सुख-सुविधाओं का यह अम्बार आज भी उसके मानस को सन्तुष्ट नहीं कर पा रहा है आज शीघ्रगामी आवागमन के साधनों से विश्व की दूरी कम हो गई है किन्तु हृदय की दूरी तो बढ़ रही है। सुरक्षा के साधनों की यह बहुलता आज भी मानव मन में अभय का विकास नहीं कर सकी है। आज भी मनुष्य उतना ही आशंकित, आतंकित, आक्रामक और स्वार्थी है जितना आदिम युग में रहा होगा। मात्र इतना ही नहीं, आज तो जीवन की सहजता और स्वाभाविकता-भी उससे छिन गई है। आज जीवन में छद्मों का बाहुल्य है। भीतर वासना की उद्दाम ज्वालायें और बाहर सच्चरित्रता और सदाशयता का ढोंग; यही आज के मानव की त्रासदी है। इसे प्रगति कहें या प्रतिगति ? आज हमें यह निश्चित करना है कि हमारे मूल्य परिवर्तन की दिशा क्या हो? हमें मनुष्य को दोहरे जीवन की त्रासदी से बचाना है, किन्तु यह ध्यान भी रखना होगा कि कहीं इस बहाने हम उसे पशुत्व की ओर तो नहीं ढकेल रहे हैं।
६.
७.
८.
९.
महाभारत शान्तिपर्व ३६ / ११ ।
आचाराङ्ग, १/४/२/१३० ।
Contemporary Ethical Theories, p. 163. देखिये — नीति- सापेक्ष और निरपेक्ष तत्त्वदार्शनिक, अप्रैल १९७६ ।
,
१०. महाभारत आदिपर्व १२२/४-५ ।
सदाचार के शाश्वत मानदण्ड और जैनधर्म
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डॉ० सागरमल जैन
चोरी या हिंसा क्यों दुराचार है और ईमानदारी या सत्यवादिता क्यों सदाचार है? यदि हम सत् या उचित के अंग्रेजी पर्याय (Right) पर विचार करते हैं तो यह शब्द लैटिन शब्द (Rectus) से बना है, जिसका अर्थ होता है नियमानुसार, अर्थात् जो आचरण नियमानुसार है, वह सदाचार है और जो नियमविरुद्ध है, वह दुराचार है। यहाँ नियम से तात्पर्य सामाजिक एवं धार्मिक नियमों या परम्पराओं से है। भारतीयपरम्परा में भी सदाचार शब्द की ऐसी ही व्याख्या मनुस्मृति में उपलब्ध होती है, मनु लिखते हैं
तस्मिन्देशे य आचार: पारम्पर्यक्रमागतः ।
वर्णानां सान्तरालानां स सदाचार उच्यते ।। २ / १८ ।
अर्थात् जिस देश, काल और समाज में जो आचरण परम्परा से चला आता है वही सदाचार कहा जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि जो परम्परागत आचार के नियम हैं, उनका पालन करना ही सदाचार है। दूसरे शब्दों में जिस देश, काल और समाज में आचरण की जो
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