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जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
दिगम्बर परम्परा की तत्त्वार्थ की टीकाओं में प्रायः सभी ने पृथ्वी, अप्, उसके पश्चात् जीवस्थान प्रकृति समुत्तकीर्तन (१/९-१/२८) की टीका अग्नि, वायु, वनस्पति इन पाँच को स्थावर माना है।
में तथा पंचम खण्ड के प्रकृति अनुयोगद्वार के नाम-कर्म की प्रकृतियों (५/५/१०) की चर्चा में इन तीनों ही स्थलों पर स्थावर और उस के वर्गीकरण का आधार गतिशीलता को न मानकर स्थावर नामकर्म एवं त्रस नामकर्म का उदय बताया गया है। इस सम्बन्ध में चर्चा प्रारम्भ करते हुए यह कहा गया है कि सामान्यतया स्थित रहना अर्थात् ठहरना ही जिनका स्वभाव है उन्हें ही स्थावर कहा जाता है, किन्तु प्रस्तुत आगम में इस व्याख्या के अनुसार स्थावरों का स्वरूप क्यों नहीं कहा गया ? इसका समाधान देते हुए कहा गया है कि जो एक स्थान पर ही स्थित रहे वह स्थावर ऐसा लक्षण मानने पर वायुकायिक, अग्निकायिक और जलकायिक जीवों को जो सामान्यतया स्थावर माने जाते हैं, त्रस मानना होगा, क्योंकि इन जीवों की एक स्थान से दूसरे स्थान में गति देखी जाती है। धवलाकार एक स्थान पर अवस्थित रहे वह स्थावर, इस व्याख्या को इसलिए मान्य नहीं करता है, क्योंकि ऐसी व्याख्या में वायुकायिक, अग्निकायिक और जलकायिक जीयों को स्थावर नहीं माना जा सकता, क्योंकि इनमें गतिशीलता देखी जाती है। इसी कठिनाई से बचने के लिए धवलाकार ने स्थावर की यह व्याख्या प्रस्तुत की कि जिन जीवों में स्थावर नामकर्म का उदय हे वे स्थावर हैं? न कि वे स्थावर है, जो एक स्थान पर अवस्थित रहते हैं।
७. पंचास्तिकाय
कुन्दकुन्द के ग्रन्थ पंचास्तिकाय और षट्खण्डागम की धवला का दृष्टिकोण सर्वार्थसिद्धि से भिन्न है । कुन्दकुन्द अपने ग्रन्थ पंचास्तिकाय में अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि पृथ्वी, अप्, तेज (अग्नि), वायु और वनस्पति ये पाँच एकेन्द्रिय जीव हैं इन एकेन्द्रिय जीवों में पृथ्वी, अप् (जल) और वनस्पति ये तीन स्थावर शरीर से युक्त हैं और शेष अनिल और अनल अर्थात् वायु और अग्नि है। १४ इस प्रकार पाँच प्रकार के एकेन्द्रिय जीवों में कुन्दकुन्द ने केवल पृथ्वी अप् और वनस्पति इन तीन को ही स्थावर माना था, शेष को वे उस मानते थे। इस प्रकार हम देखते हैं कि कुन्दकुन्द का दृष्टिकोण भी तत्त्वार्थसूत्र के श्वेताम्बर मान्य पाठ तत्वार्थभाष्य और प्राचीन आगम उत्तराध्ययन के समान ही है। यद्यपि गाया क्रमांक ११० में उन्होंने पृथ्वी, अप, अग्नि, वायु और वनस्पति का जिस क्रम से विवरण दिया और वनस्पति का जिस क्रम से विवरण दिया है वह त्रस और स्थावर जीवों की अपेक्षा से न होकर एकेन्द्रिय एवं द्वीन्द्रिय आदि के वर्गीकरण के आधार पर है। यह गाया उत्तराध्ययनसूत्र के २६ वें अध्याय की गाथा के समान है— तुलना के रूप में पंचास्तिकाय और उत्तराध्ययन की गाथायें प्रस्तुत हैं.
पुढवी आउक्काए, तेऊवाऊ वणस्सइतसाण । पडिलेहणापमत्तो छण्हं पि विराहओ होइ ।। -उत्तराध्ययन, २६ / ३०
पुढवी य उदगमगणी वाउवणप्फदि जीवसंसिदाकाया । देति खलु मोह बहुलं फार्स बहुगा वि ते तेसिं ॥। - पंचास्तिकाय ११०
उस स्थावर के वर्गीकरण के ऐतिहासिक क्रम की दृष्टि से विचार करने पर हम पाते हैं कि सर्वप्रथम आचारांग में पृथ्वी, जल, अग्नि और वनस्पति इन चार को स्थावर और वायुकाय एवं उसकाय इन दो को त्रस माना गया होगा। उसके पश्चात् उत्तराध्ययन में पृथ्वी, जल और वनस्पति इन तीन को स्थावर और अग्नि, वायु और द्वीन्द्रियादि को त्रस माना गया है। अग्नि जो आचारांग में स्थावर वर्ग में थी, वह उत्तराध्ययन में उस वर्ग में मान ली गई वायु में तो स्पष्ट रूप -उत्तराध्ययन, ३६/६८, ६९, १०७ से गतिशलता थी, किन्तु अग्नि में गतिशीलता उतनी स्पष्ट नहीं थी। अतः आचारांग में मात्र वायु को ही त्रस (गतिशील) माना गया था। किन्तु अग्नि की ज्वलन प्रक्रिया में जो क्रमिक गति देखी जाती है, उसके आधार पर अग्नि को इस (गतिशील) मानने का विचार आया और उत्तराध्ययन में वायु के साथ-साथ अग्नि को भी त्रस माना गया। उत्तराध्ययन की अग्नि और वायु की त्रस मानने की अवधारणा की पुष्टि उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्रमूल, उसके स्वोपज्ञ भाष्य तथा कुन्दकुन्द
पंचास्तिकाय में भी की गई है। दिगम्बर परम्परा की स्थावरों और त्रस के वर्गीकरण की अवधारणा से अलग हटकर कुन्दकुन्द द्वारा उत्तराध्ययन और तत्त्वार्थसूत्र के श्वेताम्बर पाठ की पुष्टि इस तथ्य को ही सिद्ध
तसा य धावरा चेय, थावरा तिविहा तहिं । पुढवी आउजीवा य, तहेव य वणस्सई ।। तेकवाऊ च बोद्धव्वा उराला तसा तहा ।
ति थावरतणुजोगा अणिलाणल काइया य तेसु तसा । मणपरिणाम विरहिदा जीवा एइंदिया णेया ।। - पंचास्तिकाय १११
षट्खण्डागम दिगम्बर परम्परा के षट्खण्डागम की धवला टीका में त्रस और स्थावर के वर्गीकरण की इस चर्चा को तीन स्थलों पर उठाया गया है— सर्वप्रथम सत्परूपणा अनुयोगद्वार (१/१/३९) की टीका में,
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इस प्रकार स्थावर की नई व्याख्या के द्वारा धवलाकार ने न केवल पृथ्वी, अप्, वायु, अग्नि और वनस्पति इन पाँचों को स्थावर मानने की सर्वसामान्य अवधारणा की पुष्टि की, अपितु उन अवधारणाओं का संकेत और खण्डन भी कर दिया जो गतिशीलता के कारण वायु, अग्नि आदि को स्थावर न मानकर त्रस मान रही थी। इस प्रकार उसने दोनों धारणाओं में समन्वय किया है। १५
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