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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ (ज्ञान) होता है।
इस सम्बन्ध में मीमांसक प्रभाकर ने कहा है कि पदों के दो
कार्य होते हैं प्रथम-अपने अर्थ का कथन करना और दूसरा पदान्तर के अन्विताभिधानवाद की समीक्षा
अर्थ में गमक व्यापार अर्थात् उनका स्मरण कराना। अत: अन्विताभिधानवाद प्रभाचन्द्र अपने ग्रन्थ प्रमेयकमलमार्तण्ड में अन्विताभिधानवाद मानने में कोई आपत्ति नहीं होना चाहिए। किन्तु जैनों की दृष्टि में उनका के विरुद्ध निम्न आक्षेप प्रस्तुत करते हैं
यह मानना भी तर्क-संगत नहीं है, क्योंकि पद-व्यापार से अर्थ-बोध प्रथमत: यदि यह माना जाता है कि वाक्य के पद परस्पर समान होने पर भी किसी को अभिधीयमान और किसी को गम्यमान अन्वित अर्थात् एक दूसरे से सम्बन्धित होकर ही अनुभूत होते हैं मानना उचित नहीं है। अर्थात् अन्वित रूप में ही उनका अभिधान होता है तो फिर प्रथम पद पुन: प्रभाचन्द्र का प्रश्न यह है कि बुद्धिमान व्यक्ति पद का के श्रवण से वाक्यार्थ का बोध हो जाना चाहिए। ऐसी स्थिति में अन्य प्रयोग पद के बोध के लिए करते हैं या वाक्यार्थ बोध के लिए। पद के पदों का उच्यारण ही व्यर्थ हो जायेगा। साथ ही प्रथम पद को वाक्यत्व अर्थ बोध के लिए तो कर नहीं सकते क्योंकि पद प्रवृत्ति का हेतु नहीं प्राप्त हो जायेगा अथवा वाक्य का प्रत्येक पद स्वतन्त्र रूप से वाक्यत्व हैं। यदि दूसरा विकल्प कि पद का प्रयोग वाक्य के अर्थबोध के लिए को प्राप्त कर लेगा। क्योंकि पूर्वापर पदों के परस्पर अन्वित होने के करते हैं- यह माना जावे तो इससे अन्विताभिधानवाद की ही पुष्टि कारण एक पद के श्रवण से ही सम्पूर्ण वाक्यार्थ का बोध हो जायेगा। होगी। इसके प्रत्युत्तर में जैनाचार्य प्रभाचन्द्र कहते हैं कि 'वृक्ष पद के प्रभाचन्द्र के इस तर्क के विरोध में यदि अन्विताभिधानवाद की ओर से प्रयोग से शाखा, पल्लव आदि से युक्त अर्थ का बोध होता है। उस यह कहा जाये कि अविवक्षित (अवांछित) पदों के व्यवच्छेद (निषेध) अर्थ बोध से 'तिष्ठति' (खड़ा है) इत्यादि पद स्थान आदि विषय का के लिए अन्य पदों का उच्चारण व्यर्थ नहीं माना जा सकता है तो सामर्थ्य से बोध कराते हैं। स्थान आदि के अर्थबोध में 'वृक्ष' पद की उनका प्रत्युत्तर यह होगा कि ऐसी स्थिति में अन्वित प्रथम पद के द्वारा साक्षात् प्रवृत्ति नहीं होने से उसे उस अर्थ-बोध का कारण नहीं माना जा जो प्रतिपत्ति (अर्थबोध) हो चुकी है, वाक्य के अन्य पदों के द्वारा मात्र सकता है। यदि यह माना जाए की वृक्षपद 'तिष्ठति' पद के अर्थ-बोध उसकी पुनरुक्ति होगी अतः पुनरुक्ति का दोष तो होगा ही। यद्यपि यहाँ में परम्परा से अर्थात् परोक्षरूप से कारण होता है तो मानना इसलिए अपने बचाव के लिए अन्विताभिधानवादी यह कह सकते हैं कि प्रथम समुचित नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर यह भी मानना होगा कि हेतु पद के द्वारा जिस वाक्यार्थ का प्रधान रूप से प्रतिपादन हुआ है अन्य वचन की साध्य की प्रतिपत्ति में प्रवृत्ति होती है और ऐसी स्थिति में पद उसके सहायक के रूप में गौण रूप से उसी अर्थ का प्रतिपादन अनुमान-ज्ञान भी शाब्दिक कहलायेगा, जो कि तर्कसंगत नहीं है। करते हैं। अत: यहाँ पुनरुक्ति का दोष नहीं होता है किन्तु जैनों को पुन: मीमांसक प्रभाकर यदि यह कहें कि हेतुवाचक शब्द से उनकी यह दलील मान्य नहीं है।
होने वाली हेतु की प्रतीति ही शब्द-ज्ञान है, शब्द से ज्ञात हेतु के द्वारा अन्विताभिधानवादी प्रभाकर की यह मान्यता भी समुचित जो साध्य का ज्ञान होता है उसे शाब्दिक ज्ञान न मानकर अनुमान ही नहीं है कि पूर्व पदों के अभिधेय अर्थों से अन्वित अन्तिम पद के मानना होगा अन्यथा अतिप्रसंग दोष होगा तो जैन दार्शनिक प्रत्युत्तर में उच्चारण से ही वाक्यार्थ का बोध होता है। इस सम्बन्ध में जैनतार्किक कहेंगे कि फिर वृक्ष शब्द से स्थानादि की प्रतीत में भी अतिप्रसंग दोष प्रभाचन्द्र का कहना है कि जब सभी पद परस्पर अन्वित हैं तो फिर यह तो मानना होगा। क्योंकि जिस प्रकार हेतु शब्द का व्यापार अपने अर्थ मानने का क्या आधार है कि केवल अन्तिम पद के अन्वित अर्थ की (विषय) की प्रतीति कराने तक ही सीमित है उसी प्रकार वृक्ष शब्द को प्रतिपत्ति से ही वाक्यार्थ का बोध होता है और अन्य पदों के अर्थ की भी अपने अर्थ की प्रतीति तक ही सीमित मानना होगा। प्रतिपत्ति से वाक्यार्थ का बोध नहीं होता है।
दूसरी आपत्ति यह है कि विशेष्यपद विशेष्य को विशेषणप्रभाकर अपने अन्विताभिधानवाद के पक्ष में यह तर्क दे सामान्य से, या विशेष-विशिष्ट से या विशेषण-सामान्य और विशेष सकते हैं कि उच्चार्यमान पद का अर्थ अभिधीयमानपद (जाना गया) से (उभय) से अन्वित कहता है। प्रथम विकल्प अर्थात् विशेष्य विशेषण अन्वित न होकर गम्यमान अर्थात् पदान्तरों से गोचरीकृत पद से सामान्य से अन्वित करके होता है? यह मानने पर विशिष्ट वाक्यार्थ अन्वित होता है। दूसरे शब्दों में प्रत्येक पूर्व-पूर्व पद अपने उत्तरपद से की प्रतिपत्ति सम्भव नहीं है- क्योंकि विशेष्य पद का सामान्य-विशेषण अन्वित होता है अत: किसी एक पद से ही वाक्यार्थ का बोध होना से अन्वित होने पर विशेष-वाक्यार्थ का बोध सम्भव नहीं होगा। दूसरा सम्भव नहीं होगा। उनकी इस अवधारणा की समालोचना में जैनों का विकल्प मानने पर निश्चयात्मक-ज्ञान नहीं होगा-क्योंकि (मीमांसकों के तर्क यह है कि प्रत्येक पूर्वपद का अर्थ केवल अपने उत्तरपद से अन्वित अनुसार) शब्द से जिसका निर्देश किया गया है, ऐसे प्रतिनियत होता है ऐसा मानना उचित नहीं है क्योंकि अन्वय/सम्बद्धता सापेक्ष विशेषण से अपने उक्त विशेष्य में अन्वय करने में संशय उत्पन्न होगा होती है अत: उत्तरपद भी पूर्वपद से अन्वित होगा। अत: केवल अन्तिम क्योंकि विशेष्य में दूसरे अनेक विशेषण भी सम्भव हैं अत: अपने इस पद से ही वाक्यार्थ का बोध इस अन्विताभिधानवाद सिद्धान्त की दृष्टि विशेष्य में अमुक विशेषण ही अन्वित है, ऐसा निश्चय नहीं हो सकेगा। से तो तर्क-संगत नहीं कहा जा सकता है।
यदि पूर्वपक्ष अर्थात् मीमांसक प्रभाकर की ओर से यह कहा जाये कि
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