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जैन वाक्य दर्शन
१५१ किस आधार पर होता है? क्या वाक्य से बाह्य किन्हीं अन्य शब्दों/पदों द्रव्य वाक्य में शब्द अलग-अलग होते हैं किन्तु भाव वाक्य (बुद्धि) में के द्वारा इनका अन्वय या पारस्परिक सम्बन्ध स्थापित होता है या बुद्धि वे परस्पर सम्बन्धित या अन्वित होते हैं। (ज्ञान) के द्वारा इनका अन्वय होता है? प्रथम विकल्प मान्य नहीं है। यहाँ हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि चाहे वाक्यों से क्योंकि सम्पूर्ण पदों के अर्थों को विषय करने वाला ऐसा कोई अन्वय पृथक् शब्दों का अपना अर्थ होता हो, किन्तु जब वे वाक्य में प्रयुक्त का निमित्त भूत अन्य शब्द ही नहीं है, पुन: जो शब्द/पद वाक्य में किये गये हों, तब उनका वाक्य से स्वतन्त्र कोई अर्थ नहीं रह जाता है। अनुपस्थित हैं, उनके द्वारा वाक्यस्थ पदों का अन्वय नहीं हो सकता है। उदाहरण के रूप में शतरंज खेलते समय उच्चरित वाक्य 'राजा मर यदि दूसरे विकल्प के आधार पर यह माना जाये कि ये बुद्धि के द्वारा गया' या मैं तुम्हारे राजा को मार दूंगा' में पदों के वाक्य से स्वतंत्र अन्वित होते हैं या बुद्धितत्त्व इनमें अन्वय/सम्बन्ध स्थापित करता है तो अपने निजी अर्थ से वाक्यार्थ बोध में कोई सहायता नहीं मिलती है। इससे कुमारिल का अभिहितान्वयवाद सिद्ध न होकर उसका विरोधी यहाँ सम्पूर्ण वाक्य का एक विशिष्ट अर्थ होता है जो प्रयुक्त शब्दों/पदों सिद्धान्त अन्विताभिधानवाद ही सिद्ध होता हैं क्योंकि पदों के परस्पर के पृथक् अर्थों पर बिलकुल ही निर्भर नहीं करता है। अत: यह मानना अन्वितरूप में देखनेवाली बुद्धि तो स्वयं ही भाववाक्यरूप है। यद्यपि कि वाक्यार्थ के प्रति अनन्वित पदों के अर्थ ही कारणभूत हैं, न्यायसंगत कुमारिल की ओर से यह कहा जा सकता है कि चाहे वाक्य अपने नहीं है। परस्पर अन्वित पदों से भिन्न नहीं हो क्योंकि वह उन्हीं से निर्मित होता है, किन्तु उसके अर्थ का बोध तो उन अनन्वित पदों के अर्थ के बोध अन्विताभिधानवाद पूर्वपक्ष पर ही निर्भर करता है, जो सापेक्ष बुद्धि में परस्पर सम्बन्धित या मीमांसा दर्शन के दूसरे प्रमुख आचार्य प्रभाकर के मत को अन्वित प्रतीत होते हैं। इस सम्बन्ध में प्रभाचन्द्र का तर्क यह है कि पद अन्विताभिधानवाद कहा गया है।जहाँ कुमारिल भट्ट अपने अभिहितान्वयवाद अपने धातु, लिंग, विभक्ति, प्रत्यय आदि से भिन्न नहीं है, क्योंकि जब में यह मानते हैं कि वाक्यार्थ के बोध में पहले पदार्थ अभिहित होता हो वे कहे जाते हैं तब अपने अवयवों सहित कहे जाते हैं और उनके अर्थ और उसके बाद उनके अन्वय से वाक्यार्थ का बोध होता है- वहाँ का बोध उनके परस्पर अन्वित अवयवों के बोध से होता है, अर्थात् प्रभाकर अन्विताभिधानवाद में यह मानते हैं कि अन्वित पदार्थों का ही हमें जो बोध होता है वह अन्वितों का होता है, अनन्वितों का नहीं होता अभिधा शक्ति से बोध होता है। वाक्य में पद परस्पर सम्बन्धित होकर है। इसके प्रत्युत्तर में अपने अभिहितान्वयवाद के समर्थन हेतु कुमारिल ही वाक्यार्थ का बोध कराते हैं। इनके पारस्परिक सम्बन्ध के ज्ञान यह तर्क दे सकते हैं कि लोक व्यवहार एवं वेदों में वाक्यार्थ की (अन्वय) से ही वाक्यार्थ का बोध होता है। वाक्य से प्रयुक्त पदों का प्रतिपत्ति के लिए निरंश शब्द/पद का प्रयोग होता है केवल उनकी सामूहिक एक समग्र अर्थ होता है। वाक्य से पृथक् उनका कोई अर्थ धातु, लिंग, विभक्ति या प्रत्यय का नहीं; धातु, लिंग, विभक्ति, प्रत्यय नहीं होता है। आदि तो उनकी व्युत्पत्ति समझाने के लिए उनसे पृथक किये जाते हैं। इस सिद्धान्त में पद से पदार्थ बोध के पश्चात् उनके अन्वय एक शब्द एक वर्ण के समान अन्वयव (निरंश) होता है, उसके अर्थ को न मानकर वाक्य को सुनकर सीधा अन्वित पदार्थों का ही बोध को समझने के लिए कल्पना के द्वारा उसके अवयवों को एक दूसरे से माना गया है इसलिए इस सिद्धान्त में तात्पर्य-आख्या-शक्ति की भी पृथक् किया जाता है। कुमारिल के इस तर्क के विरुद्ध प्रभाचन्द्र का आवश्यकता नहीं मानी गई है। इस मत के अनुसार पदों को सुनकर कहना है कि जिस आधार शब्द को अपने अर्थबोध के लिए निरंश या संकेत ग्रहण केवल अनन्वित पदार्थ में नहीं होता है, अपितु किसी के अखण्ड इकाई माना जा सकता है उसी आधार पर वाक्य को भी निरंश साथ अन्वित या सम्बन्धित पदार्थ में ही होता है। अतएव अभिहित का माना जा सकता है और यह कहा जा सकता है कि वाक्य की संरचना अन्वय न मानकर अन्वित का अभिधान मानना चाहिए, यही इस बात को स्पष्ट करने के लिए शब्दों को (कल्पना में) पृथक् किया जाता है। का सार है। यह मत मानता है कि वाक्यार्थ वाक्य ही होता है, तात्पर्य वस्तुत: वाक्य अखण्ड इकाई है। लोक व्यवहार में एवं वेदों में वाक्यों शक्ति से वाद को प्रतीत नहीं होता है। का प्रयोग इसलिए किया जाता है कि पदार्थों की प्राप्ति या अप्राप्ति के
उदाहरण के रूप में ताश खेलते समय उच्चरित वाक्य- 'ईंट लिए क्रिया की जा सके। वाक्य ही क्रिया का प्रेरक होता है, पद नहीं। चलो' के अर्थबोध में प्रथम पदों के अर्थ का बोध और फिर उनके अत: वाक्य एक इकाई है।
अन्वय से वाक्यार्थ का बोध नहीं होता है अपितु सीधा ही वाक्यार्थ का इस प्रकार प्रभाचन्द्र इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि जिस बोध होता है, क्योंकि यहाँ ईंट शब्द ईंट का वाचक न होकर ईंट की प्रकार शब्द पद से धातु, लिंग, प्रत्यय आदि आंशिक रूप से भिन्न आकृति से युक्त पत्ते का वाचक है और चलना शब्द गमन क्रिया का और आंशिक रूप से अभिन्न होते हैं उसी प्रकार पद भी वाक्य से वाचक न होकर पत्ता डालने का वाचक है। इस आधार पर अन्विताभिधान आंशिक रूप से भिन्न और आंशिक रूप से अभिन्न होता है। पद अपने की मान्यता है कि वाक्यार्थ के बोध में पद परस्पर अन्वित प्रतीत होते वाक्य के घटक पदों से अन्वित या सम्बद्ध होता है और अन्य वाक्य हैं। प्रत्येक पूर्ववर्ती पद अपने परवर्ती पद से अन्वित होकर ही वाक्यार्थ के घटक पदों से अनन्वित, असम्बद्ध या भिन्न (अनन्वित) होता है। का बोध कराता है अत: वाक्य को सुनकर अन्वितों का ही अभिधान
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