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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
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है। आगे इसी क्रम में उन्होंने स्वयं 'वारि' का अर्थ 'पाप' करके सर्व पापों से अस्पर्शित होता है। यहाँ भी राहलजी ने अर्थ की संगति सब्बवारियुत्तो का अर्थ वह सब पापों का वारण करता है, किया है। बैठाने का जो प्रयास किया है वह उचित तो है। किन्तु मूल पाठ एवं किन्तु यह अर्थ मूलपाठ के अनुरूप नहीं है, क्योंकि यहाँ वारि का अर्थ अट्ठकथा (टीका) के सम्बन्ध में उनकी और कोई टिप्पणी नहीं होना पाप करके भी युत्तो का अर्थ वारण करना किया गया है, वह पाठक के लिये एक समस्या बन जाती है। मेरी दृष्टि में दीघनिकाय के समुचित नहीं है, क्योंकि पालि कोशों के अनुसार युत्तो शब्द का अर्थ उस समग्र अंश का पाठ शुद्धि के पश्चात् वास्तविक अर्थ इस प्रकार किसी भी स्थिति में 'वारण' नहीं हो सकता है। कोश के अनुसार तो होना चाहिये- 'हे महाराज, निर्ग्रन्थ चातुर्याम संवर से संवृत होता है, इस युत्त का अर्थ लिप्त होता है, अत: इस वाक्यांश का अर्थ होगा- वह चातुर्याम संवर से किस प्रकार संवृत होता है? हे महाराज! निर्ग्रन्थ वह सर्व पापों से युक्त या लिप्त होता है- जो निश्चय ही इस प्रसंग सब पापों का वारण करता है। वह सर्वपापों के प्रति संयत या उसका में गलत है। मेरी दृष्टि में यहाँ मूलपाठ में भ्रान्ति है- सम्भवतः नियन्त्रण करने वाला होता है। वह सभी पापों से रहित (धूत) और सभी मूलपाठ ‘युत्तो' न होकर 'यतो' होना चाहिए। क्योंकि मूलपाठ में आगे पापों से अस्पर्शित होता है। निम्रन्थ के लिये 'यतो' विशेषण का प्रयोग हुआ है, जो 'यतो' पाठ की
इसी प्रसंग में आदरणीय राहुलजी ने महावीर को सर्वज्ञतावादी पुष्टि करता है। यदि हम मूलपाठ 'युत्तो' ही मानते हैं तो उसे 'अयुत्तो कहा है (दर्शन-दिग्दर्शन, पृ. ४९४) यह सत्य है कि महावीर को मानकर वारिअयत्तो की संधि प्रक्रिया में 'अङ्ग का लोप मानना होगा। प्राचीनकाल से ही 'सर्वज्ञ' कहा जाता था। आचारांग द्वितीय श्रुतस्कन्ध प्राकृत व्याकरण और सम्भवतः पालि व्याकरण में भी स्वर-सन्धि के के पन्द्रहवें अध्याय में उन्हें सर्वप्रथम सर्वज्ञ (सव्वन्नू) कहा गया हैनियमों में दो स्वरों की सन्धि में विकल्प से एक स्वर का लोप माना किन्तु प्राचीनकाल में जैन परम्परा में सर्वज्ञ का अर्थ आत्मज्ञ ही होता जाता है। अत: मूल पाठ 'अयुत्तो' होना चाहिये, किन्तु सुमंगलविलासिनी था। आचारांग के-जे एर्ग जाणई ते सव्वं जाणई एवं भगवती के में ऐसा कोई निर्देश नहीं है। (पठमो भागो, पृ.१८९), अपितु उसमें केवलि सिय जाणइ सिय ण जाणइ'- पाठ से तथा कुन्दकुन्द के संधि तोड़कर 'युत्तो' पाठ ही है। किन्तु यतो पाठ मानने पर इस अंश इस कथन से 'केवलि निश्चय नय से केवल आत्मा को जानता है'का अर्थ होगा, वह सब पापों के प्रति संयमवान् या उनका नियंत्रण इसी तथ्य की पुष्टि होती है। सर्वज्ञ का यह अर्थ है कि वह सर्वद्रव्यों करने वाला होता है। अत: राहुलजी का यह अनुवाद भी मेरी दृष्टि में एवं पर्यायों का त्रिकाल ज्ञाता होता है, परवर्तीकाल में निर्धारित हुआ। मूलपाठ से संगतिपूर्ण नहीं है, फिर भी उन्होंने वह सर्वपापों का वारण आगे चलकर सर्वज्ञ का यही अर्थ रूढ़ हो गया और सर्वज्ञ के इसी करता है, ऐसा जो अर्थ किया है, वह सत्य के निकट है। मूलपाठ व्युत्पत्तिपरक अर्थ को मानकर बौद्ध त्रिपिटक में उनकी सर्वज्ञता की भ्रान्त और टीका के अस्पष्ट होते हुए भी, उन्होंने यह अर्थ किस आधार निन्दा भी की गई। 'सर्वज्ञ' या 'केवलि' शब्द के प्राचीन पारिभाषिक पर किया मैं नहीं जानता, सम्भवत: यह उनकी स्वप्रतिभा से ही प्रसूत एवं लाक्षणिक अर्थ के स्थान पर इस व्युत्पत्तिमूलक अर्थ पर बल देने हुआ होगा। फिर भी पालि के विद्वानों को इस समस्या पर विचार से ही यह भ्रान्ति उत्पन्न हुई है। किन्तु यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना बुद्ध और करना चाहिए। इसके आगे सब्बवारिधुतो का अर्थ-वह सभी पापों से महावीर दोनों के साथ घटित हुई, जो बुद्ध सर्वज्ञतावाद के आलोचक रहित होता है- संगतिपूर्ण है। किन्तु आगे सब्बवारिफुटो का अर्थ रहे, उन्हें भी परवर्ती बौद्ध साहित्य में उसी अर्थ में सर्वज्ञ मान लिया पुनः मूल से संगति नहीं रखता है। राहुलजी ने इसका अर्थ वह सभी गया है, जिस अर्थ में परवर्ती जैन परम्परा में तीर्थंकरों को और न्याय पापों के वारण में लगा रहता है-किस प्रकार किया, मैं नहीं समझ परम्परा में ईश्वर को सर्वज्ञ कहा गया है। वास्तविक रूप में प्राचीनकाल पा रहा हूँ। क्योंकि किसी भी स्थिति में 'फुटों' का अर्थ-वारण करने में में महावीर को उस अर्थ में सर्वज्ञ नहीं कहा जाता था, जिस अर्थ में लगा रहता है, नहीं होता है। पालि के विद्वान् इस पर भी विचार करें। पालित्रिपिटक व परवर्ती जैन साहित्य में उन्हें सर्वज्ञ कहा गया है। मूल के फुटो अथवा सुमंगलविलासिनी टीका के फुटो का संस्कृत रूप दुर्भाग्य से राहुल जी ने भी सर्वज्ञ का यही परवर्ती अर्थ ले लिया है। स्पृष्ट या स्पष्ट होगा। इस आधार पर इसका अर्थ होगा वह सब पापों जबकि सर्वज्ञ का प्राचीन अर्थ तो जैन परम्परा में आत्मज्ञ और बौद्ध से स्पृष्ट अर्थात् स्पर्शित या व्याप्त होता है, किन्तु यह अर्थ भी परम्परा में हेय, ज्ञेय और उपादेय का ज्ञाता ही रहा है। संगतिपूर्ण नहीं लगता है-निम्रन्थ ज्ञातृपुत्र स्वयं अपने निर्ग्रन्थों को राहुल जी का यह कथन भी किसी सीमा तक सत्य है कि सब पापों से स्पर्शित तो नहीं कह सकते हैं। यहाँ भी राहुल जी ने अर्थ जैनधर्म में प्रारम्भ से ही शारीरिक कार्मों की प्रधानता पर एवं शारीरिक को संगतिपूर्ण बनाने का प्रयास तो किया, किन्तु वह मूलपाठ के साथ तपस्या पर बल दिया गया है (दर्शन-दिग्दर्शन, पृ.४९५-४९६)। संगति नहीं रखता है। पालि अंग्रेजी कोश में राइसडेविड्स ने भी इन किन्तु उनकी इस धारणा का आधार भी बौद्धत्रिपिटक साहित्य में दोनों शब्दों के अर्थ निश्चय में कठिनाई का अनुभव किया है। मेरी दृष्टि महावीर के जीवन और दर्शन का जिस रूप में प्रस्तुतिकरण हुआ है में यहाँ भी या तो मूलपाठ में कोई प्रान्ति है या पालि व्याकरण के स्वर वही है- यहाँ भी उन्होंने जैन आगमों को देखने का प्रयास नहीं किया संधि के नियम से 'अफुटो' के 'अ का लोप हो गया है। मेरी दृष्टि में है। वास्तविकता तो यह है कि जैनदर्शन भी बौद्धों के समान ही मूलपाठ होना चाहिए- सब्बवारिअफुटो, तभी इसका अर्थ होगा वह मानसकर्म को ही प्रधान मानता है, फिर भी इतना अवश्य सत्य है। कि
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