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अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श से २ भागों में प्रकाशित हैं। अङ्गविद्या का प्रकाशन प्राकृत टेक्स्ट स्थान पर पूर्वोक्त तीस प्रकीर्णक मानते हैं। इसके साथ दस नियुक्तियों सोसायटी की ओर से हुआ है। ये बाईस निम्न हैं
तथा यतिजीतकल्प, श्राद्धजीतकल्प, पाक्षिकसूत्र, क्षमापनासूत्र, वन्दित्तु, १. चतुःशरण, २. आतुरप्रत्याख्यान, ३. भक्तपरिज्ञा, ४.संस्तारक, तिथि-प्रकरण, कवचप्रकरण, संशक्तनियुक्ति और विशेषावश्यकभाष्य ५. तंदुलवैचारिक, ६. चन्द्रवेध्यक, ७. देवेन्द्रस्तव, ८. गणिविद्या, को भी आगमों में सम्मिलित करते हैं। ९. महाप्रत्याख्यान, १०. वीरस्तव, ११. ऋषिभाषित, १२. अजीवकल्प, इस प्रकार वर्तमानकाल में अर्धमागधी आगम साहित्य को १३. गच्छाचार, १४. मरणसमाधि, १५. तित्थोगालिय, १६. आराध- अङ्ग, उपाङ्ग, प्रकीर्णक, छेद, मूल और चूलिकासूत्र के रूप में वर्गीकृत नापताका, १७. द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, १८. ज्योतिष्करण्डक, १९.अङ्गविद्या, किया जाता है, किन्तु यह वर्गीकरण पर्याप्त परवर्ती है। १२वीं शती २०. सिद्धप्राभृत, २१. सारावली और २२. जीवविभक्ति। से पूर्व के ग्रन्थों में इस प्रकार के वर्गीकरण का कहीं उल्लेख नहीं
इसके अतिरिक्त एक ही नाम के अनेक प्रकीर्णक भी उपलब्ध मिलता है। वर्गीकरण की यह शैली सर्वप्रथम हमें आचार्य श्रीचन्द होते हैं, यथा- “आउरपच्चक्खान" के नाम से तीन ग्रन्थ उपलब्ध की 'सुखबोधा समाचारी' (ई०सन् १११२) में आंशिक रूप से उपलब्ध होते हैं। उनमें से एक तो दसवीं शती के आचार्य वीरभद्र की होती है। इसमें आगम-साहित्य के अध्ययन का जो क्रम दिया गया कृति है।
है उससे केवल इतना ही प्रतिफलित होता है कि अङ्ग, उपाङ्ग आदि इनमें से नन्दी और पाक्षिकसूत्र के उत्कालिक सूत्रों के वर्ग में की अवधारणा उस युग में बन चुकी थी। किन्तु वर्तमानकाल में जिस देवेन्द्रस्तव, तंदुलवैचारिक, चन्द्रवेध्यक, गणिविद्या, मरणविभक्ति, प्रकार से वर्गीकरण किया जाता है, वैसा वर्गीकरण उस समय तक आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान ये सात नाम पाये जाते हैं और भी पूर्ण रूप से निर्धारित नहीं हुआ था। उसमें मात्र अङ्ग-उपाङ्ग, प्रकीर्णक कालिकसूत्रों के वर्ग में ऋषिभाषित और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति ये दो नाम इतने ही नाम मिलते हैं। विशेषता यह है कि उसमें नन्दीसूत्र व पाये जाते हैं। इस प्रकार नन्दी एवं पाक्षिकसूत्र में नौ प्रकीर्णकों का अनुयोगद्वारसूत्र को भी प्रकीर्णकों में सम्मिलित किया गया है। उल्लेख मिलता है। ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समाज के कुछ सुखबोधासमाचारी का यह विवरण मुख्य रूप से तो आगम ग्रन्थों के आचार्य जो ८४ आगम मानते हैं, वे प्रकीर्णकों की संख्या १० के अध्ययन-क्रम को ही सूचित करता है। इसमें मुनि-जीवन सम्बन्धी आचार स्थान पर ३० मानते हैं। इसमें पूर्वोक्त २२ नामों के अतिरिक्त निम्न नियमों के प्रतिपादक आगम-ग्रन्थों के अध्ययन को प्राथमिकता दी गयी ८ प्रकीर्णक और माने गये हैं- पिण्डविशुद्धि, पर्यन्त-आराधना, है और सिद्धान्त ग्रन्थों का अध्ययन बौद्धिक परिपक्वता के पश्चात् योनिप्राभृत, अङ्गचूलिया, वङ्गचूलिया, वृद्धचतुःशरण, जम्बूपयन्ना और हो ऐसी व्यवस्था की गई है। कल्पसूत्र।
इसी दृष्टि से एक अन्य विवरण जिनप्रभ ने अपने ग्रन्थ जहाँ तक दिगम्बर परम्परा एवं यापनीय परम्परा का प्रश्न है, वे 'विधिमार्गप्रपा' में दिया है। इसमें वर्तमान में उल्लिखित आगमों के स्पष्टत: इन प्रकीर्णकों को मान्य नहीं करती हैं, फिर भी मूलाचार में नाम तो मिल जाते हैं, किन्तु कौन आगम किस वर्ग का है, यह उल्लेख आतुरप्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान से अनेक गाथाएँ उसके संक्षिप्त नहीं है। मात्र प्रत्येक वर्ग के आगमों के नाम एक साथ आने के कारण प्रत्याख्यान और बृहत्-प्रत्याख्यान नामक अध्यायों में अवतरित की यह विश्वास किया जा सकता है कि उस समय तक चाहे अङ्ग, उपाङ्ग गई हैं। इसी प्रकार भगवतीआराधना में भी मरणविभक्ति, आराधनापताका । आदि का वर्तमान वर्गीकरण पूर्णत: स्थिर न हुआ हो, किन्तु जैसा आदि अनेक प्रकीर्णकों की गाथाएँ अवतरित हैं। ज्ञातव्य है कि इनमें पद्मभूषण पं० दलसुखभाई का कथन है कि कौन ग्रन्थ किसके साथ अङ्ग बाह्यों को प्रकीर्णक कहा गया है।
उल्लिखित होना चाहिए ऐसा एक क्रम बन गया था, क्योंकि उसमें
अङ्ग, उपाङ्ग, छेद, मूल, प्रकीर्णक एवं चूलिकासूत्रों के नाम एक ही २ चूलिकासूत्र
साथ मिलते हैं। विधिमार्गप्रपा में अङ्ग, उपाङ्ग ग्रन्थों का पारस्परिक चूलिकासूत्र के अन्तर्गत नन्दीसूत्र और अनुयोगद्वार- ये दो ग्रन्थ सम्बन्ध भी निश्चित किया गया था। मात्र यही नहीं एक मतान्तर का माने जाते हैं। जैसा कि हम पूर्व में सूचित कर चुके हैं कि स्थानकवासी उल्लेख करते हुए उसमें यह भी बताया गया है कि कुछ आचार्य परम्परा इन्हें चूलिकासूत्र न कहकर मूलसूत्र में वर्गीकृत करती है। फिर चन्द्रप्रज्ञप्ति एवं सूर्यप्रज्ञप्ति को भगवती का उपाङ्ग मानते हैं। जिनप्रभ भी इतना निश्चित है कि ये दोनों ग्रन्थ श्वेताम्बर परम्परा के सभी सम्प्रदायों ने इस ग्रन्थ में सर्वप्रथम वाचनाविधि के प्रारम्भ में अङ्ग, उपाङ्ग, प्रकीर्णक, को मान्य रहे हैं।
छेद और मूल- इन वर्गों का उल्लेख किया है। उन्होंने विधिमार्गप्रपा ___इस प्रकार हम देखते हैं कि ११ अङ्ग, १२ उपाङ्ग, ४ मूल, को ई० सन् १३०६ में पूर्ण किया था, अत: यह माना जा सकता ६ छेद, १० प्रकीर्णक, २ चूलिकासूत्र-ये ४५ आगम श्वेताम्बर है कि इसके आस-पास ही आगमों का वर्तमान वर्गीकरण प्रचलन में मूर्तिपूजक परम्परा में मान्य हैं। स्थानकवासी व तेरापन्थी इसमें से १० आया होगा। प्रकीर्णक, जीतकल्प, महानिशीथ और पिण्डनियुक्ति- इन १३ ग्रन्थों को कम करके ३२ आगम मान्य करते हैं।
आगमों के वर्गीकरण की प्राचीन शैली .. जो लोग चौरासी आगम मान्य करते हैं वे दस प्रकीर्णकों के अर्धमागधी आगम-साहित्य के वर्गीकरण की प्राचीन शैली इससे
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