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षट्जीवनिकाय में त्रस एवं स्थावर के वर्गीकरण की समस्या करती है कि कुछ आगमिक मान्यताओं के सन्दर्भ में कुन्दकुन्द श्वेताम्बर संगति बैठाई गई और कहा गया कि लब्धि की अपेक्षा से तो वायु एवं परम्परा के उत्तराध्ययन आदि प्राचीन आगमों की मान्यताओं के अधिक अग्नि स्थावर है, किन्तु गति की अपेक्षा से उन्हें उस कहा गया है। निकट हैं।
दिगम्बर परम्परा में धवला टीका में इसका समाधान यह कह कर किया यहाँ यह ज्ञातव्य है कि जहाँ एक ओर उत्तराध्ययन, उमास्वाति गया कि वायु एवं अग्नि को स्थावर कहे जाने का आधार उनकी के तत्त्वार्थसूत्र एवं कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय में स्पष्ट रूप से षट्जीवनिकाय गतिशीलता न होकर उनका स्थावर नामकर्म का उदय है। दिगम्बर में पृथ्वी, अप् (जल) और वनस्पति- ये तीन स्थावर और अग्नि, परम्परा में ही कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय के टीकाकार जयसेनाचार्य ने वायु और त्रस (द्वीन्द्रियादि)- ये तीन त्रस है, ऐसा स्पष्ट उल्लेख है। यह समन्वय निश्चय और व्यवहार के आधार पर किया। वे लिखते वहीं दूसरी और उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, उमास्वाति की प्रशमरति हैं- पृथ्वी, अप् और वनस्पति-ये तीन स्थावर नामकर्म के उदय एवं कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय जैसे प्राचीन ग्रन्थों में भी कुछ स्थलों पर से स्थावर कहे जाते हैं, किन्तु वायु और अग्नि पंचस्थावर में वर्गीकृत पृथ्वी, अप, अग्नि, वायु और वनस्पति- इन एकेन्द्रिय जीवों के एक किये जाते हुए भी चलन क्रिया दिखाई देने से व्यवहार से त्रस कहे साथ उल्लेख के पश्चात् त्रस का उल्लेख मिलता है। उनका त्रस के पूर्व जाते हैं।१६ । साथ-साथ उल्लेख ही आगे चलकर सभी एकेन्द्रियों को स्थावर मानने इस प्रकार लब्धि और गतिशीलता, स्थावर नामकर्म के उदय की अवधारणा का आधार बना है, क्योंकि द्वीन्द्रिय आदि के लिये तो या निश्चय और व्यवहार के आधार पर प्राचीन आगमिक वचनों और स्पष्ट रूप से त्रस नाम प्रचलित था। जब द्वीन्द्रियादि त्रस कहे ही जाते परवर्ती सभी एकेन्द्रिय जीवों को स्थावर मानने की अवधारणा के मध्य थे तो उनके पूर्व उल्लेखित सभी एकेन्द्रिय स्थावर हैं- यह माना समन्वय स्थापित किया गया। जाने लगा और फिर इनके स्थावर कहे जाने का आधार इनका अवस्थित रहने का स्वभाव नहीं मानकर स्थावर नामकर्म का उदय माना गया। सन्दर्भ किन्तु हमें यह स्मरण रखना होगा कि प्राचीन आगमों में इनका एक १. णेव सर्य छज्जीवणिकाय सत्यं समारंभेज्जा- आयारो (लाडनूं)१/ साथ उल्लेख इनके एकेन्द्रिय वर्ग के अन्तर्गत होने के कारण किया ७/१७६. गया है, न कि स्थावर होने के कारण। प्राचीन आगमों में जहाँ पाँच २. छज्जीवणिकायसुद्धनिरता- इसिभासियाई, २५/२ एकेन्द्रिय जीवों का साथ-साथ उल्लेख है वहाँ उसे त्रस और स्थावर का ३. छज्जीवकाये- उत्तराध्ययन, १२/४१ वर्गीकरण नहीं कहा जा सकता है- अन्यथा एक ही आगम में ४. छहं जीवनिकायाणं- दशवैकालिक, ४/९ अन्तर्विरोध मानना होगा, जो समुचित नहीं है। इस समस्या का मूल ५. संति पाणा उदयनिस्सिया जीवा अणेगा। कारण यह था कि द्वीन्द्रियादि जीवों को बस नाम से अभिहित किया इहं च खलु भो अणगाराणं उदयजीवा वियाहिया। आयारो (लाडनूं), जाता था- अत: यह माना गया कि द्वीन्द्रियादि से भिन्न सभी एकेन्द्रिय १/५४-५५ स्थावर है। इस चर्चा के आधार पर इतना तो मानना ही होगा कि ६. आयारो (लाडनूं), प्रथम अध्ययन, उद्देशक २-७ परवर्तीकाल में त्रस और स्थावर के वर्गीकरण की धारणा में परिवर्तन ७. पुढविं च आउकायं तेउकायं च वाउकायं च। हआ है तथा आगे चलकर श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में पणगाई बीय हरियाई तसकायं च सव्वसो नच्चा।। पंचस्थावर की अवधारणा दृढ़ीभूत हो गई। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि आयारो, ९/१/१२ जब वायु और अग्नि को त्रस माना जाता था, तब द्वन्द्रियादि त्रस के ८. पुढवी आउक्काए, तेऊवाऊवणस्सइतसाण। लिये उदार (उराल) त्रस शब्द का प्रयोग होता था। पहले गतिशीलता पडिलेहणापमत्तो, छण्हं पि विराहओ होइ।। की अपेक्षा से त्रस और स्थावर का वर्गीकरण होता था और उसमें वायु ९.. संसारत्था उ जे जीवा, दुविहा ते वियाहिया।
और अग्नि में गतिशीलता मानकर उन्हें त्रस माना जाता था। वायु की तसा य थावरा चेव, थावरा तिविहा तहिं।। गतिशीलता स्पष्ट थी अत: सर्वप्रथम उसे त्रस कहा गया। बाद में सूक्ष्म पुढवी आउ जीवा य तहेव य वणस्सई।। अवलोकन से ज्ञात हुआ कि अग्नि भी ईंधन के सहारे धीरे-धीरे गति इच्चेए थावरा तिविहा तेसिं भेए सुणह मे। करती हुई फैलती जाती है, अत: उसे भी त्रस कहा गया। जल की गति तेऊवाऊ य बोद्धव्वा उराला य तसा तहा। केवल भूमि के ढलान के कारण होती है स्वत: नहीं, अत: उसे पृथ्वी इच्चेए तसा तिविहा तेसिं भेए सुणह मे।। एवं वनस्पति के समान स्थावर ही माना गया। किन्तु वायु और अग्नि - उत्तराध्ययन, ३६/६८, ६९ एवं १०७ में स्वत: गति होने से उन्हें उस माना गया। पुनः आगे चलकर जब १०. इमा खलु सा छज्जीवणिया णाम अज्झयणं... तंजहा १ द्वीन्द्रिय आदि को भी त्रस और सभी एकेन्द्रिय जीवों का स्थावर मान पुढविकाइया, २ आउकाइया, ३ तेऊकाइया, ४ वाउकाइया, ५ लिया गया तो- पूर्व आगमिक वचनों से संगति बैठाने का प्रश्न वणस्सईकाइया, ६ तसकाइया। आया। अत: श्वेताम्बर परम्परा में लब्धि और गति के आधार पर यह - दशवकालिक, ४/३
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