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जैन वाक्य दर्शन
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सम्भव नहीं और अलग-अलग देश और काल में पदों की स्थिति मानने ही वाक्यार्थ का बोध होता है। उदाहरण रूप में जब राज मिस्त्री दीवार पर अर्थबोध में कठिनाई आती है। यद्यपि वाक्य-विन्यास में पदों का क्रम की चुनाई करते समय 'ईंट' या 'पत्थर' शब्द का उच्चारण करता है एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है किन्तु यह क्रम साकांक्ष पदों में जो कथंचित् भिन्न तो श्रोता यह समझ जाता है कि उसे ईंट या पत्थर लाने का आदेश और कथंचित् अभिन्न रूप से वाक्य में स्थित हैं, ही सम्भव है। दिया गया है। यहाँ प्रथम पद का उच्चारण सम्पूर्णवाक्य के अर्थ का
वहन करता है, किन्तु हमें यह समझ लेना चाहिए कि वह 'ईंट' या (६) बुद्धिग्रहीत तात्पर्य ही वाक्य है।
'पत्थर' शब्द प्रथम पद के रूप में केवल उस सन्दर्भ विशेष में ही कुछ दार्शनिकों की मान्यता है कि शब्द या शब्द-समूह वाक्य का स्वरूप ग्रहण करते हैं, उससे पृथक हो करके नहीं। राज के बाह्याकार मात्र है, वाक्यार्थ उसमें निहित नहीं है। अत: वाक्य वह द्वारा उच्चरित पत्थर शब्द 'पत्थर लाओ' का सूचक होगा, जबकि है जो बुद्धि के द्वारा ग्रहीत है। बुद्धि की विषयगत एकाग्रता से ही छात्र-पुलिस संघर्ष में प्रयुक्त पत्थर शब्द अन्य अर्थ का सूचक होगा। वाक्य बोला जाता है और उसी से वाक्य के अर्थ का ग्रहण होता अत: कारक पद केवल किसी सन्दर्भ विशेष में ही वाक्यार्थ का है। वाक्य का जनक एवं कारण बुद्धितत्त्व है। वक्ता द्वारा बोलने की बोधक होता है,सर्वत्र नहीं। इसलिए केवल आदि पद या कारक पद क्रिया तभी सम्भव है, जब उसमें सुविचारित रूप में कुछ कहने की को वाक्य नहीं कहा जा सकता। केवल 'पद' विशेष को ही वाक्य इच्छा होती है अत: बुद्धि या बुद्धितत्त्व ही वाक्य का जनक होता मान लेना उचित नहीं है, अन्यथा वाक्य में निहित अन्य पद अनावश्यक है। बुद्धि के अभाव में न तो वाक्य का उच्चारण सम्भव है और और निरपेक्ष होंगे और इस स्थिति में उनसे वाक्य बनेगा ही नहीं। पद न श्रोता के द्वारा उनका अर्थग्रहण ही सम्भव है। अत: वाक्य का सदैव साकांक्ष होते हैं और उन साकांक्ष पदों से निर्मित वाक्य ही आधार बुद्धि अनुसंहति है।
निराकांक्ष होता हैं। जैनाचार्य प्रभाचान्द्र इस दृष्टिकोण की समीक्षा करते हुए प्रश्न करते हैं कि यदि बुद्धि तत्त्व ही वाक्य का आधार है तो वह द्रव्यवाक्य (८) साकांक्ष पद ही वाक्य है है या भाववाक्य । बुद्धि को द्रव्यवाक्य कहना तर्कसंगत नहीं है, कुछ विचारकों के अनुसार वाक्य का प्रत्येक पद वाक्य के क्योंकि द्रव्यवाक्य तो शब्द ध्वनिरूप है, अचेतन है और बुद्धितत्व अंग के रूप में साकांक्ष होते हुए भी अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखता है। चेतन है अत: दोनों में विरोध है। अत: बुद्धि को द्रव्यवाक्य नहीं माना इस मत में प्रत्येक पद का व्यक्तित्व स्वतन्त्र रूप से स्वीकार किया जाता जा सकता । पुनः यदि यह माने कि बुद्धितत्त्व भाववाक्य है तो फिर है। इस मत के अनुसार पदों का अपना निजी अर्थ उनके सहभूत या सिद्धसाध्यता का दोष होगा। क्योंकि बुद्धि की भाववाक्यता तो सिद्ध ही समवेत स्थिति में भी रहता है। यह मत वाक्य में पदों की स्वतन्त्र सत्ता है। बुद्धितत्त्व को भाववाक्य के रूप में ग्रहण करना जैनों को भी इष्ट है। और उनके महत्व को स्पष्ट करता है। संघातवाद से इस मत की भिन्नता इस सम्बन्ध में बुद्धिवाद और जैन दार्शनिक एकमत ही हैं। वाक्य के इस अर्थ में है कि जहाँ संघातवाद और क्रमवाद में पद को प्रमुख स्थान भावपक्ष या चेतनपक्ष को बौद्धिक मानना जैनदर्शन को भी स्वीकार्य है। और वाक्य को गौण स्थान प्राप्त होता है, वहाँ इस मत में पदों को
साकांक्ष मानकर वाक्य को प्रमुखता दी जाती है। यह मत यह मानता है (७)आद्यपद (प्रथम पद) ही वाक्य है
कि पद वाक्य के अन्तर्गत ही अपना अर्थ पाते हैं, उससे बाहर नहीं। कुछ विचारकों की मान्यता है कि वाक्य के प्रथम पद का उच्चारण ही सम्पूर्ण वाक्यार्थ को अभिव्यक्त करने की सामर्थ्य रखता वाक्य के सम्बन्ध में जैन दृष्टिकोण है। इस मत के अनुसार वक्ता का अभिप्राय प्रथमपद के उच्चारण मात्र
जैन मत भी साकांक्ष पदों के निरपेक्ष समूह को वाक्य कहता से ही स्पष्ट हो जाता है, क्योंकि अन्य पद तो विवक्षा को वहन करने है, किन्तु वह पद और वाक्य दोनों को ही समान बल देता है। जैन वाले होते हैं। वाक्यपदीय में कहा गया है कि क्रिया से यदि कारक का दार्शनिकों के अनुसार न तो पदों के अभाव में वाक्य सम्भव है और न विनिश्चय सम्भव है तो फिर कारक से क्रिया का निश्चय भी सम्भव वाक्य के अभाव में पद ही अपने विशिष्ट अर्थ का प्रकाशन करने में होगा। यह सिद्धान्त यद्यपि वाक्य में कारक पद के महत्व को स्पष्ट सक्षम होते हैं। पद वाक्य में रहकर ही अपना अर्थ पाते हैं। उससे करता है फिर भी पूर्णत: सत्य नहीं माना जा सकता। जैनाचार्य स्वतन्त्र होकर नहीं। अत: पद और वाक्य दोनों का सापेक्षिक अस्तित्व प्रभाचन्द्र का कहना है कि चाहे वाक्य का प्रथम पद अर्थात् कारकपद एवं सापेक्षिक महत्त्व है। दोनों में से कोई भी एक दूसरे के अभाव में हो अथवा अन्तिम पद अर्थात् क्रियापद हो, वे अन्य पदों की अपेक्षा अपना अर्थबोध नहीं करा सकता है। अर्थबोध कराने के लिए पद को से ही वाक्यार्थ के बोधक होते हैं। यदि एक ही पद वाक्यार्थ के बोध वाक्य सापेक्ष और वाक्य को पद सापेक्ष होना होगा। जैन मत में ऊपर में समर्थ हो तो फिर वाक्य में अन्य पदों की आवश्यकता ही नहीं रह वर्णित सभी मतों की सापेक्षिक सत्यता को स्वीकार किया जाता है जायेगी। दूसरे शब्दों में वाक्य में उनके अभाव का प्रसंग होगा। यह किन्तु किसी एक पक्ष पर अनावश्यक बल नहीं दिया जाता है। उनका सही है कि अनेक प्रसंगों में प्रथम पद (कारक पद) के उच्चारण से कहना यह है कि कोई पद और वाक्य एक दूसरे से पूर्णतया निरपेक्ष
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