________________
५४
वाचना के पूर्व लिखी जाने लगी थीं। इस चूर्णि में प्रथम अध्ययन की दशवैकालिकनुिर्यक्ति की ५४ गाथाओं की भी चूर्णि की गई है। यह चूर्णि विक्रम की तीसरी चौथी शती में रची गई थी। इससे यह तथ्य सिद्ध हो जाता है कि नियुक्तियाँ भी लगभग तीसरी-चौथी शती की रचना हैं।
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
ज्ञातव्य है कि नियुक्तियों में भी परवर्ती काल में पर्याप्त रूप से प्रक्षेप हुआ है, क्योंकि दशवैकालिक के प्रथम अध्ययन की अगस्त्यसिंहचूर्णि में मात्र ५४ नियुक्ति गाथाओं की चूर्णि हुई है, जबकि वर्तमान में दशवैकालिकनियुक्ति में प्रथम अध्ययन की नियुक्ति में १५१ गाथाएँ हैं। अतः निर्युक्तियाँ आर्यभद्रगुप्त या गौतमगोत्री रचनाएँ हैं।
इस सम्बन्ध में एक आपत्ति यह उठाई जा सकती है कि नियुक्तियाँ बलभी वाचना के आगमपाठों के अनुरूप क्यों है? इसका प्रथम उत्तर तो यह है कि नियुक्तियों का आगम पाठों से उतना सम्बन्ध नहीं है, जितना उनकी विषयवस्तु से है और यह सत्य है कि विभिन्न वाचनाओं में चाहे कुछ पाठ-भेद रहे हों किन्तु विषयवस्तु तो वही रही है और नियुक्तियाँ मात्र विषयवस्तु का विवरण देती हैं। पुनः नियुक्तियाँ मात्र प्राचीन स्तर के और बहुत कुछ अपरिवर्तित रहे आगमों पर हैं, सभी आगम ग्रन्थों पर नहीं है और इन प्राचीन स्तर के आगमों का स्वरूप निर्धारण तो पहले ही हो चुका था । माथुरीवाचना या वलभी वाचना में उनमें बहुत अधिक परिवर्तन नहीं हुआ है। आज जो नियुक्तियाँ हैं वे मात्र आचारांग, सूत्रकृतांग, आवश्यक, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, दशाश्रुतस्कन्ध, व्यवहार, बृहत्कल्प पर हैं। ये सभी ग्रन्थ विद्वानों की दृष्टि में प्राचीन स्तर के हैं और इनके स्वरूप में बहुत अधिक परिवर्तन नहीं हुआ है। अत: वलभीवाचना से समरूपता के आधार पर नियुक्तियों को उससे परवर्ती मानना उचित नहीं है।
उपर्युक्त समग्र चर्चा से यह फलित होता है कि नियुक्तियों के कर्त्ता न तो चतुर्दशपूर्वधर आर्य भद्रबाहु हैं और न वाराहमिहिर के भाई नैमित्तिक भद्रबाहु यह भी सुनिश्चित है कि नियुक्तियों की रचना छेदसूत्रों की रचना के पश्चात् हुई है। किन्तु यह भी सत्य है कि नियुक्तियों का अस्तित्व आगमों की देवर्द्धि के समय हुई वाचना के पूर्व था । अतः यह अवधारणा भी भ्रान्त है कि नियुक्तियों विक्रम की छठी सदी के उत्तरार्द्ध में निर्मित हुई हैं। नन्दीसूत्र एवं पाक्षिकसूत्र की रचना के पूर्व आगमिक नियुक्तियाँ अवश्य थीं।
अब यह प्रश्न उठता है कि यदि नियुक्तियों के कर्ता श्रुत केवली पूर्वधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु तथा वाराहमिहिर के भाई नैमित्तिक भद्रबाहु दोनों ही नहीं थे, तो फिर वे कौन से भद्रबाहु हैं जिनका नाम निर्युक्ति के कर्त्ता के रूप में माना जाता है। नियुक्ति के कर्त्ता के रूप में भद्रबाहु की अनुश्रुति जुड़ी होने से इतना तो निश्चित है कि नियुक्तियों का सम्बन्ध किसी “भद्र” नामक व्यक्ति से होना चाहिए और उनका अस्तित्व लगभग विक्रम की तीसरी चौथी सदी के आस-पास होना चाहिए। क्योंकि नियमसार में आवश्यक की नियुक्ति, मूलाचार में नियुक्तियों के अस्वाध्याय काल में भी पढ़ने का निर्देश तथा उसमें और भगवती
Jain Education International
आराधना में नियुक्तियों की अनेक गाथाओं की नियुक्ति-गाथा के उल्लेख पूर्वक उपस्थिति, यही सिद्ध करती है कि नियुक्ति के कर्ता उस अविभक्त परम्परा के होने चाहिए जिससे श्वेताम्बर एवं यापनीय सम्प्रदायों का विकास हुआ है। कल्पसूत्र स्थाविरावली में जो आचार्य परम्परा प्राप्त होती है, उसमें भगवान् महावीर की परम्परा में प्राचीनगोत्रीय श्रुत- केवली भद्रबाहु के अतिरिक्त दो अन्य 'भद्र' नामक आचार्यों का उल्लेख प्राप्त होता है- १. आर्य शिवभूति के शिष्य काश्यपगोत्रीय आर्यभद्र और २. आर्य कालक के शिष्य गौतमगोत्रीय आर्यभद्र ।
संक्षेप में कल्पसूत्र की यह आचार्य परम्परा इस प्रकार हैमहावीर, गौतम, सुधर्मा जम्बू, प्रभव, शय्यम्भव, यशोभद्र, संभूति, विजय, भद्रबाहु ( चतुर्दशपूर्वधर), स्थूलभद्र (ज्ञातव्य है कि भद्रबाहु एवं स्थूलभद्र दोनों ही संभूतिविजय के शिष्य थे), आर्य सुहस्ति सुस्थित, इन्द्रदिन्न, आर्यदिन्न, आर्यसिंहगिरि, आर्यवज्र, आर्य वज्रसेन, आर्यरथ, आर्य पुष्यगिरि, आर्य फल्गुमित्र, आर्य धनगिरि, आर्यशिवभूति, आर्यभद्र (काश्यपगोत्रीय), आर्यकृष्ण, आर्यनक्षत्र, आर्यरक्षित, आर्यनाग, आर्यज्येष्ठिल, आर्यविष्णु, आर्यकालक, आर्यसंपलित, आर्यभद्र ( गौतमगोत्रीय), आर्यवृद्ध, आर्य संघपालित, आर्यहस्ती, आर्यधर्म, आर्यसिंह, आर्यधर्म, पाण्डिल्य (सम्भवत: स्कंदिल, जो माथुरी वाचना के वाचनाप्रमुख थे) आदि गाथाबद्ध जो स्थविरावली है उसमें इसके बाद जम्बू, नन्दिल, दुष्यगणि, स्थिरगुप्त, कुमारधर्म एवं देवर्द्धिक्षपकश्रमण के पाँच नाम और आते हैं। "
"
ज्ञातव्य है कि नैमित्तिक भद्रबाहु का नाम जो विक्रम की छठीं शती के उत्तरार्ध में हुए हैं, इस सूची में सम्मिलित नहीं हो सकता है क्योंकि यह सूची वीर निर्वाण सं. ९८० अर्थात् विक्रम सं. ५१० में अपना अन्तिम रूप ले चुकी थी।
"
इस स्थविरावली के आधार पर हमें जैन परम्परा में विक्रम की छठीं शती के पूर्वार्ध तक होने वाले भद्र नामक तीन आचार्य के नाम मिलते हैं- प्रथम प्राचीनगोत्रीय आर्य भद्रबाहु दूसरे आर्य शिवभूति के शिष्य काश्यपगोत्रीय आर्य भद्रगुप्त, तीसरे आर्य विष्णु के प्रशिष्य और आर्यकालक के शिष्य गौतमगोत्रीय आर्यभद्र। इनमें वराहमिहिर के भ्राता नैमितिक भद्रबाहु को जोड़ने पर यह संख्या चार हो जाती है। इनमें से प्रथम एवं अन्तिम को तो नियुक्तिकर्ता के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता है, इस निष्कर्ष पर हम पहुँच चुके हैं। अब शेष दो रहते हैं - १. शिवभूति के शिष्य आर्यभद्रगुप्त और दूसरे आर्यकालक के शिष्य आर्यभद्र इनमें पहले हम आर्य धनगिरि के प्रशिष्य एवं आर्य शिवभूति के शिष्य आर्यभद्रगुप्त के सम्बन्ध में विचार करेगें कि क्या वे नियुक्तियों के कर्ता हो सकते हैं?
क्या आर्यभद्रगुप्त नियुक्तियों के कर्त्ता हैं?
नियुक्तियों को शिवभूति के शिष्य काश्यपगोत्रीय भद्रगुप्त की रचना मानने के पक्ष में हम निम्न तर्क दे सकते हैं
१. नियुक्तियों उत्तर भारत के निर्मन्य संघ से विकसित श्वेताम्बर एवं यापनीय दोनों सम्प्रदायों में मान्य रही हैं, क्योंकि यापनीय
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.