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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ नैतिक मूल्य बन जाते हैं। साधुजन की रक्षा के लिए दुष्टजन की हिंसा जा सकता है? क्या नैतिक मूल्यों की परिवर्तनशीलता फैशनों की . की जा सकती है किन्तु इससे हिंसा मूल्य नहीं बन जाती है। किसी परिवर्तनशीलता के समान है, जिन्हें जब चाहें तब और जैसा चाहें वैसा प्रत्यय की नैतिक मूल्यवत्ता उसके किसी परिस्थिति विशेष में आचरित बदला जा सकता है। आयें, जरा इन प्रश्नों पर थोड़ी गम्भीर चर्चा करें। होने या नहीं होने से अप्रभावित भी रह सकती है। प्रथम तो यह कि सर्वप्रथम तो आज जिस परिवर्तनशीलता की बात कही जा रही अपवाद की मूल्यवत्ता केवल उस परिस्थिति विशेष में ही होती है, है, उससे तो स्वयं सदाचार के मूल्य होने में ही अनास्था उत्पन्न हो उसके आधार पर सदाचार का कोई सामान्य नियम नहीं बनाया जा गई है। आज का मनुष्य अपनी पाशविक वासनाओं की पूर्ति के लिए सकता। साथ ही जब व्यक्ति आपद्धर्म का आचरण करता है तब भी विवेक एवं संयम की नियामक मर्यादाओं की अवहेलना को ही उसकी दृष्टि में मूल नैतिक नियम या सदाचार की मूल्यवत्ता अक्षुण्ण मूल्य-परिवर्तन मान रहा है। वर्षों के चिन्तन और साधना से फलित बनी रहती है। यह तो परिस्थितिगत या व्यक्तिगत विवशता है, जिसके ये मर्यादाएँ आज उसे कोरी लग रही हैं और इन्हें तोड़ फेंकी में कारण उसे वह आचरण करना पड़ रहा है। दूसरे सार्वभौम नियम ही उसे मूल्य-क्रान्ति परिलक्षित हो रही है। स्वतन्त्रता के नाम पर वह में और अपवाद में अन्तर है। अपवाद की यदि कोई मूल्यवत्ता है, अतंत्रता और अराजकता को ही मूल्य मान बैठा है, किन्तु यह सब तो वह केवल विशिष्ट परिस्थिति में ही रहती है, जबकि सामान्य नियम मूल्य-विभ्रम या मूल्य-विपर्यय ही है जिसके कारण नैतिक मूल्यों के की मूल्यवत्ता है, तो वह केवल विशिष्ट परिस्थिति में ही रहती है, निर्मूल्यीकरण को ही परिवर्तन कहा जा रहा है। किन्तु हमें यह समझ जबकि सामान्य नियम की मूल्यवत्ता सार्वदेशिक, सार्वकालिक और लेना होगा कि मूल्य-संक्रमण या मूल्यान्तरण मूल्य-निषेध नहीं है। सार्वजनीन होती है। अत: आपद्धर्म या अपवाद मार्ग की स्वीकृति परिवर्तनशीलता का तात्पर्य स्वयं नीति के मूल्य होने में अनास्था नहीं जैनधर्म में मूल्य परिवर्तन की सूचक नहीं है। यह सामान्यतया किसी है। यह सत्य है कि नैतिक मूल्यों में और नीति सम्बन्धी धारणाओं मूल्य को न तो निर्मूल्य करती है और न मूल्य संस्थान में उसे अपने में परिवर्तन हुए हैं और होते रहेंगे, किन्तु मानव-इतिहास में कोई स्थान से पदच्युत ही करती है, अत: वह मूल्यान्तरण भी नहीं है। भी काल ऐसा नहीं है, जब स्वयं नीति की मूल्यवत्ता को ही अस्वीकार
नैतिक कर्म के दो पक्ष होते हैं- एक बाह्यपक्ष, जो आचरण किया गया हो। वस्तुत: नैतिक मूल्यों या सदाचार के मानदण्डों की के रूप में होता है और दूसरा आन्तरिक पक्ष, जो कर्ता के मनोभावों परिवर्तनशीलता में भी कुछ ऐसा अवश्य है, जो बना रहता है और के रूप में होता हैं। अपवादमार्ग का सम्बन्ध केवल बाह्य पक्ष से होता वह है, स्वयं उनकी मूल्यवत्ता। नैतिक मूल्यों की विषयवस्तु बदलती है, अत: उससे किसी नैतिक मूल्य की मूल्यवत्ता प्रभावित नहीं होती रहती है, किन्तु उनका मूल आधार बना रहता है। मात्र इतना ही नहीं, है। कर्म का मात्र बाह्य-पक्ष उसे कोई नैतिक मूल्य प्रदान नहीं करता है। कुछ मूल्य ऐसे भी हैं, जो अपनी मूल्यवत्ता को नहीं खोते हैं, मात्र
उनकी व्याख्या के सन्दर्भ एवं अर्थ बदलते हैं। सदाचार के मानदण्डों की परिवर्तनशीलता का अर्थ
आज स्वयं सदाचार या नैतिकता की मूल्यवत्ता के निषेध की सदाचार के मानदण्डों की परिवर्तनशीलता पर विचार करते समय बात दो दिशाओं से खड़ी हुई है- एक ओर भौतिकवादी और साम्यवादी सबसे पहले हमें यह निश्चित कर लेना होगा कि परिवर्तनशीलता से दर्शनों के द्वारा और दूसरी ओर पाश्चात्य अर्थ-विश्लेषणवादियों के हमारा क्या तात्पर्य है? कुछ लोग परिवर्तनशीलता का अर्थ स्वयं सदाचार द्वारा। यह कहा जाता है कि वर्तमान में साम्यवादी-दर्शन नीति की की मूल्यवत्ता की अस्वीकृति से लेते हैं। आज जब पाश्चात्य विचारकों मूल्यवत्ता को अस्वीकार करता है, किन्तु इस सम्बन्ध में स्वयं लेनिन के द्वारा नैतिक मूल्यों को सांवेगिक अभिव्यक्ति या वैयक्तिक एवं का वक्तव्य द्रष्टव्य है। वे कहते हैं- “प्रायः यह कहा जाता है कि सामाजिक अनुमोदन एवं रुचि का पर्याय माना जा रहा हो, तब हमारा अपना कोई नीति-शास्त्र नहीं है, बहुधा मध्य वित्तीय वर्ग कहता परिवर्तनशीलता का अर्थ स्वयं उनकी मूल्यवत्ता को नकारना ही होगा। है कि हम सब प्रकार के नीति-शास्त्र का खण्डन करते हैं, किन्तु उनका आज सदाचार की मूल्यवत्ता स्वयं अपने ही अर्थ की तलाश कर रही यह तरीका विचारों को भ्रष्ट करना है, श्रमिकों और कृषकों की आँख है। यदि सदाचार की धारणा अर्थहीन है, मात्र सामाजिक अनुमोदन में धूल झोंकना है। हम उसका खण्डन करते हैं जो ईश्वरीय आदेशों है, तो फिर उसकी परिवर्तनशीलता का भी कोई विशेष अर्थ नहीं से नीति-शास्त्र को आविर्भूत करता है। हम कहते हैं कि यह धोखाधड़ी रह जाता है क्योंकि यदि सदाचार के मूल्यों का यथार्थ एवं वस्तुगत है और श्रमिकों तथा कृषकों के मस्तिष्कों को पूंजीपतियों तथा भू-पतियों अस्तित्व ही नहीं है, यदि वे मात्र मनोकल्पनाएँ हैं तो उनके परिवर्तन के स्वार्थ के लिए सन्देह में डालता है। हम कहते हैं कि हमारा नीति-शास्त्र का ठोस आधार भी नहीं होगा? दूसरे, जब हम सदाचार-दुराचार, सर्वहारा वर्ग के वर्ग-संघर्ष के हितों के अधीन है, जो शोषक-समाज शुभ-अशुभ अथवा औचित्य-अनौचित्य के प्रत्ययों को वैयक्तिक एवं को नष्ट करे, जो श्रमिकों को संगठित करे और साम्यवादी-समाज की सामाजिक अनुमोदन या पसन्दगी किंवा नापसन्दगी के रूप में देखते स्थापना करे, वही नीति है, शेष सब अनीति है।" इस प्रकार साम्यवादी हैं तो उनकी परिवर्तनशीलता का अर्थ फैशन की परिवर्तनशीलता से दर्शन नैतिक मूल्यों का मूल्यान्तरण तो करता है, किन्तु स्वयं नीति की अधिक नहीं रह जावेगा।
मूल्यवत्ता का निषेध नहीं करता है। वह उस नीति का समर्थक है जो किन्तु क्या सदाचार की मूल्यवत्ता पर ही कोई प्रश्न चिह्न लगाया अन्याय एवं शोषण की विरोधी है और सामाजिक समता की संस्थापक
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