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२२९ वह कायिककर्म या कायिकसाधना को मानसिककर्म की अनिवार्य पाँच तत्त्वों का उल्लेख किया है वे हैं- जीव, अजीव, धर्म, आकाश फलश्रुति मानता है वह कहता है कि जो विचार में होता है वही आचार और पुद्गल। इसमें अजीव को निरर्थक रूप में जोड़ा है और 'अधर्म' में होता है। विचार (मानसकर्म) और आचार (कायिककर्म) का द्वैत उसे को छोड़ दिया है, धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल सभी अजीव ही मान्य नहीं है। विचार से कुछ और आचार में कुछ, इसे जैनधर्म आत्म माने गये हैं। प्रवञ्चना मानता है, मन से सत्य को समझते हुए अन्यथा रूप में
जैनधर्म के सम्बन्ध में राहुलजी की यह टिप्पणी कि उनकी आचरण करना पाप है। मन में अहिंसा और करुणा तथा व्यवहार में पृथ्वी, जल आदि के जीवों की अहिंसा के विचार ने जैनधर्म के क्रूरता या हिंसा यह छलना ही है।
अनुयायियों को कृषि के विमुख कर वणिक् बना दिया। वे उत्पादक राहुलजी की यह टिप्पणी भी सत्य है कि महावीर ने स्वयं श्रम से हटकर परोपजीवी हो गये। उनका यह मन्तव्य भी किसी अपने जीवन में और जैनसाधना में शारीरिक तपों को आवश्यक माना सीमा तक उचित तो है- किन्तु पूर्णतः सत्य नहीं है। आज भी है। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि महावीर मात्र देह-दण्डन या बुन्देलखण्ड, मेवाड़, महाराष्ट्र और कर्नाटक में जैनजातियाँ कृषि पर आत्म-पीड़न के समर्थक थे। उन्होंने उत्तराध्ययन में तप के बाह्य और आधारित हैं और उन्हें कृषिकर्म करते हुए देखा जा सकता है। आभ्यन्तर ऐसे दो पक्ष माने थे और दोनों पर ही समान बल दिया था। प्राचीन आगम भगवतीसूत्र से इस प्रश्न पर कि कृषिकर्म में कृमि स्वाध्याय, सेवा और ध्यान भी उनकी दृष्टि में तप के ही महत्त्वपूर्ण अंग आदि की हिंसा की जो घटना घटित हो जाती है, उसके लिये गृहस्थ हैं। अत: राहुलजी का महावीर को मात्र शारीरिक पक्ष पर बल देने वाला उत्तरदायी है या नहीं, गंभीर रूप से विचार हुआ है। उसमें यह माना
और आभ्यन्तर पक्ष की अवहेलना कर लेने वाला, मानना-समुचित गया है कि कोई भी गृहस्थ की जाने वाली हिंसा का उत्तरदायी होता नहीं है।
है, हो जाने वाली हिंसा का नहीं। कृषि करते हए जो प्राणीहिंसा हो अनेकान्तवादी जैनदर्शन के सम्बन्ध में उनकी यह टिप्पणी है जाती है, उसके लिये गृहस्थ उत्तरदायी नहीं है। इसी प्रकार जैनों का कि अनेकान्त और स्याद्वाद का विकास संजय वेलट्ठीपुत्त के विक्षेपवाद अहिंसा का सिद्धान्त व्यक्ति को कायर या भगोड़ा नहीं बनाता है। से हुआ, भी पूर्णत: सत्य नहीं है (दर्शन-दिग्दर्शन, पृ. ५९५)। वह गृहस्थ के लिये आक्रामक हिंसा का निषेध करता है, सुरक्षात्मक वस्तुत: संजय के विक्षेपवाद का,बौद्धों के विभज्यवाद एवं शून्यवाद का हिंसा (विरोधी-हिंसा) का नहीं। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनधर्म
और जैनों के अनेकान्तवाद और स्याद्वाद का विकास औपनिषदिक के सम्बन्ध में राहुलजी के मन्तव्य आंशिक सत्य होकर भी अपूर्ण चतुष्कोटियों और विभज्यवादी दृष्टिकोण से हुआ है।
या एकांगी है। क्योंकि उन्होंने इस सम्बन्ध में जैन-स्रोतों की खोजदर्शन-दिग्दर्शन (पृ.५९७) में एक स्थल पर उन्होंने जैनधर्म बीन का प्रयत्न नहीं किया है। के जिन पाँच तत्त्वों का उल्लेख किया वह भी भ्रान्त है- उन्होंने जिन
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