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जैन दर्शन के 'तर्क प्रमाण' का आधुनिक सन्दर्भो में मूल्यांकन
१८३ विकल्प ज्ञान को व्याप्ति ग्रहण का आधार मानता हैं यह सही है। कि सहायता प्राप्त होती है किन्तु इससे उस प्रमाण की स्वतन्त्रता पर कोई निर्विकल्प प्रत्यक्ष अविचारक होने से व्याप्ति का ग्रहण नहीं कर सकता बाधा नहीं होती। अनुमान के लिए भी प्रत्यक्ष और व्याप्ति सम्बन्ध की किन्तु उस पर आधारित विकल्प व्याप्ति का ग्रहण करता है। किन्तु यदि अपेक्षा होती है, किन्तु इससे उसके स्वतन्त्र प्रमाण होने में कोई बाधा निर्विकल्प प्रत्यक्ष के द्वारा गृहीत विषय तक ही विकल्प की प्रवृत्ति है नहीं आती। जैन दार्शनिकों की विशेषता यह है कि वे तर्क को केवल तो भी उसमें व्याप्ति ज्ञान सम्भव नहीं है। यदि वह विकल्प निर्विकल्प शंका का निवर्तक ही नहीं, अपितु ज्ञान प्रदान करने वाला भी मानते हैं। प्रत्यक्ष की अपेक्षा नहीं रखता है और उसका विषय उससे व्यापक हो अत: वह स्वतन्त्र प्रमाण है। जैन दर्शन और न्याय दर्शन में तर्क की सकता है तो निश्चय ही उसमें व्याप्ति ग्रहण माना जा सकता है। महत्ता को लेकर मात्र विवाद इतना ही है कि जहाँ न्याय दर्शन तर्क का
यदि हम उस विकल्प को प्रमाण मानते हैं तो हमें उसे प्रत्यक्ष कार्य निषेधात्मक मानता है वहाँ जैन दर्शन में तर्क का विधायक कार्य और अनुमान से अलग ही प्रमाण मानना होगा और ऐसी स्थिति में भी स्वीकार किया है। उसका स्वरूप वही होगा जिसे जैन दार्शनिक तर्क प्रमाण कहते हैं। यदि पाश्चात्य निगमनात्मक न्याय युक्ति में प्रामाणिक निष्कर्ष की हम उस विकल्प ज्ञान को प्रमाण नहीं मानते हैं तो व्याप्ति प्रामाणिक प्राप्ति के लिए कम से कम एक आधार वाक्य का सामान्य होना नहीं होगी। अप्रामाणिक ज्ञान से चाहे यथार्थ व्याप्ति प्राप्त भी हो जाये आवश्यक है, किन्तु ऐसे सामान्य वाक्य की, जो कि दो तथ्यों के बीच किन्तु उसे प्रमाण नहीं मान सकते। यह ठीक ऐसा ही होगा जैसे कि स्थित कार्य-कारण सम्बन्ध पर आधारित होता है, की स्थापना कौन असत्य आधार वाक्य से सत्य निष्कर्ष प्राप्त करना। इसलिए जैन करे? इसके लिए उस आगमनात्मक तर्कशास्त्र का विकास हुआ जो कि दार्शनिकों ने व्यंग्य में इसे हिजड़े से सन्तान उत्पन्न करने की आशा ऐन्द्रिक अनुभवों पर आधारित था किन्तु ऐन्द्रिक अनुभववाद (प्रत्यक्षकरने के समान माना है।
वाद) और उसी भित्ति पर स्थित मिल की अन्वय व्यतिरेक आदि की वैशेषिकों ने प्रत्यक्ष के फलस्वरूप होने वाले ऊहापोह को पाँचों आगमनिक विधियाँ भी निर्विवाद रूप से कार्य करण सम्बन्ध पर व्याप्ति ग्रहण का साधन माना है। यदि इस ऊहापोह का विषय मात्र आधारित सामान्य वाक्य की स्थापना में असफल ही रही हैं। श्री कोहेन प्रत्यक्ष ज्ञान अथवा स्मृति रहती है तो फिर उसमें भी कोई विशिष्टता एवं श्री हेगेल अपनी पुस्तक (Logic and Scientific Method में नहीं रहती है क्योंकि उसका विषय प्रत्यक्ष जितना सीमित ही रहता है। मिल की आगमनात्मक युक्तियों की अक्षमता को स्पष्ट करते हुए यदि इस ऊहापोह का विषय प्रत्यक्ष से व्यापक है, तो उसे अपनी इस लिखते हैं-The cannons of experimental inquiry are not thereविशिष्टता के कारण एक अन्य प्रमाण ही मानना होगा और यहाँ वह fore capable of demonstrating any casual laws. The exजैन दर्शन के तर्क प्रमाण से भिन्न नहीं कहा जा सकेगा।
perimental methods areneither methods of proof nor methन्याय दार्शनिकों ने तर्क सहकृत भूयो दर्शन को व्याप्ति ods of discovery (P.266-67) वस्तुत: कोई भी अनुभवात्मक पद्धति ग्राहक साधन माना है। वाचस्पति मिश्र ने न्यायवार्तिक तात्पर्य टीका में जो निरीक्षण या प्रयोग पर आधारित होगी एक अधिक यक्तिसंगत इसे स्पष्ट किया है कि अकेले प्रत्यक्ष से व्याप्ति का ग्रहण नहीं होता प्राक्कल्पना से अधिक कुछ नहीं प्रदान कर सकती है। ह्यूम तो अनुभववाद अपितु तर्क सहित प्रत्यक्ष से व्याप्ति का ग्रहण होता है क्योंकि व्याप्ति की इस अक्षमता को बहुत पहले ही प्रकट कर चुका था अतः पाश्चात्य उपाधिविहीन स्वाभाविक सम्बन्ध है चूँकि भयो दर्शन या प्रत्यक्ष से तर्कशास्त्र में आगमनात्मक कुदान (Inductive leap) की जो समस्या सकल उपाधियों का उन्मूलन सम्भव नहीं है, अत: इस हेतु एक नवीन अभा भा बना हुई है उस भा जन दर्शन के इस तक प्रमाण को अन्त: उपकरण की आवश्यकता होगी और वह उपकरण तर्क है। किन्त यह प्रज्ञात्मक पद्धति के आलोक में सुलझाने का एक प्रयास अवश्य किया अकेला प्रत्यक्ष व्याप्ति ग्रहण में समर्थ नहीं है तो ऐसी स्थिति में व्याप्ति जा सकता है। वस्तुतः आगमन के क्षेत्र में विशेष से सामान्य की ओर का ग्राहक अन्तिम साधन तर्क को ही मानना होगा। यद्यपि यह सही है जाने के लिए जिन आगमनात्मक कुदान की आवश्यकता होती है- तर्क कि तर्क प्रत्यक्ष के अनुभवों को साधक अवश्य बनाता है किन्त व्याप्ति उसी का प्रतीक है वह विशेष और सामान्य के बीच की खाई के लिए का ग्रहण प्रत्यक्ष से नहीं होकर तर्क से ही होता है इसलिए तर्क के एक पुल का काम करता है जिसके माध्यम से हम प्रत्यक्ष से व्याप्ति महत्त्व को स्वीकार करना होगा तर्क को प्रमाण की कोटि में स्वीकार न ज्ञान की ओर तथा विशेष से सामान्य की ओर बढ सकते हैं। कर, उसकी महत्ता को अस्वीकार करना, कृतघ्नता ही होगी। इसीलिए आचार्य हेमचन्द्र ने व्यंग्य करते हुए कहा था कि यह तो तपस्वी के यश संदर्भ को समाप्त करने जैसा ही है।
१. से किं तं प्रमाण? प्रमाणे चउविहे पण्णते तं जहा पच्चवक्खे, जहाँ तक इस बात का प्रश्न है कि तर्क प्रत्यक्ष की सहायता
अणुमाणे ओवम्मे, आगमे, जहा अणुओगद्वारे। से ही व्याप्ति का ग्रहण करता है तो जैन दार्शनिकों का इससे कोई
-भगवती ५/४/१९१-१९२ विरोध नहीं है। उन्होंने तर्क की परिभाषा में ही इस बात को स्वीकार कर २. तिविहे व्यवसाए पण्णते तं जहाँ-पच्चक्खे, पच्चइए, अनुगामिए। लिया है कि प्रत्यक्ष आदि के निमित्त से तर्क की प्रवृत्ति होनी है। यह
-स्थानांग १८५ भी सही है कि प्रत्येक परवर्ती प्रमाण को अपने पूर्ववर्ती प्रमाण की
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