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मूल्य दर्शन और पुरुषार्थं चतुष्टय यह एक अन्त है। कामभोगों के सेवन में कोई दोष नहीं, यह दूसरा अन्त है। इन दोनों अन्तों के सेवन से संस्कारों की वृद्धि होती है, मिथ्याधारणा बढ़ती है, व्यक्ति मार्ग से भ्रष्ट हो जाता है। " १५ इस आधार पर कामपुरुषार्थ के सम्बन्ध में बुद्ध का दृष्टिकोण यही प्रतीत होता है कि जो काम धर्म-अविरुद्ध है, जिससे आध्यात्मिक प्रगति या चित की विकलता समाप्त होती है, वह काम आचरणीय है इसके विपरीत धर्मविरुद्ध मानसिक अशान्तिकारक काम या विषयभोग अनाचरणीय है।
बुद्ध की दृष्टि में भी जैन विचार के समान धर्मपुरुषार्थ निर्वाण या मोक्षपुरुषार्य का साधन है। मज्झिमनिकाय में बुद्ध कहते हैं, “भिक्षुओं मैंने बेड़े की भाँति पार जाने के लिए (निर्वाणलाभ के लिए) तुम्हें धर्म का उपदेश दिया है, पकड़ रखने के लिए नहीं।” १६ अर्थात् निर्वाण की दिशा में ले जानेवाला धर्म ही आचरणीय है । बुद्ध की दृष्टि में जो धर्म निर्वाण की दिशा में नहीं ले जाता, जिससे निर्वाणलाभ में बाधा आती हो वह त्याग देने योग्य है। इतना ही नहीं, बुद्ध धर्म को एक साधन के रूप में स्वीकार करते हैं और साध्य की उपलब्धि के लिए उसे भी छोड़ देने का सन्देश देते हैं। उनकी दृष्टि में परम मूल्य तो निर्वाण ही है।
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बिना यज्ञ के जो भोग करता है, वह चोर है, तो उसका प्रमुख दृष्टिकोण कामपुरुषार्थ को धर्माभिमुख बनाने का ही है । २२
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन, बौद्ध और गीता की विचारधाराओं में चारों पुरुषार्थ स्वीकृत हैं, यद्यपि सभी ने इस बात पर बल दिया है कि अर्थ और काम पुरुषार्थ को धर्म-अविरुद्ध होना चाहिए और धर्म को सदैव ही मोक्षाभिमुख होना चाहिए। वस्तुतः यह दृष्टिकोण न केवल जैन, बौद्ध और गीता की परम्पराओं का है, वरन् समग्र भारतीय चिन्तन की इस सन्दर्भ में यही दृष्टि है। मनु कहते हैं कि धर्मविहीन अर्थ और काम को छोड़ देना चाहिए । २३ महाभारत में भी कहा है कि जो अर्थ और काम धर्म विरोधी हों, उन्हें छोड़ देना चाहिए । २४ कौटिल्य अपने अर्थशास्त्र में और वात्स्यायन अपने कामसूत्र में लिखते हैं कि धर्म से अविरोध में रहे हुए काम का ही सेवन करना चाहए । २५
इस प्रकार भारतीय चिन्तकों का प्रयास वही रहा है कि चारों पुरुषार्थों को इस प्रकार संयोजित किया जाये कि वे परस्पर सापेक्ष होकर अविरोध की अवस्था में रहे। इस हेतु उन्होंने उनका पारस्परिक सम्बन्ध निश्चित करने का प्रयास भी किया। कौन सा पुरुषार्थ सर्वोच्च मूल्यवाला है इस सम्बन्ध में महाभारत में गहराई से विचार किया गया है और इसके फलस्वरूप विभिन्न दृष्टिकोण सामने भी आये
१. अर्थ ही परम पुरुषार्थ है, क्योंकि धर्म और काम दोनों अर्थ के होने पर उपलब्ध होते हैं। धन के अभाव में न तो काम भोग ही प्राप्त होते हैं, और न दान-पुण्यादि रूप धर्म ही किया जा सकता है। २६ कौटिल्य ने भी अर्थशास्त्र में इसी दृष्टिकोण को प्रतिपादित किया है। २७
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गीता में पुरुषार्थ चतुष्टय पुरुषार्थ चतुष्ट सम्बन्ध में गीता का दृष्टिकोण जैन परम्परा से भिन्न नहीं है। गीता की दृष्टि में भी मोक्ष ही परम पुरुषार्थ है वही परम मूल्य है। धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ सम्बन्धी धृति को गीताकार ने राजसी कहा है। १७ लेकिन यह मानना भी भ्रान्तिपूर्ण होगा कि गीता में इन पुरुषार्थों का कोई स्थान नहीं है। गीताकार जब काम की निन्दा करता है, १८ धर्म को छोड़ने की बात करता है, १९ तो मोक्षपुरुषार्थं या परमात्मा की प्राप्ति की अपेक्षा से ही मोक्ष ही परमाराध्य है, धर्म, अर्थ और काम का मोक्ष के निमित्त परित्याग किया जा सकता है। गीताकार की दृष्टि में भी यदि धर्म, अर्थ और काम मोक्ष के अविरोधी हैं तो वे ग्राह्य हैं। गीताकार की मान्यता भी यही प्रतीत होती है कि अर्थ और काम को धर्माधीन होना चाहिए और धर्म को मोक्षाभिमुख होना चाहिए। धर्मयुक्त, यज्ञ (त्याग) पूर्वक एवं वर्णानुसार किया गया आजीविकोपार्जन गीता के अनुसार विहित ही है। यद्यपि धन की चिन्ता में डूबे रहनेवाले और धन का तथा धन के द्वारा किये गये दान पुण्यादि .. का अभिमान करनेवाले को गीता में अज्ञानी कहा गया है२० तथापि इसका तात्पर्य यही है कि न तो धन को एकमात्र साध्य बना लेना ' चाहिए और न उसका तथा उसके द्वारा किये गये सत्कार्यों का अभिमान ही करना चाहिए। इसी प्रकार कामपुरुषार्थ के सम्बन्ध में गीता और अनासक्ति यही परम कल्याणकारक है। ३२ का दृष्टिकोण यही है कि उसे धर्म अविरुद्ध होना चाहिए । श्रीकृष्ण
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२. काम ही परम पुरुषार्थ है, क्योंकि विषयों की इच्छा या काम के अभाव में न तो कोई धन प्राप्त करना चाहता है, और न कोई धर्म करना चाहता है काम हो अर्थ और धर्म से श्रेष्ठ है। १८ जैसे दही कासार मक्खन है, वैसे ही अर्थ और धर्म का सार काम हैं । २९
३. अर्थ, काम और धर्म तीनों ही स्वतन्त्र पुरुषार्थ है, तीनों का समान रूप से सेवन करना चाहिए जो एक का सेवन करता है वह अधम है, जो दो के सेवन में निपुण है वह मध्यम है और जो इन तीनों में समान रूप से अनुरक्त है, वही मनुष्य उत्तम है । ३०
४. धर्म ही श्रेष्ठ गुण (पुरुषार्थ) है, अर्थ मध्यम है और काम सबकी अपेक्षा निम्न है क्योंकि धर्म से ही मोक्ष की उपलब्धि होती है, धर्म पर ही लोक व्यवस्था आधारित है और धर्म में ही अर्थ समाहित है। ३९ ।
५. मोक्ष ही परम पुरुषार्थ है। मोक्ष के उपाय के रूप में ज्ञान
कहते हैं कि प्राणियों में धर्म-अविरुद्ध काम मैं हूँ। २९ सभी भोगों से चारों पुरुषार्थों की तुलना एवं क्रमनिर्धारण
विमुख होने की अपेक्षा गीताकार की दृष्टि में यही उचित है कि उनमें आसक्ति का त्याग किया जाये। वस्तुतः यह दृष्टिकोण भोगों को मोक्ष के अविरोध में रखने का प्रयास है। इसी प्रकार गीता जब यह कहती है कि
पुरुषार्थ चतुष्टय के सम्बन्ध में उपर्युक्त विभिन्न दृष्टिकोण परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं, लेकिन सापेक्षिक दृष्टि से इनमें विरोध नहीं रह जाता है साधन की दृष्टि से विचार करने पर अर्थ ही प्रधान
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