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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
सामान्यतया अवक्तव्य के निम्न अर्थ हो सकते हैं- वक्तव्य या वाच्य तो नहीं है, किन्तु वह पूर्णतया अवक्तव्य या अवाच्य
(१) सत् व असत् दोनों रूप से सत्ता की वाच्यता का निषेध भी नहीं है। यदि हम वस्तुतत्त्व को पूर्णतया अवाच्य अर्थात् अनिर्वचनीय करना।
मान लेंगे तो फिर भाषा एवं विचारों के आदान-प्रदान का कोई रास्ता (२) सत्, असत् और सदतततीनों रूपों से सत्ता की वाच्यता ही नहीं रह जायेगा। अत: जैन दृष्टिकोण वस्तुतत्त्व की अनिवर्चनीयता का निषेध करना।
या अवाच्यता को स्वीकार करते हुए भी यह मानता है कि सापेक्ष रूप (३) सत्, असत्, सत्-असत् (उभय) और न सत्- न से वह निर्वचनीय या वाच्य भी है। सत्ता अंशत: निर्वचनीय है और असत् (अनुभय) चारों रूप से सत्ता की वाच्यता का निषेध करना। अंशत: अनिर्वचनीय। क्योंकि यही बात उसके सापेक्षवादी दृष्टिकोण
(४) वस्तुतत्त्व को स्वभाव से ही अवक्तव्य या वाच्य मानना। और स्याद्वाद सिद्धांत के अनुकूल है। इस प्रकार अवक्तव्यता के पूर्व अर्थात् यह कि वस्तुतत्त्व अनुभाव में तो आ सकता है, किन्तु कहा निर्दिष्ट छह अर्थों में से पहले तीन को छोड़कर अन्तिम तीनों को मानने नहीं जा सकता। क्योंकि वह अनुभवगम्य है, शब्दगम्य नहीं। में उसे कोई बाधा नहीं आती है।
(५) सत् और असत् दोनों को युगपद् रूप से स्वीकार जैनदर्शन में सप्तभंगी की योजना में एक भंग अवक्तव्य भी करना, किन्तु उसके कथन के लिए कोई शब्द न होने के कारण है। सप्तभंगी में दो प्रकार के भंग हैं- एक मौलिक और दूसरे संयोगिक। अवक्तव्य कहना।
मौलिक भंग तीन हैं- स्याद् अस्ति, स्याद् नास्ति और स्याद् अवक्तव्य। (६) वस्तुतत्त्व अनन्त धर्मात्मक है अर्थात् वस्तुतत्त्व के धर्मों शेष चार भंग संयोगिक हैं, जो इन तीन मौलिक भंगों के संयोग से बने की संख्या अनन्त है, किन्तु शब्दों की संख्या सीमित है और इसलिए हुए हैं। प्रस्तुत निबंध का उद्देश्य जैन दर्शन में अवक्तव्य या अवाच्य के उसमें जितने धर्म हैं, उतने वाचक शब्द नहीं है। अत: वाचक शब्दों के अर्थ को स्पष्ट करना था। हमने देखा कि सामान्यतया जैन दार्शनिकों अभाव के कारण उसे अंशत: वाच्य और अंशत: अवाच्य मानना। की अवधारणा यह है कि वस्तु में एक ही समय में रहे हुए सत्-असत्,
यहां यह प्रश्न विचारणीय हो सकता है कि जैन-परंपरा में नित्य-अनित्य, एक-अनेक आदि विरुद्ध धर्मों का युगपद् रूप से इस अवक्तव्यता के कौन से अर्थ मान्य रहे हैं। सामान्यतया जैन परंपरा अर्थात् एक ही साथ प्रतिपादन करना भाषायी सीमाओं के कारण में अवक्तव्यता के प्रथम तीनों निषेधात्मक अर्थ मान्य नहीं रहे हैं। उसका अशक्य है, क्योंकि ऐसा कोई भी क्रियापद नहीं है, जो एक ही कथन मान्य अर्थ यही है कि सत् और असत् दोनों का युगपद् विवेचन नहीं में एक साथ विधान या निषेध दोनों कर सके। अत: परस्पर विरुद्ध और किया जा सकता है, इसलिए वस्तुतत्त्व अवक्तव्य है, किन्तु यदि हम भावात्मक एवं अभावात्मक धर्मों की एक ही कथन में अभिव्यक्ति की प्राचीन जैन-आगमों को देखें तो अवक्तव्यता का यह अर्थ अंतिम नहीं. भाषायी असमर्थता को स्पष्ट करने के लिए ही अवक्तव्य भंग की कहा जा सकता है। “आचारांगसूत्र" में आत्मा के स्वरूप को वचनागोचर योजना की गई। किन्तु जैन-परंपरा में अवक्तव्य का यही एक मात्र अर्थ कहा गया है। उस अपद का कोई पद नहीं है, अर्थात् ऐसा कोई पद नहीं रहा है। नहीं है, जिसके द्वारा उसका निरूपण किया जा सके। इसे देखते हुए मेरी दृष्टि में अवक्तव्य या अवाच्यता का भी एक ही रूप नहीं यह मानना पड़ेगा कि वस्तुस्वरूप ही कुछ ऐसा है कि उसे वाणी का है, प्रथम तो “है" और नहीं है" ऐसे विधि-प्रतिषेध का युगपद् (एक माध्यम नहीं बनाया जा सकता है। पुन: वस्तुतत्त्व को अनन्तधर्मात्मकता ही साथ) प्रतिपादन संभव नहीं है, अत: उसे अवक्तव्य कहा गया है।
और शब्द- संख्या की सीमितता के आधार पर भी वस्तुतत्त्व की दूसरे निरपेक्ष रूप से वस्तुतत्त्व का कथन संभव नहीं है, अतः वस्तुतत्त्व अवक्तव्य माना गया है, आचार्य नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार में अनभिलाप्यभाव अवक्तव्य है। तीसरे अपेक्षाएं अनन्त हो सकती हैं, किन्तु अनन्त का उल्लेख किया है। वे लिखते हैं कि अनुभव में आये वक्तव्य भावों अपेक्षाओं से युगपद् रूप में वस्तुतत्त्व का प्रतिपादन संभव नहीं है, के अनन्तवें भाग का ही कथन किया जा सकता है। अत: यह मान लेना इसलिए भी उसे अवक्तव्य या अवाच्य मानना होगा। चौथे वस्तु में उचित नहीं है कि जैन परंपरा में अवक्तव्यता का केवल एक ही अर्थ अनन्त विशेष गुण-धर्म हैं, किन्तु भाषा में प्रत्येक गुण-धर्म के वाचक मान्य है।
शब्द नहीं हैं, इसलिए वस्तु तत्त्व अवाच्य है। पांचवें वस्तु और उसके इस प्रकार जैनदर्शन में अवक्तव्यता के चौथे, पांचवें और छठे गुणधर्म “विशेष" होते हैं और शब्द सामान्य हैं और सामान्य शब्द, अर्थ मान्य रहे हैं। हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि सापेक्ष अवक्तव्यता विशेष की उस विशिष्टता का समग्रत: वाचक नहीं हो सकता है। इस
और निरपेक्ष अवक्तव्यता में जैन दृष्टि सापेक्ष अवक्तव्यता को स्वीकार प्रकार “सत्ता” निरपेक्ष एवं समग्र रूप से अवाच्य होते हुए भी करती है, निरपेक्ष को नहीं। वह यह मानती है कि वस्तुतत्त्व पूर्णतया सापेक्षत: एवं अंशत: वाच्य भी है।
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