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नैतिक-प्रतिमान : एक या अनेक?
२४३ यदि पूर्णतावादी निम्न-आत्मा (Lower Self) के त्याग के द्वारा उच्चात्मा हित एक नहीं, अनेक होंगे और जब मनुष्य के शुभ या हित (Good) (Higher Self) के लाभ की बात कहते हैं, तो वे स्वयं ही जीवन ही विविध हैं तो फिर नैतिक प्रतिमान भी विविध होंगे। किसी परम के इन दोनों पक्षों में विरोध को स्वीकार करते हैं। पुन: निम्नात्मा भी शुभ (Ultimate Reality) के प्रसङ्ग में चाहे सही भी हो किन्तु मानवीय हमारी आत्मा है और यदि हम उसके निषेध की बात स्वीकार करते अस्तित्व के प्रसङ्ग में सही नहीं है। हमें मनुष्य को मनुष्य मानकर हैं तो हमें पूर्णतावाद के सिद्धान्त को छोड़कर प्रकारान्तर से बुद्धिवाद चलना होगा, देवता या ईश्वर मानकर नहीं, और एक मनुष्य के रूप या वैराग्यवाद को स्वीकार करना होगा। इसी प्रकार वैयक्तिक आत्मा में उसके हित या साध्य विविध ही होंगे। साथ ही हितों या साध्यों और सामाजिक आत्मा का अथवा स्वार्थ और परार्थ का अन्तर्विरोध की यह विविधता नैतिक प्रतिमानों की अनेकता को ही सूचित करेगी। भी समाप्त नहीं किया जा सकता। इसीलिए मूल्यवाद किसी एक मूल्य पुनः नैतिक प्रतिमान का आधार व्यक्ति की जीवनदृष्टि या मूल्यदृष्टि की बात न कहकर 'मूल्यों' या विश्व-मूल्यों की बात करता है। मूल्यों होगी किन्तु यह मूल्यदृष्टि या जीवनदृष्टि व्यक्तियों के बौद्धिक विकास, के विपुलता के इस सिद्धान्त में नैतिक प्रतिमान की विविधता स्वाभाविक संस्कार एवं पर्यावरण के आधार पर ही निर्मित होती है। व्यक्तियों ही होगी क्योंकि प्रत्येक मूल्य का मूल्याङ्कन किसी दृष्टिविशेष के आधार के बौद्धिक विकास, पर्यावरण और संस्कारों में भिन्नतायें स्वाभाविक पर ही होगा। चूंकि मनुष्यों की जीवनदृष्टियाँ या मूल्यदृष्टियाँ विविध है, अत: उनकी मूल्यदृष्टियाँ अलग-अलग होंगी और यदि मूल्यदृष्टियाँ हैं, अत: उन पर आधारित नैतिक प्रतिमान भी विविध ही होंगे। पुनः भिन्न-भिन्न होंगी तो नैतिक प्रतिमान भी विविध होंगे। यह एक आनुभाविक मूल्यवाद में भी मूल्यों के तारतम्य को लेकर सदैव ही विवाद रहा तथ्य है कि विविध दृष्टिकोणों के आधार पर एक ही घटना का नैतिक है। एक दृष्टि से जो सर्वोच्च मूल्य लगता है, वही दूसरी दृष्टि से मूल्याङ्कन अलग-अलग होता है। उदाहरण के रूप में परिवार नियोजन निम्न मूल्य हो सकता है। चूँकि मनुष्य की जीवनदृष्टि या मूल्यदृष्टि की धारणा, जनसंख्या के बाहुल्यवाले देशों की दृष्टि से चाहे अनुचित का निर्माण भी स्वयं उसके संस्कारों एवं परिवेशजन्य तथ्यों से प्रभावित हो, किन्तु अल्प जनसंख्या वाले देशों एवं जातियों की दृष्टि से उचित होता है। अतः मूल्यवाद नैतिक प्रतिमान के सन्दर्भ में विविधता की होगी। 'राष्ट्रवाद' अपनी जाति-अस्मिता की दृष्टि से चाहे अच्छा हो धारणा को ही पुष्ट करता है।
किन्तु सम्पूर्ण मानवता की दृष्टि से अनुचित है। हम भारतीय ही एक इस प्रकार हम देखते हैं कि नैतिक-प्रतिमान (Moral standard) ओर जातिवाद एवं सम्प्रदायवाद को कोसते हैं तो दूसरी ओर भारतीयता के प्रश्न पर न केवल विविध दृष्टिकोणों से विचार हुआ है अपितु नैतिक के नाम पर अपने को गौरवान्वित अनुभव करते हैं। क्या हम यहाँ प्रतिमान का प्रत्येक सिद्धान्त स्वयं भी इतने अन्तर्विरोधों से युक्त है दोहरे मापदण्ड का उपयोग नहीं करते हैं? स्वतन्त्रता की बात को ही कि वह किसी एक सार्वभौम नैतिक मापदण्ड या नैतिक प्रतिमान को लें। क्या स्वतन्त्रता और सामाजिक-अनुशासन सहगामी होकर चल प्रस्तुत करने का दावा करने में असमर्थ है। आज भी इस सम्बन्ध सकते हैं? आपातकाल को ही लीजिये, वैयक्तिक स्वतन्त्रता के हनन में किसी सर्वमान्य सिद्धान्त का अभाव ही है।
की दृष्टि से या नौकरशाही के हावी होने की दृष्टि से हम उसकी आलोचना वस्तुत: नैतिक मानदण्डों की यह विविधता स्वाभाविक ही है। जो कर सकते हैं किन्तु अनुशासन बनाये रखने और अराजकता को समाप्त लोग किसी एक सर्वमान्य नैतिक प्रतिमान की बात करते हैं वे कल्पनालोक करने की दृष्टि से उसे उचित ठहराया जा सकता है। वस्तुत: उचितता में ही विचरण करते हैं। नैतिक प्रतिमानों की इस स्वाभाविक विविधता के और अनुचितता का मूल्याङ्कन किसी एक दृष्टिकोण के आधार पर कई कारण हैं। सर्वप्रथम तो नैतिकता और अनैतिकता का यह प्रश्न मनुष्य नहीं होकर विविध दृष्टिकोणों के आधार पर होता है, जो एक अपेक्षा के सन्दर्भ में है और उस मनुष्य के सन्दर्भ में है जिसकी प्रकृति ही से नैतिक हो सकता है वही दूसरी अपेक्षा से अनुचित हो सकता है, बहुआयामी (Multi-dimentional) और अन्तर्विरोधों से परिपूर्ण है। जो एक व्यक्ति के लिये उचित है वही दूसरे के लिये अनुचित हो मनुष्य केवल चेतना सत्ता नहीं है, अपितु चेतना युक्त शरीर है- सकता है। एक स्थूल शरीरवाले व्यक्ति के लिये स्निग्ध पदार्थों का पुन: वह निरा एकाकी व्यक्ति भी नहीं है, अपितु समाज में जीने वाला सेवन अनुचित है, किन्तु कृशकाय व्यक्ति के लिये उचित है। अत: व्यक्ति है। उसके अस्तित्व में वासना और विवेक तथा वैयक्तिकता और हम कह सकते हैं कि नैतिक मूल्याङ्कन के विविध दृष्टिकोण हैं और समाजिकता के तत्त्व समाहित हैं। यहाँ हमें यह भी समझ लेना है कि इन विविध दृष्टिकोणों के आधार पर विविध नैतिक प्रतिमान बनते वासना और विवेक में तथा व्यक्ति और समाज में स्वभावत: सङ्गति हैं, जो एक ही घटना का अलग-अलग नैतिक मूल्याङ्कन करते हैं। (Harmony) नहीं है। वे स्वभावत: एक दूसरे के विरोध में हैं। इस प्रकार नैतिक मूल्याङ्कन परिस्थिति-सापेक्ष एवं दृष्टि-सापेक्ष मनोवैज्ञानिक भी यह मानते हैं कि 'इड' (वासनातत्त्व) और 'सुपर इगो' मूल्याङ्कन है, अत: उनकी सार्वभौम सत्यता का दावा करना भी व्यर्थ (आदर्श तत्त्व) मानवीय चेतना के समक्ष प्रतिपक्षी के रूप में ही उपस्थित है। किसी दृष्टि-विशेष या अपेक्षा-विशेष के आधार पर ही वे सत्य होते हैं। पुनः उनमें समर्पण और शासन की दो विरोधी मूलप्रवृत्तियाँ होते हैं। एक साथ काम करती हैं। वह एक ओर अपनी अस्मिता को बचाये संक्षेप में, सभी नैतिक प्रतिमान मूल्यदृष्टि सापेक्ष हैं और मूल्यदृष्टि रखना चाहता है तो दूसरी ओर अपने व्यक्तित्व को व्यापक भी बनाना स्वयं व्यक्तियों के बौद्धिक विकास, संस्कार, सांस्कृतिक परिवेश, चाहता है। ऐसी बहुआयामी एवं अविरोधों से युक्त सत्ता का शुभ या सामाजिक चेतना एवं भौतिक पर्यावरण पर निर्भर करती है। चूंकि
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