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जैन दर्शन में ज्ञान के प्रामाण्य और कथन की सत्यता का प्रश्न
समकालीन पाश्चात्य दर्शन में भाषा-विश्लेषण का दर्शन की गणितीय ज्ञान और परिभाषाओं के सन्दर्भ, सत्यता की कसौटी ज्ञान एक स्वतन्त्र विधा के रूप में विकास हुआ और आज वह एक सबसे की आन्तरिक संगति ही होती है। वे सभी ज्ञान जिनका ज्ञेय ज्ञान से प्रभावशाली दार्शनिक सम्प्रदाय के रूप में अपना अस्तित्त्व रखता है। भिन्न नहीं है, स्वतः प्रामाण्य हैं। इसी प्रकार सर्वज्ञ का ज्ञान भी उत्पत्ति प्रस्तुत शोधनिबन्ध का उद्देश्य मात्र यह दिखाना है कि पाश्चात्य दर्शन और ज्ञप्ति दोनों ही दृष्टि से स्वत: ही प्रामाण्य है। जब हम यह मान की ये विधाएँ जैन दर्शन में सहस्त्राधिक वर्ष पूर्व किस रूप में चर्चित लेते हैं कि निश्चय दृष्टि से सर्वज्ञ अपने को ही जानता है, तो हमें रही हैं और उनकी समकालीन पाश्चात्य दर्शन से किस सीमा तक उसके ज्ञान के सन्दर्भ में उत्पत्ति और ज्ञप्ति दोनों को स्वत: मानना निकटता है।
होगा क्योंकि ज्ञान कथञ्चित् रूप से ज्ञेय से अभिन्न भी होता है जैसे
स्व-संवेदन। ज्ञान की सत्यता का प्रश्न
वस्तुगत ज्ञान में भी सत्यता की कसौटी उत्पत्ति और ज्ञप्ति सामान्यतया ज्ञान के प्रामाण्य या सत्यता का अर्थ ज्ञान की (निश्चिय) दोनों को स्वत: और परत: दोनों माना जा सकता है। जब ज्ञेय विषय के साथ समरूपता या संवादिता है। यद्यपि, ज्ञान की सत्यता कोई यह सन्देश कहे कि “आज अमुक प्रसूतिगृह में एक बन्ध्या ने पुत्र के सम्बन्ध में एक दूसरा दृष्टिकोण स्वयं ज्ञान का संगतिपूर्ण होना भी का प्रसव किया" तो हम इस ज्ञान के मिथ्यात्व के निर्णय के लिए है, क्योंकि जो ज्ञान आन्तरिक विरोध से युक्त है, वह भी असत्य माना किसी बाहरी कसौटी का आधार न लेकर इसकी आन्तरिक असंगति के गया है।जैन दर्शन में वस्तु स्वरूप को अपने यथार्थ रूप में, अर्थात् आधार पर ही इसके मिथ्यापन को जान लेते हैं। इसी प्रकार "त्रिभुज जैसा वह है उस रूप में जानना अर्थात् ज्ञान का ज्ञेय (प्रमेय) से तीन भुजाओं से युक्त आकृति है"- इस ज्ञान की सत्यता इसकी अव्यभिचारी होना ही ज्ञान की प्रामाणिकता है। यहाँ यह प्रश्न भी आन्तरिक संगति पर ही निर्भर करती है। अत: ज्ञान के प्रामाण्य एवं महत्त्वपूर्ण है कि ज्ञान की इस प्रामाणिकता या सत्यता का निर्णय कैसे अप्रामाण्य की उत्पत्ति (कसौटी) और ज्ञान के प्रामाण्य एवं अप्रामाण्य होता है? क्या ज्ञान स्वयं ही अपनी सत्यता का बोध देता है या उसके का ज्ञप्ति (निश्चय) दोनों ही ज्ञान के स्वरूप या प्रकृति के आधार पर लिए किसी अन्य ज्ञान (ज्ञानान्तर ज्ञान) की अपेक्षा होती है? अथवा स्वत: अथवा परत: और दोनों प्रकार से हो सकती है। ज्ञान की प्रामाणिकता के लिए ज्ञान और ज्ञेय की संवादिता (अनुरूपता) सकल ज्ञान, पूर्ण ज्ञान और आत्मगत ज्ञान में ज्ञान की को देखना होता है? पाश्चात्य परम्परा में ज्ञान की सत्यता के प्रश्न को प्रामाण्यता का निश्चय स्वतः होगा, जबकि विकल ज्ञान, अपूर्ण लेकर तीन प्रकार की अवधारणाएँ हैं- (५) संवादिता सिद्धान्त; (२) (आंशिक) ज्ञान या नयज्ञान और वस्तुगत ज्ञान में वह निश्चय परत: संगति सिद्धान्त और (३) उपयोगितावादी (अर्थक्रियाकारी) सिद्धान्त। होगा। पारमार्थिक प्रत्यक्ष के द्वारा होने वाले ज्ञान में उनके प्रामाण्य का भारतीय दर्शन में वह संवादिता का सिद्धान्त परतः प्रामाण्यवाद के रूप बोध स्वत: होगा, जबकि व्यावहारिक प्रत्यक्ष और अनुमानादि में में और संगति-सिद्धान्त स्वत: प्रामाण्यवाद के रूप में स्वीकृत हैं। प्रामाण्य का बोध स्वत: और परत: दोनों प्रकार से सम्भव है। पुनः अर्थक्रियाकारी सिद्धान्त को परत: प्रामाण्यवाद की ही एक विशेष विधा सापेक्ष ज्ञान में सत्यता का निश्चय परत: और स्वत: दोनों प्रकार से और कहा जा सकता है। जैन दार्शनिकों ने इस सम्बध में किसी ऐकान्तिक निरपेक्ष ज्ञान में स्वतः होगा। इसी प्रकार सर्वज्ञ के ज्ञान की सत्यता की दृष्टिकोण को न अपनाकर माना कि ज्ञान के प्रामाण्य या सत्यता का उत्पत्ति और ज्ञप्ति (निश्चय) दोनों ही स्वत: और सामान्य व्यक्ति के ज्ञान निश्चय स्वत: और परत: दोनों प्रकार से होता है। यद्यपि, जैन दार्शनिक की उत्पत्ति परत: और ज्ञप्ति स्वत: और परत: दोनों रूपों में हो सकती यह मानते हैं कि ज्ञान के प्रामाण्य और अप्रामाण्य की उत्पत्ति का है। अत: वादिदेवसूरि का यह कथन सामान्य व्यक्ति के ज्ञान को लेकर आधार (कसौटी) ज्ञान स्वयं न होकर ज्ञेय है। प्रमाणनयतत्वालोक में ही है, सर्वज्ञ के ज्ञान के सम्बन्ध में नहीं हैं। सामान्य व्यक्तियों के ज्ञान वादिदेवसूरि ने कहा है कि “तदुभयमुत्पत्तौ परत एव" अर्थात् प्रामाण्य की सत्यता का मूल्याँकन पूर्व अनुभव दशा में स्वत: और पूर्व अनुभव
और अप्रामाण्य की उत्पत्ति तो परतः ही होती है। क्योंकि ज्ञान की में अभाव में परतः अर्थात् ज्ञानान्तर ज्ञान से होता है, यद्यपि पूर्व प्रामाण्यता और अप्रामाण्यता का आधार ज्ञान न होकर ज्ञेय है और ज्ञेय अनुभव भी ज्ञान का ही रूप हैं अत: उसे भी अपेक्षा विशेष से परतः ज्ञान से भिन्न है। तथापि अभ्यास दशा में ज्ञान की सत्यता का निश्चय कहा जा सकता हैं जहाँ तक की ज्ञान की उत्पत्ति का प्रश्न है, स्वानुभव अर्थात् ज्ञप्ति तो स्वत: अर्थात् स्वयं ज्ञान के द्वारा ही हो जाती है, को छोड़कर वह परत: ही होती है, क्योंकि वह ज्ञेय अर्थात् “पर” पर जबकि अनभ्यास दशा में उसका निश्चय परत: अर्थात् ज्ञानान्तर ज्ञान से निर्भर है। अत: ज्ञान की सत्यता की उत्पत्ति या कसौटी को परत: ही होता है। यद्यपि, वादिदेवसूरि के द्वारा ज्ञान की सत्यता की कसौटी माना गया है। जहाँ तक कथन की सत्यता का प्रश्न है, वह ज्ञान की (उत्पत्ति) को एकान्तः परत: मान लेना समुचित प्रतीत नहीं होता है। सत्यता से भिन्न है।
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