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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
में परोक्षरूप से प्रत्येकबुद्ध मान लिया गया था।३५ यह स्पष्ट है कि से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक के १८ पापों का उल्लेख भी मिलता ऋषिभाषित के अधिकांश ऋषि जैन-परम्परा के नहीं थे अत: उनके है। यह अध्याय मोक्ष के स्वरूप का विवेचन भी करता है और उसे उपदेशों को मान्य रखने के लिए उन्हें प्रत्येकबुद्ध कहा गया। संग्रहणीगाथा शिव, अतुल, अमल, अव्याघात, अपुनर्भव, अपुनरावर्तन तथा शाश्वत तो उन्हें स्पष्टरूप से प्रत्येकबुद्ध कहती ही है। जैसा कि हमने पूर्व स्थान बताता है। मोक्ष का ऐसा ही स्वरूप हमें जैन-आगम-साहित्य में सूचित किया। इन्हें प्रत्येकबुद्ध कहने का प्रयोजन यही था कि इन्हें में अन्यत्र भी मिलता है। पाँच महाव्रतों और चार कषायों का विवरण जैन संघ से पृथक् मानकर भी इनके उपदेशों को प्रामाणिक माना जा तो ऋषिभाषित के अनेक अध्यायों में आया है। महाकाश्यप नामक सके। जैन और बौद्ध दोनों परम्पराओं में प्रत्येकबुद्ध वह व्यक्ति है, ९वें अध्ययन में पुण्य, पाप तथा संवर और निर्जरा की चर्चा उपलब्ध जो किसी निमित्त से स्वयं प्रबुद्ध होकर एकाकी साधना करते हुए ज्ञान होती है। इसी अध्याय में कषाय का भी उल्लेख है। नवें अध्याय प्राप्त करता है, किन्तु न तो वह स्वयं किसी का शिष्य बनता है और में कर्म आदान की मुख्य चर्चा करते हुए मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, न किसी को शिष्य बनाकर संघ व्यवस्था करता है। इस प्रकार प्रत्येकबुद्ध कषाय तथा योग को बन्धन का कारण कहा गया है जो कि जैन परम्परा किसी परम्परा या संघ व्यवस्था में आबद्ध नहीं होता है, फिर भी वह के पूर्णत: अनुरूप है। इसमें जैन परम्परा के अनेक पारिभाषिक शब्द समाज में आदरणीय होता है और उसके उपदेश प्रामाणिक माने जाते हैं। यथा उपक्रम, बद्ध, स्पृष्ट, निकाचित, निर्जीर्ण, सिद्धि, शैलेषी अवस्था,
प्रदेशोदय, विपाकोदय आदि पाये जाते हैं। इस अध्याय में प्रतिपादित ऋषिभाषित और जैनधर्म के सिद्धान्त
आत्मा की नित्यानित्यता की अवधारणा सिद्धावस्था का स्वरूप एवं ऋषिभाषित का समग्रतः अध्ययन हमें इस सम्बन्ध में विचार कर्मबन्धन और निर्जरा की प्रक्रिया जैन दर्शन के समान है। करने को विवश करता है कि क्या ऋषिभाषित में अन्य परम्पराओं इसी तरह अनेक अध्यायों में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की के ऋषियों द्वारा उनकी ही अपनी मान्यताओं का प्रतिपादन करवाया अवधारणा भी मिलती है। बारहवें याज्ञवल्क्य नामक अध्ययन में जैन गया है अथवा उनके मुख से जैन परम्परा की मान्यताओं का प्रतिपादन परम्परा के अनुरूप गोचरी के स्वरूप एवं शुद्धषणा की चर्चा मिल करवाया गया है। प्रथम दृष्टि के देखने पर तो ऐसा भी लगता है कि उनके जाती है। आत्मा अपने शुभाशुभ कर्मों का कर्ता और कृत कर्मों के मुख से जैन मान्यताओं का प्रतिपादन हुआ है। प्रो० शुबिंग और उनके फल का भोक्ता है, यह बात भी १५वें मधुरायन नामक अध्ययन में ही आधार पर प्रो० लल्लनजी गोपाल ने प्रत्येक ऋषि के उपदेशों की गयी है। सत्रहवें विदुर नामक अध्ययन में सावधयोग विरति और के प्रतिपादन के प्रारम्भिक और अन्तिम कथन की एकरूपता के आधार समभाव की चर्चा है। उन्नीसवें आरियायण नामक अध्याय में आर्य पर यह मान लिया है कि ग्रन्थकार ऋषियों के उपदेशों के प्रस्तुतीकरण ज्ञान, आर्यदर्शन और आर्यचरित्र के रूप में प्रकारान्तर से सम्यग्ज्ञान, में प्रामाणिक नहीं हैं। उसने इनके उपदेशों को अपने ही ढंग से प्रस्तुत सम्यग्दर्शन और सम्यक्चरित्र की ही चर्चा है। बाईसवाँ अध्याय धर्म करने का प्रयत्न किया है। अधिकांश अध्यायों में जैन पारिभाषिक के क्षेत्र में पुरुष की प्रधानता की चर्चा करता है तथा नारी की निन्दा पदावली यथा पंचमहाव्रत, कषाय , परिषह आदि को देखकर इस करता है। इसकी सूत्रकृतांग के इत्थिपरिण्णा नामक अध्ययन से समानता कथन में सत्यता परिलक्षित होने लगती है। उदाहरणार्थ प्रथम, नारद है। तेईसवें रामपुत्त नामक अध्याय में उत्तराध्ययन (२८/३५) के समान नामक अध्ययन में यद्यपि शौच के चार लक्षण बताये गये हैं, किन्तु ही ज्ञान के द्वारा जानने, दर्शन के द्वारा देखने, संयम के द्वारा निग्रह यह अध्याय जैन परम्परा के चातुर्याम का ही प्रतिपादन करता है। करने की तथा तप के द्वारा अष्टविध कर्म के विधुनन की बात कही वज्जीयपुत्त नामक द्वितीय अध्याय में कर्म के सिद्धान्त की अवधारणा गयी है। अष्टविध कर्म की यह चर्चा केवल जैन परम्परा में ही पायी का प्रतिपादन किया गया है। यह अध्याय जीव के कर्मानुगामी होने जाती है। पुन: चौबीसवें अध्याय में भी मोक्षमार्ग के रूप में ज्ञान, की धारणा का प्रतिपादन करता है, साथ ही मोह को दु:ख का मूल दर्शन एवं चारित्र की चर्चा है। इसी अध्याय में देव, मनुष्य, तिर्यश्च बताता है। यह स्पष्ट करता है कि जिस प्रकार बीज से अंकुर और और नारक-इन चतुर्गतियों की भी चर्चा है। पचीसवें अम्बड नामक अंकर से बीज की परम्परा चलती रहती है, उसी प्रकार से मोह से अध्याय में चार कषाय, चार विकथा, पाँच महाव्रत, तीन गुप्ति,पंच कर्म और कर्म से मोह की परम्परा चलती रहती है और मोह के समाप्त इन्द्रिय संयम, छ: जीवनिकाय, सात भय, आठ मद, नौ प्रकार का होने पर कर्म-सन्तति ठीक वैसे ही समाप्त होती है जैसे वृक्ष के मूल ब्रह्मचर्य तथा दस प्रकार के समाधिस्थान की चर्चा है। इस प्रकार इस को समाप्त करने पर उसके फल-पत्ती अपने आप समाप्त होते हैं। अध्याय में जैन परम्परा में मान्य अनेक अवधारणाएँ एक साथ उपलब्ध कर्म सिद्धान्त की यह अवधारणा ऋषिभाषित के अध्याय १३, १५, हो जाती हैं। इसी अध्याय में आहार करने के छ: कारणों की वह २४, और ३० में भी मिलती है। जैन परम्परा में इससे ही मिलता-जुलता चर्चा भी है, जो कि स्थानांग (स्थान ६१) आदि में मिलती है। स्मरण विवरण उत्तराध्ययन के बत्तीसवें अध्याय से प्राप्त होता है। इसी प्रकार रहे कि यद्यपि जैनागमों में अम्बड को परिव्राजक माना है, फिर भी तीसरे असितदेवल नामक अध्याय में हमें जैन परम्परा और विशेषरूप उसे महावीर के प्रति श्रद्धावान् बताया है।३६ यही कारण है कि इसमें से आचारांग में उपलब्ध पाप को लेप कहने की बात मिल जाती है। सर्वाधिक जैन अवधारणाएँ उपलब्ध हैं। ऋषिभाषित के छब्बीसवें अध्याय इस अध्याय में हमें पाँच महाव्रत, चार कषाय तथा इसी प्रकार हिंसा में उत्तराध्ययन के पचीसवें अध्याय के समान ही ब्राह्मण के स्वरूप
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