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लिए होता है,
इसलिए जल का निया
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ पाश्चात्य मनोविज्ञान में मूलप्रवृत्ति और उसके संलग्न संवेग में किया यह शक्य नहीं है कि आँखों के सामने आने वाला अच्छा या बुरा जाता है। क्रोध की संज्ञा क्रोध कषाय से ठीक उसी प्रकार भिन्न है रूप न देखा जाए, अत: रूप का नहीं, अपितु रूप के प्रति जाग्रत जिस प्रकार आक्रामकता की मूल प्रवृत्ति से क्रोध का संवेग भिन्न है। होने वाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिए। यह शक्य नहीं कि नासिका फिर भी तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर जैन-दर्शन की संज्ञा एवं के समक्ष आया हुआ सुगन्ध सूंघने में न आए, अत: गन्ध का नहीं, मनोविज्ञान की मूल प्रवृत्तियों के वर्गीकरण में बहुत कुछ समरूपता । किन्तु गन्ध के प्रति जगने वाली राग-द्वेष की वृत्ति का त्याग करना पायी जाती है।
चाहिए। यह शक्य नहीं है कि जीभ पर आया हुआ अच्छा या बुरा
रस चखने में न आए, अत: रस का नहीं, किन्तु रस के प्रति जगने , जैन-दर्शन का सुखवादी दृष्टिकोण
वाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिए। यह शक्य नहीं है कि शरीर आधुनिक मनोविज्ञान हमें यह भी बताता है कि सुख सदैव के सम्पर्क से होने वाले अच्छे या बुरे स्पर्श की अनुभूति न हो, अत: अनुकूल इसलिए होता है, कि उसका जीवनशक्ति को बनाए रखने स्पर्श का नहीं, किन्तु स्पर्श के प्रति जगने वाले राग-द्वेष का त्याग की दृष्टि से दैहिक मूल्य है और दुःख इसलिए प्रतिकूल होता है कि करना चाहिए। १३ जैन-दार्शनिक कहते हैं कि इन्द्रियों के मनोज्ञ अथवा वह जीवन-शक्ति का ह्रास करता है। यही सुख-दु:ख का नियम अमनोज्ञ विषय आसक्त व्यक्ति के लिए ही राग-द्वेष का कारण बनते समस्त प्राणीय व्यवहार का चालक है। जैन-दार्शनिक भी प्राणीय व्यवहार हैं, वीतरागी (अनासक्त) के लिए वे राग-द्वेष का करण नहीं होते हैं। के चालक के रूप में इसी सुख-दुःख के नियम को स्वीकार करते ये विषय, रागी पुरुषों के लिए ही दुःख (बन्धन) के कारण होते हैं, हैं।१२ अनुकूल के प्रति आकर्षण और प्रतिकूल के प्रति विकर्षण, यह वीतरागियों के लिए बन्धन या दुःख का कारण नहीं हो सकते हैं। इन्द्रिय-स्वभाव है। अनुकूल विषयों की ओर प्रवृत्ति और प्रतिकूल काम-भोग न किसी को बन्धन में डालते हैं और न किसी को मुक्त विषयों से निवृत्ति यह एक नैसर्गिक तथ्य है, क्योंकि सुख अनुकूल ही कर सकते हैं, किन्तु जो विषयों में राग-द्वेष करता है, वही राग-द्वेष
और दुःख प्रतिकूल होता है, इसलिए प्राणी सुख को प्राप्त करना से विकृत होता है।१४ चाहता है और दुःख से बचना चाहता है। वस्तुत: वासना ही अपने जैन-दर्शन के अनुसार साधना का सच्चा मार्ग औपशमिक नहीं विधानात्मक रूप में सुख और निषेधात्मक रूप में दुःख का रूप ले वरन् क्षायिक है। औपशमिक-मार्ग का अर्थ वासनाओं का दमन है। लेती है जिससे वासना की पूर्ति हो वही सुख और जिससे वासना इच्छाओं के निरोध का मार्ग ही औपशमिक मार्ग है। आधुनिक की पूर्ति न हो अथवा वासना-पूर्ति में बाधा उत्पन्न हो वह दुःख। इस मनोवैज्ञानिक की भाषा में यह दमन का मार्ग है। जबकि क्षायिक-मार्ग प्रकार वासना से ही सुख-दुःख के भाव उत्पन्न होकर प्राणीय व्यवहार वासनाओं के निरसन का मार्ग है, वह वासनाओं से ऊपर उठाता है। का नियमन करने लगते हैं। किन्तु जैन-दर्शन में भौतिक सुखों से यह दमन नहीं अपितु चित्त-विशुद्धि है। दमन तो मानसिक गन्दगी भिन्न एक आध्यात्मिक सुख भी माना गया है, जो वासना-क्षय से उपलब्ध ___ को ढकना मात्र है और जैन-दर्शन इस प्रकार के दमन को स्वीकार होता है।
नहीं करता। जैन-दार्शनिकों ने गुणस्थान प्रकरण में स्पष्ट रूप से यह
बताया है कि वासनाओं को दबाकर आगे बढ़ने वाला साधक विकास दमन का प्रत्यय और जैन-दर्शन
की अग्रिम कक्षाओं से अनिवार्यतया पदच्युत हो जाता है। जैन-विचारणा जैन-दर्शन में इन्द्रिय-संयम पर काफी बल दिया गया है। लेकिन के अनुसार यदि कोई साधक उपशम या दमन के आधार पर नैतिक प्रश्न यह है कि क्या इन्द्रिय-निरोध सम्भव है? आधुनिक मनोविज्ञान एवं आध्यात्मिक प्रगति करता है तो वह पूर्णता के लक्ष्य के अत्यधिक की दृष्टि से इन्द्रिय-व्यापारों का निरोध एक अस्वाभाविक तथ्य है। निकट पहुँचकर भी पुनः पतित हो जाता है। उनकी पारिभाषिक शब्दावली आँख के समक्ष जब उसका विषय प्रस्तुत होता है तो वह उसके में ऐसा साधक ११वें गुणस्थान तक पहुँच कर वहाँ से ऐसा पतित सौन्दर्य-दर्शन से वञ्चित नहीं रह सकती। भोजन करते समय स्वाद होता है कि पुन: निम्नतम प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में आ जाता है। को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। अत: यह विचारणीय प्रश्न है इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन-दर्शन भी आधुनिक मनोविज्ञान के कि इन्द्रिय-दमन के सम्बन्ध में जैन-दर्शन.का दृष्टिकोण क्या आधुनिक समान ही दमन को साधना का सच्चा मार्ग नहीं मानता है। उनके मनोविज्ञानिक दृष्टिकोण से सहमत है? जैन-दर्शन इस प्रश्न का उत्तर अनुसार साधना का सच्चा मार्ग वासनाओं का दमन नहीं अपितु उनके देते हुए यही कहता है कि इन्द्रिय-व्यापारों के निरोध का अर्थ इन्द्रियों ऊपर उठ जाना है। वह इन्द्रिय-निग्रह नहीं अपितु ऐन्द्रिक अनुभूतियों को अपने विषयों से विमुख करना नहीं, वरन् विषय-सेवन के मूल्य में भी मन की वीतरागता या समत्व की अवस्था है। में जो निहित राग-द्वेष है उसे समाप्त करना है। इस सम्बन्ध में जैनागम इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन-दर्शन अपनी विवेचनाओं में आचाराङ्ग सूत्र में जो मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया गया है वह मनोवैज्ञानिक आधारों पर खड़ा हुआ है। उसके कषाय-सिद्धान्त और विशेष रूप से द्रष्टव्य है। उसमें कहा गया है कि यह शक्य नहीं कि लेश्या-सिद्धान्त भी उसकी मनोवैज्ञानिक दृष्टि के परिचायक हैं। यहाँ कानों में पड़ने वाले अच्छे या बुरे शब्द सुने न जाएँ, अत: शब्दों उन सबकी गहराइयों में जाना सम्भव नहीं है। अत: हम केवल उनका का नहीं शब्दों के प्रति जगने वाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिए। यह नाम-निर्देश मात्र करके ही विराम करना चाहेंगे।
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