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किया। जबकि उनके सहकर्मी बौद्धभिक्षु जगदीश काश्यपजी ने इस सासनानुलोम पि अत्थि, असुद्धलद्धितायन सब्बा दिट्ठयेव जाता।भूल के परिमार्जन का प्रयत्न दीघनिकाय की भूमिका में विस्तार से सुमंगल विलासिनी अट्टकथा (पृ. १८९) ऐसा कहने पर भन्ते। किया है, वे लिखते हैं- 'सामअयफलसुत्त' में वर्णित छ: तैर्थिकों निगण्ठनाथपुत्त ने यह उत्तर दिया- महाराज! निगण्ठ चार संवरों से के मतों के अनुसार, वे अपने-अपने साम्प्रदायिक संगठनों के केन्द्र संवृत्त रहता है। महाराज! निगण्ठ चार संवरों से कैसे संवृत रहता है? अवश्य रहे होंगे। इनके अवशेष खोजने के लिए देश के वर्तमान महाराज! १. निगण्ठ जल के व्यवहार का वारण करता है (जिसमें जल धार्मिक-जीवन में खोज करना सार्थक होगा। कम से कम 'निगण्ठ- के जीवन मारे जावें), २. सभी पापों का वारण करता है, ३. सभी नातपुत्त' से हमलोग निश्चित रूप से परिचित हैं। वे जैनधर्म के पापों के वारण करने से धूतपाप होता है, ४. सभी पापों के वारण करने अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर ही हैं। पालि-संस्करण में वे ही में लगा रहता है। महाराज निगण्ठ इस प्रकार चार संवरों से संवृत रहता 'चातुर्याम संवर' सिद्धान्त के प्रवर्तक कहे जाते हैं। सम्भवत: ऐसा है। महाराज निगण्ठ इन चार प्रकार के संवरों से संवृत रहता है, भूल से हो गया है। वास्तव में 'चातुर्याम-धर्म' के प्रवर्तक उनके इसीलिए वह निर्ग्रन्थ, गतात्मा, यतात्मा और स्थितात्मा कहलाता है।' पूर्ववर्ती तीर्थंकर पार्श्वनाथ थे- सव्वातो पाणातिवायाओ वेरमणं वस्तुत: यहाँ राहुल जी जिन्हें चातुर्याम संवर कह रहे हैं, वे एवं मुसावायाओ वेरमणं, सव्वातो अदिनादाणाओ वेरमणं, सव्वातो चातुर्याम संवर न होकर निर्ग्रन्थ साधक चातुर्याम संवर का पालन किस बहिद्धादाणाओ वेरमणं (ठाणांग (ठाण ४), पृ. २०१, सूत्र २६६. प्रकार करता है उसके सम्बन्ध में उल्लेख है। मेरी दृष्टि में यहाँ “कथं"
उपर्युक्त वर्णित 'चातुर्याम संवर' सिद्धान्त में परिग्गहवेरमणं का अर्थ कौन से न होकर किस प्रकार है चातुर्याम के रूप में जैनागमों नामक एक और व्रत जोड़कर पार्श्वनाथ के परवर्ती तीर्थंकर महावीर ने में जिनका विवरण प्रस्तुत किया गया है वे निम्न हैं'पंचमहाव्रत-धर्म' का प्रवर्तन किया। ज्ञातव्य है कि यहाँ काश्यपजी से १. प्राणातिपात विरमण भी भूल हो गयी है वस्तुत: महावीर ने परिग्रह विरमण नहीं, मैथुनविरमण २. मृषावाद विरमण या ब्रह्मचर्य का महाव्रत जोड़ा था। 'बहिद्धादाण' का अर्थ तो परिग्रह है ३. अदत्तादान विरमण ही। पार्श्व स्त्री को भी परिग्रह ही मानते थे।
४. बहिर्दादान विरमण (परिग्रह त्याग) यह भी विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है कि जिस रूप में
जैन आगम स्थानांग, समवायांग आदि में चातुर्याम संवर का पालि में 'चातुर्यामसंवर' सिद्धान्त का उल्लेख मिलता है, वैसा जैन उल्लेख इसी रूप में मिलता है। साहित्य में कहीं भी उपलब्ध नहीं होता। पालि में यह इस प्रकार वर्णित दीघनिकाय के इस अंश का जो अर्थ राहुलजी ने किया है है- 'सब्बवारिवारित्त च होति, सब्बवारियुत्तो च, सब्बवारिधुतो च, वह भी त्रुटिपूर्ण है। प्रथमत: यहाँ वारि शब्द का अर्थ जल न होकर सब्बवारिफुटो' और इसका अर्थ भी स्पष्ट ज्ञात नहीं होता। इसे देखकर वारण करने योग्य अर्थात् पाप है। सूत्रकृतांग में वीरस्तुति में महावीर यह ज्ञात होता है कि सम्भवत: यह तोड़-मरोड़ के ही कारण है।' को 'वारिय सव्ववारं' (सूत्रकृतांग, १/६/२८) कहा गया है। यहाँ 'वार' (दीघनिकाय-नालंदा संस्करण, प्रथम भाग की भूमिका, पृ.१३-१४) शब्द 'पाप' के अर्थ में ही है, जल के अर्थ में नहीं है। पुन: जैन मुनि अत: राहुलजी ने चार संवरों का उल्लेख जिस रूप में किया है, वह मात्र सचित्तजल (जीवनयुक्त जल) के उपयोग का त्याग करता है,
और दीघनिकाय के इस अंश का जो हिन्दी अनुवाद राहुलजी ने किया सर्वजल का नहीं। अत: सुमंगलविलासिनी अट्ठकथाकार एवं राहुलजी है वह भी, निर्दोष नहीं है। दीघनिकाय का वह मूलपाठ, उसकी द्वारा यहाँ वारि या जल अर्थ करना अयुक्तिसंगत है। क्योंकि एक अट्ठकथा और अनुवाद इस प्रकार है- “एवं वुत्ते, भन्ते, निगण्ठो. वाक्यांश में 'वारि' का अर्थ जल करना और दूसरे में उसी 'वारि' शब्द नाटपुत्तो मं एतदवोच- इध महाराज, निगण्ठो चातुयामसंवरसंवुतो होति? का अर्थ 'पाप' करना समीचीन नहीं है। चूँकि निर्ग्रन्थ सचित्त (जीवनमहाराज निगण्ठो कथं च महाराज निगण्ठो चातुयाम संवरोसंवुतो होति? युक्त) जल के त्यागी होते थे, स्नान नहीं करते थे वस्त्र नहीं धोते थे। इध सब्बवारिवारितो च होति, सब्बवारियुततो च, सब्बवारिधुतो च, अत: इन्हीं बातों को आधार मानकर यहाँ 'सव्ववारिवारितो' का अर्थ सब्बवारिफटो च एवं खो, महाराज, निगण्ठो चातुयामसंवरसंवतो जल का त्याग करते हैं, यह मान लिया गया, किन्तु स्वयं सुमंगल झोति- अयं वुच्चाति, महाराज निगण्ठो गतत्तो च यतत्तो च ठितत्तो विलासिनी टीका या अट्ठकथा में भी स्पष्ट उल्लेख है कि निर्ग्रन्थ मात्र चा ति (दीघनिकाय २/५/२८) नाटपुत्तपादे चातुयामसंवरसंवुतो हि सचित्त जल का त्यागी होता है, सर्वजल का नहीं, अत: वारि का अर्थ चतुकोट्ठासेन संवरेन संवुतो। सब्बवारितो चाति वारितसब्बउदको जल करना उचित नहीं है। दीघनिकाय की अट्ठकथा में 'वारि' का जो पटिक्खित्तसब्बसीतोदको ति अत्थो। सो किर सीतोदके सत्तसंज्ञ भ्रान्त अर्थ जल किया गया था, राहुलजी का यह अनुवाद भी उसी पर होति, तस्मा न तं वलजेति। सब्बवारियुत्तो ति सब्बेन पापवारणेन आधारित है। अत: इस भ्रान्त अर्थ करने के लिये राहुलजी उतने दोषी युत्तो। सब्बवारिधुतो ति सब्बेन पापवारणेन धुतपापो। सब्बवारिफुटो ति नहीं हैं, जितने सुमंगलविलासिनी के कर्ता। सम्भवतः निर्ग्रन्थों ने सब्बेन पापवारणेन फुट्ठो। गतत्तो ति कोटिप्पत्तचित्तो। यतत्तो ति संयतचित्तो। जलीय जीवों की हिंसा से बचने के लिये जल के उपयोग पर जो ठितत्तो (दी.नि. १.५०) ति सुप्पतिट्ठितचित्तो। एतस्स वादे किंचि प्रतिबन्ध लगाये गये थे, उसी से अर्थ और टीका में यह भ्रान्ति हुई
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