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जैन कर्मसिद्धान्त : एक विश्लेषण
२१३ अर्थ का सम्बन्ध दर्शनावरणीय कर्म से है, जबकि दूसरे और तीसरे आयुष्य-कर्म के बन्ध के चार-चार कारण माने गये हैं। अर्थ का सम्बन्ध मोहनीय कर्म से है। दर्शन-मोह के कारण प्राणी में (अ) नारकीय जीवन की प्राप्ति के चार कारण- (१) महारम्भ सम्यक दृष्टिकोण का अभाव होता है और वह मिथ्या धारणाओं एवं (भयानक हिंसक कर्म), (२) महापरिग्रह (अत्यधिक संचय वृत्ति),(३) विचारों का शिकार रहता है, उसकी विवेकबुद्धि असंतुलित होती है। मनुष्य, पशु आदि का वध करना, (४) मांसाहार और शराब आदि दर्शनमोह तीन प्रकार का है--(१) मिथ्यात्व मोह- जिसके कारण नशीले पदार्थों का सेवन। प्राणी असत्य को सत्य तथा सत्य को असत्य समझता है। शुभ को (ब) पाशविक जीवन की प्राप्ति के चार कारण- (१) कपट करना अशुभ और अशुभ को शुभ मानना मिथ्यात्व मोह है। (२) सम्यक- (२) रहस्यपूर्ण कपट करना (३) असत्य भाषण (४) कम ज्यादा तोलमिथ्यात्व मोह- सत्य एवं असत्य तथा शुभ एवं अशुभ के माप करना। कर्म-ग्रन्थ में प्रतिष्ठा कम होने के भय से पाप का प्रकट न सम्बन्ध में अनिश्चयात्मक और (३) सम्यक्तव मोह-क्षायिक सम्यक्तव करना भी तिर्यंच आयु के बन्ध का कारण माना गया है। तत्त्वार्थसूत्र में की उपलब्धि में बाधक सम्यक्तव मोह है अर्थात् दृष्टिकोण की माया (कपट) को ही पशुयोनि का कारण बताया है। आंशिक विशुद्धता।
(स) मानव जीवन की प्राप्ति के चार कारण- (१) सरलता, (२) (ब) चारित्र-मोह-चारित्र-मोह के कारण प्राणी का आचरण अशुभ विनयशीलता, (३) करुणा और (४) अहंकार एवं मात्सर्य से रहित होता है। चारित्र-मोहजनित अशुभाचरण २५ प्रकार का है- (१) होना। तत्त्वार्थसूत्र में- (१) अल्प आरम्भ, (२) अल्प परिग्रह, (३) प्रबलतम क्रोध, (२) प्रबलतम मान, (३) प्रबलतम माया (कपट), स्वभाव की सरलता और (४) स्वभाव की मृदुता को मनुष्य आयु के (४) प्रबलतम लोभ, (५) अति क्रोध, (६) अति मान, (७) अति बन्ध का कारण कहा गया है। माया (कपट), (८) अति लोभ, (९) साधारण क्रोध, (१०) साधारण (द) दैवीय जीवन की प्राप्ति के चार कारण- (१) सराग (सकाम) मान, (११) साधारण माया (कपट) (१२) साधारण लोभ, (१३) संयम का पालन, (२) संयम का आंशिक पालन, (३) सकाम-तपस्या अल्प क्रोध, (१४) अल्प मान, (१५) अल्प माया (कपट) और (बाल-तप) (४) स्वाभाविक रूप में कर्मों के निर्जरित होने से। तत्त्वार्थसूत्र (१६) अल्प लोभ- ये सोलह कषाय हैं। उपर्युक्त कषायों को उत्तेजित में भी यही कारण माने गये हैं। कर्मग्रन्थ के अनुसार अविरत सम्यग्दृष्टि करने वाली नौ मनोवृत्तियाँ (उपकषाय) हैं- (१) हास्य, (२) रति मनुष्य या तिर्यंच, देशविरत श्रावक, सरागी-साधु, बाल-तपस्वी और (स्नेह, राग), (३) अरति (द्वेष) (४) शोक, (५) भय, (६) जुगप्सा इच्छा नहीं होते हुए भी परिस्थिति वश भूख-प्यास आदि को सहन (घृणा), (७) स्त्रीवेद (पुरुष-सहवास की इच्छा), (८) पुरुषवेद (स्त्री- करते हुए अकाम-निर्जरा करने वाले व्यक्ति देवायु का बन्ध करते हैं। सहवास की इच्छा), (९) नपुंसकवेद (स्त्री-पुरुष दोनों के सहवास की आकस्मिकमरण-प्राणी अपने जीवनकाल में प्रत्येक क्षण आयु कर्म इच्छा )।
को भोग रहा है और प्रत्येक क्षण में आयु कर्म के परमाणु भोग के मोहनीय कर्म विवेकाभाव है और उसी विवेकाभाव के कारण पश्चात् पृथक् होते रहते हैं। जिस समय वर्तमान आयुकर्म के पूर्वबद्ध अशुभ की ओर प्रवृत्ति की रुचि हाती है। अन्य परम्पराओं में जो स्थान समस्त परमाणु आत्मा से पृथक् हो जाते हैं उस समय प्राणी को अविद्या का है, वही स्थान जैन परम्परा में मोहनीय कर्म का है। जिस वर्तमान शरीर छोड़ना पड़ता है। वर्तमान शरीर छोड़ने के पूर्व ही नवीन प्रकार अन्य परम्पराओं में बन्धन का मूल कारण अविद्या है, उसी प्रकार शरीर के आयुकर्म का बन्ध हो जाता है। लेकिन यदि आयुष्य का भोग जैन परम्परा में बन्धन का मूल कारण मोहनीय कर्म। मोहनीय कर्म का इस प्रकार नियत है तो आकस्मिकमरण की व्याख्या क्या? इसके क्षयोपशम ही आध्यात्मिक विकास का आधार है।
प्रत्युत्तर में जैन-विचारकों ने आयुकर्म का भेद दो प्रकार का माना
(१) क्रमिक, (२) आकस्मिक। क्रमिक भोग में स्वाभाविक रूप से ५. आयुष्य कर्म
आयु का भोग धीरे-धीरे होता रहता है, जबकि आकस्मिक भोग में जिस प्रकार बेड़ी स्वाधीनता में बाधक है, उसी प्रकार जो किसी कारण के उपस्थित हो जाने पर आयु एक साथ ही भोग ली कर्म परमाणु आत्मा को विभिन्न शरीरों में नियत अवधि तक कैद रखते जाती है। इसे ही आकस्मिकमरण या अकाल मृत्यु कहते हैं। स्थानांगसूत्र मी, उन्हें आयुष्य कर्म कहते हैं। यह कर्म निश्चय करता है कि आत्मा को में इसके सात कारण बताये गये हैं- (१) हर्ष-शोक का अतिरेक, किस शरीर में कितनी समयावधि तक रहना है। आयुष्य कर्म चार प्रकार (२) विष अथवा शस्त्र का प्रयोग, (३) आहार की अत्यधिकता अथवा है- (१) नरक आयु, (२) तिर्यंच आयु (वानस्पतिक एवं पशु सर्वथा अभाव (४) व्याधिजनित तीव्र वेदना, (५) आघात (६) सर्पदंशादि जीवन) (३) मनुष्य आयु और (४) देव आयु।
और (७) श्वासनिरोध। आयुष्य-कर्म के बन्ध के कारण- सभी प्रकार के आयुष्य-कर्म के बन्ध का कारण शील और व्रत से रहित होना माना गया है। फिर भी ६.नाम कर्म किस प्रकार के आचरण से किस प्रकार का जीवन मिलता है, उसका जिस प्रकार चित्रकार विभिन्न रंगों से अनेक प्रकार के चित्र निर्देश भी जैन आगमों में उपलब्ध है। स्थानांगसूत्र में प्रत्येक प्रकार के बनाता है, उसी प्रकार नाम-कर्म विभिन्न कर्म परमाणुओं से जगत् के
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