________________
१३८
जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ मान्य नहीं है कि शब्द और अर्थ में कोई सम्बन्ध ही नहीं है, उनका दोनों ही सीमित हैं। उदाहरण के लिए मीठा शब्द को लीजिए। हम कथन है कि यदि शब्द का अपने अर्थ के साथ में कोई सम्बन्ध ही नहीं कहते हैं गन्ना मीठा है, गुड़ मीठा है, आम मीठा है, रसगुल्ला मीठा है, माना जायेगा तो समस्त भाषा-व्यवहार की प्रामाणिकता ही समाप्त हो तरबूज मीठा है आदि-आदि। यहां सभी के मीठेपन की अनुभूति के जाएगी और पारस्परिक अभिव्यक्ति का कोई साधन ही नहीं रहेगा। लिए एक ही शब्द “मीठा" प्रयोग कर रहे हैं, किन्तु हम यह बहुत ही इसीलिए जैन दार्शनिकों ने शब्द और अर्थ में सापेक्ष एवं सीमित स्पष्ट रूप से जानते हैं कि सबके मीठेपन का स्वाद एक समान नहीं वाच्य-वाचक सम्बन्ध माना है। शब्द अपने विषय का वाचक तो होता है। तरबूज मीठा है और आम मीठा है, इन दोनों कथनों में “मीठा" है, किन्तु उसकी समस्त विशेषताओं का सम्पूर्णता के साथ निर्वचन नामक गुण एक ही प्रकार की अनुभूति का द्योतक नहीं है। यद्यपि करने में समर्थ नहीं है। शब्दों में अर्थ (विषय) की अभिव्यक्ति की पशुओं के ध्वनि-संकेत और शारीरिक संकेत की अपेक्षा मनुष्य के सामर्थ्य सीमित और सापेक्ष ही है, असीमित या पूर्ण और निरपेक्ष नहीं। शब्द-संकेतों में भावाभिव्यक्ति एवं विषयाभिव्यक्ति की सामर्थ्य काफी "प्रेम" शब्द प्रेम नामक भावना को अभिव्यक्ति तो देता है, किन्तु उसमें व्यापक हैं, किन्तु उसकी भी अपनी सीमाएं हैं। भाषा की और शब्द प्रेम की अनुभूति की सभी गहराइयां समाविष्ट नहीं हैं। प्रेम के विविध संकेत की इन सीमाओं पर दृष्टिपात करना अति आवश्यक है। क्योंकि रूप हैं। प्रेम-अनुभूति की प्रगाढ़ता के अनेक स्तर हैं। अकेला प्रेम शब्द विश्व में वस्तुओं, तथ्यों एवं भावनाओं की जो अनन्तता है उसकी उन सबका वाचक तो नहीं हो सकता। एक प्रेमी अपनी प्रेयसी से, एक अपेक्षा हमारा शब्द-भण्डार अत्यन्त सीमित हैं। एक “लाल" शब्द को पत्र अपनी माता से, एक भाई अपने भाई से, एक मित्र अपने मित्र से ही लीजिए। वह लाल नामक रंग का वाचक है, किन्तु लालिमा की "मैं तुमसे प्रेम करता हूँ" इस पदावली का कथन करते हैं, किन्तु क्या अनेक कोटियां हैं, अनेक अंश (डिग्रीज) हैं, अनेक संयोग (कोम्बिनेशन) उन सभी व्यक्तियों के संदर्भ में इस पदावली का एक ही अर्थ होगा? हैं। क्या एक ही "लाल" शब्द भिन्न प्रकार की लालिमाओं का वाचक वे सब समान पदावली का उपयोग करते हुए भी जिस भाव-प्रवणता हो सकता है। एक और उदाहरण लीजिए-एक व्यक्ति जिसने गुड़ के की अभिव्यक्ति कर रहे हैं, वह भिन्न-भिन्न ही है। दो भिन्न संदर्भो में और स्वाद का अनुभव किया है, उस व्यक्ति से जिसने कभी गुड़ के स्वाद दो भिन्न व्यक्तियों के लिए एक ही संदर्भ में एक शब्द का एक ही अर्थ का अनुभव नहीं किया हैं, जब यह कहता है कि गुड़ मीठा होता है तो नहीं हो सकता है। मात्र यही नहीं, एक ही पदावली के संदर्भ में वक्ता क्या श्रोता उससे मीठेपन की उसी अनुभूति को ग्रहण करेगा जिसे वक्ता
और श्रोता दोनों की भाव-प्रवणता और अर्थ-ग्राहकता भिन्न-भिन्न भी हो ने अभिव्यक्त किया हैं। गुड़ की मिठास की एक अपनी विशिष्टता है सकती है। अर्थ बोध न केवल शब्द-सामर्थ्य पर निर्भर है, अपितु श्रोता उस विशिष्टता का ग्रहण किसी दूसरे व्यक्ति को तब तक ठीक वैसा ही की योग्यता पर भी निर्भर है वस्तुत: अर्थबोध के लिए पहले शब्द और नहीं हो सकता है, जब तक कि उसने स्वयं गुड़ के स्वाद की अनुभूति उसके अर्थ (विषय) में एक संबंध जोड़ लिया जाता है। बालक को जब नहीं की हो। क्यों कि शब्द सामान्य होता है, सत्ता विशेष होती है। भाषा सिखाई जाती है तो शब्द के उच्चारण के साथ उसे वस्तु को · सामान्य विशेष का संकेतक हो सकता है, लेकिन उसका समग्र दिखाते हैं। धीरे-धीरे बालक उनमें सम्बन्ध जोड़ लेता है और जब भी निर्वचन नहीं कर सकता है। शब्द अपने अर्थ (विषय) को मात्र सूचित उस शब्द को सुनता है या पढ़ता है तो उसे उस अर्थ (विषय) का बोध करता है, शब्द और उसके विषय में तद्रूपता नहीं है, शब्द को अर्थ हो जाता है, अत: अपने विषय का अर्थ बोध करा देने की शक्ति भी (मिनिंग) दिया जाता है। इसीलिए बौद्धों ने शब्द को विकल्पयोनि मात्र शब्द में नहीं, अपितु श्रोता या पाठक के पूर्व संस्कारों में भी रही (विकल्पयोनयः शब्दाःन्यायकुमुदचन्द्र,पृ० ५३७) कहा है। शब्द अपने हुई है अर्थात् वह श्रोता या पाठक की योग्यता पर भी निर्भर है। यही अर्थ या विषय का वाचक होते हुए भी उसमें और उसके विषय में कोई कारण है कि अनसीखी भाषा के शब्द हमें कोई अर्थ बोध नहीं दे पाते समानता नहीं है। यहां तक कि उसे अपने विषय का सम्पूर्ण एवं यथार्थ हैं। इसीलिए जैन दार्शनिक मीमांसा दर्शन के शब्द में स्वत: अर्थबोध चित्र नहीं कहा जा सकता। यद्यपि शब्द में श्रोता की चेतना में शब्द और देने की सामर्थ्य का खण्डन करते हैं। अनेक प्रसंगों में वक्ता का आशय अर्थ के पूर्व संयोजन के आधार पर अपने अर्थ (विषय) का चित्र कुछ और होता है और श्रोता उसे कुछ और समझ लेता है, अत: यह उपस्थित करने की सामर्थ्य तो होती है, किन्तु यह सामर्थ्य भी श्रोता मानना होगा कि शब्द और अर्थ में वाचक-वाच्य सम्बन्ध होते हए भी सापेक्ष है। वह सम्बन्ध श्रोता या पाठक सापेक्ष है, निरपेक्ष नहीं। अन्यथा दो व्यक्तियों के द्वारा एक ही पदावली का भिन्न-भिन्न रूप में अर्थ ग्रहण सत्ता कितनी वाच्य कितनी अवाच्य? करना कभी संभव ही नहीं होता।
इस प्रकार भाषा या शब्द-संकेत अपने विषयों के अपने दूसरी बात यह है कि अपने विषय का वाचक होने की शक्ति अर्थों के संकेतक तो अवश्य हैं, किन्तु उनकी अपनी सीमाएं भी हैं। भी सीमित ही है। शब्द शक्ति की सीमितता का कारण यह है कि इसीलिए सत्ता या वस्तु-तत्त्व किसी सीमा तक वाच्य होते हुए भी अनुभूतियों की एवं भावनाओं की जितनी विविधताएं हैं, उतने शब्द अवाच्य बना रहता है। वस्तुत: जब जीवन की सामान्य अनुभूतियों और नहीं हैं। अपने वाच्य विषयों की अपेक्षा शब्द संख्या और शब्द शक्ति भावनाओं को शब्दों एवं भाषा के द्वारा पूरी तरह से अभिव्यक्त नहीं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org