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जैनदर्शन में पुद्गल और परमाणु किया जा सकता है तो फिर परम सत्ता के निर्वचन का प्रश्न तो और कहलाता है, क्योंकि श्रुतज्ञान के दो भेद प्रसिद्ध हैं- अक्षर-श्रुत और भी जटिल हो जाता है। भारतीय चिन्तन में प्रारंभ से लेकर आज तक अनक्षर-श्रुत। अक्षरश्रुत के तीन भेद हैं- संज्ञाक्षर, व्यंजनाक्षर और सत्ता की वाच्यता का यह प्रश्न मानव-मस्तिष्क.को झकझोरता रहा है। लब्ध्यक्षर। वर्ण का ध्वनि संकेत अर्थात् शब्द-ध्वनि व्यंजनाक्षर है। वर्ण वस्तुत: सत्ता की अवाच्यता का कारण शब्द भण्डार तथा शब्द शक्ति का आकारिक संकेत अर्थात् लिपि संकेत संज्ञाक्षर है। लिपि संकेत और की सीमितता और भाषा का अस्ति और नास्ति की सीमाओं से घिरा शब्द-ध्वनि संकेत के द्वारा अर्थ को समझने की सामर्थ्य लब्ध्यक्षर है। होना है। इसीलिए प्राचीनकाल से ही सत्ता की अवाच्यता का स्वर मुखर शब्द या भाषा के बिना मात्र वस्तु संकेत, अंग संकेत अथवा ध्वनि होता रहा है।
संकेत द्वारा जो ज्ञान होता है वह अनक्षर श्रुत है। इसमें हस्त आदि तैत्तिरीय उपनिषद् में कहा गया है कि यतो वाचो निवर्तन्ते शरीर के संकेतों, झण्डी आदि वस्तु संकेतों तथा खांसना आदि ध्वनि(२/४)- वाणी वहां से लौट आती है, उसे वाणी का विषय नहीं संकेतों के द्वारा अपने भावों एवं अनुभूतियों को अभिव्यक्त किया जाता बनाया जा सकता है। इसी बात को केनोपनिषद् में “यद्वाचावभ्युदितम्" है। संक्षेप में वे सभी सांकेतिक सूचनाएं जो किसी व्यक्ति के ज्ञान, भाव (१/४) के रूप में कहा गया है। कठोपनिषद् में "नेव वाचा न मनसा या विचार को सार्थक रूप से प्रकट कर देती हैं और जिसके द्वारा पर प्राप्तुं शक्यम्" कह कर यह बताया गया है कि परम सत्ता का ग्रहण (दूसरा) व्यक्ति उनके लक्षित अर्थ का ग्रहण कर लेता है, श्रुतज्ञान है। वाणी और मन के द्वारा संभव नहीं है। माण्डूक्योपनिषद् में सत्ता को चूंकि श्रुतज्ञान प्रमाण है, अत: मानना होगा कि शब्द संकेत या भाषा अदृष्ट, अव्यवहार्य, अग्राह्य, अलक्षण, अचिन्त्य और अवाच्य कहा अपने विषय या अर्थ का प्रामाणिक ज्ञान देने में समर्थ है। दूसरे शब्दों गया है। जैन-आगम आचारांग का भी कथन है कि “वह (सत्ता) में सत् या वस्तु वाच्य भी है। इस प्रकार जैन-दर्शन में सत्ता या वस्तु ध्वन्यात्मक किसी भी शब्द की प्रवृत्ति का विषय नहीं है, वाणी उसका तत्त्व को अंशत: वाच्य या वक्तव्य और समग्रत: अवाच्य या अवक्तव्य निर्वचन करने में कथमपि समर्थ नहीं है। वहां वाणी मूक हो जाती है कहा गया है। यहां यह विचार कर लेना भी आवश्यक है कि इस तर्क की वहां तक पहुंच नहीं है, वह बुद्धि का विषय नहीं है। किसी भी अवक्तव्यता का भी क्या अर्थ है? उपमा के द्वारा उसे समझाया नहीं जा सकता है अर्थात् उसकी कोई उपमा नहीं दी जा सकती है। वह अनुपम, अरूपी सत्ता है। उस अपद अवक्तव्य का अर्थ का कोई पद नहीं है, अर्थात् ऐसा कोई शब्द नहीं है, जिस के द्वारा डॉ० पद्मराजे ने अवक्तव्य के अर्थ के विकास की दृष्टि से उसका निरूपण किया जा सके" (आवारांग १/५/६)।
चार अवस्थाओं का निर्देश किया हैउपर्युक्त सभी कथन भाषा की सीमितता और अपर्याप्तता को (१) पहला वेदकालीन निषेधात्मक दृष्टिकोण, जिसमें तथा सत्ता की अवाच्यता या अवक्तव्यता को ही सूचित करते हैं। किन्तु विश्व-कारण की खोज करते हुए ऋषि इस कारण तत्त्व को न सत् प्रश्न यह है कि क्या तत्त्व या सत्ता को किसी भी प्रकार वाणी का विषय और न असत् कहकर विवेचित करता है यहां दोनों पक्षों का नहीं बनाया जा सकता है? यदि ऐसा है तो सारा वाक् व्यवहार निरर्थक निषेध है। यहां सत्ता की अस्ति (सत्) और नास्ति (असत्) रूप होगा। श्रुतज्ञान अर्थात् शास्त्र और आगम व्यर्थ हो जायेंगे। यही कारण से वाच्यता का निषेध किया गया है। था कि जैन चिन्तकों ने सत्ता या तत्त्व को समग्रतः (एज ए होल) (२) दूसरा औपनिषदिक दृष्टिकोण, जिसमें सत्-असत् अवाच्य या अवक्तव्य मानते हुए भी अंशत: या सापेक्षत: वाच्य माना। आदि विरोधी तत्त्वों में समन्वय देखा जाता है। जैसे- “तदेजति क्योंकि उसे अवक्तव्य या वाच्य कहना भी तो एक प्रकार का वचन या तन्नेजति" "अणोरणीयान् महतो महीयान", सदसद्वरेण्यम्" आदि। वाक् व्यवहार ही है, यहां हमारा वाच्य यह है कि वह अवाच्य है। अत: यहां दोनों पक्षों की स्वीकृति है। यहां सत्ता को दो विरुद्ध धर्मों से हमें व्यवहार के स्तर पर उतर कर सत्ता की वक्तव्यता या वाच्यता को युक्त मानकर उसे अस्ति (है) और नास्ति (नहीं है) रूप भाषा से स्वीकार करना होगा। क्योंकि इसी आधार पर श्रुतज्ञान एवं आगमों की अवाच्य कहा गया है। प्रामाणिकता स्वीकार की जा सकती है।
(३) तीसरा दृष्टिकोण जिसमें तत्त्व को स्वरूपत: अव्यपदेश्य जैन-आचार्यों ने दूसरों के द्वारा किए गए संकेतों के आधार या अनिवर्चनीय माना गया है, यह दृष्टिकोण भी उपनिषदों में ही पर होने वाले ज्ञान को श्रुतज्ञान कहा है। संक्षेप में समस्त आनुभविक मिलता है। जैसे- “यतो वाचो निवर्तन्ते", यद्वाचाभ्युदित्य, नैव वाचा ज्ञान, मतिज्ञान और सांकेतिक ज्ञान शुतज्ञान हैं, श्रुतज्ञान की परिभाषा न मनसा प्राप्तुं शक्य: आदि। बुद्ध के अव्याकृतवाद एवं शून्यवाद की है- जिस ज्ञान में संकेत-स्मरण है और जो संकेतों के नियत अर्थ को चतुष्कोटि विनिर्मुक्त तत्त्व की अवधारणा में भी बहुत कुछ इसी दृष्टिकोण समझने में समर्थ है, वही श्रुतज्ञान है।दूसरे शब्दों में जो ज्ञान संकेत का प्रभाव देखा जा सकता है।
और वचन श्रवण के द्वारा होता है वह श्रुतज्ञान है (विशेषावश्याभाष्य, (४) चौथा दृष्टिकोण जैन-न्याय में सापेक्षित अवक्तव्यता या १२० एवं १२१)। सामान्यतया श्रुतज्ञान का मुख्य आधार शब्द है, सापेक्षित अनिर्वचनीयता के रूप में विकसित हुआ है जिसमें सत्ता को किन्तु हस्तसंकेत आदि अन्य साधनों से होने वाला ज्ञान भी श्रुतज्ञान अंशत: वाच्य और समग्रतः अवाच्य कहा गया है।
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