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पर्याय
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
जैन दार्शनिकों के अनुसार द्रव्य में घटित होने वाले विभिन्न परिवर्तन ही पर्याय कहलाते हैं। प्रत्येक द्रव्य प्रति समय एक विशिष्ट अवस्था को प्राप्त होता रहता है। अपने पूर्व क्षण की अवस्था का त्याग करता है और एक नूतन विशिष्ट अवस्था को प्राप्त होता है इन्हें ही पर्याय कहा जाता है। जिस प्रकार जलती हुई दीपशिखा में प्रति क्षण जलने वाला तेल बदलता रहता है, फिर भी दीपक यथावत् जलता रहता है उसी प्रकार प्रत्येक द्रव्य सतत रूप से परिवर्तन या परिणमन को प्राप्त होता रहता है । द्रव्य में होने वाला यह परिवर्तन या परिणमन ही उसकी पर्याय है। एक व्यक्ति जन्म लेता है, बालक से किशोर और किशोर से युवक, युवक से प्रौड़ और प्रौढ़ से वृद्धावस्था को प्राप्त होता है। जन्म से लेकर मृत्यु काल तक प्रत्येक व्यक्ति के देह की शारीरिक संरचना में तथा विचार और अनुभूति की चैतसिक संरचना में परिवर्तन होते रहते हैं। उसमें प्रति क्षण होने वाले इन परिवर्तनों के द्वारा वह जो भिन्न-भिन्न अवस्थायें प्राप्त करता है, वे ही पर्याय हैं। ज्ञातव्य है कि 'पर्याय' जैन दर्शन का विशिष्ट शब्द है। जैनदर्शन के अतिरिक्त अन्य किसी भी भारतीय दर्शन में पर्याय की यह अवधारणा अनुपस्थित है।
यहाँ हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि बाल्यावस्था से युवावस्था और युवावस्था से वृद्धावस्था की यात्रा कोई ऐसी घटना नहीं है, जो एक ही क्षण में घटित हो जाती है। बल्कि यह सब क्रमिक रूप से घटित होती रहती है, हमें उसका पता ही नहीं चलता। यह प्रति समय होने वाला परिवर्तन ही पर्याय है। पर्याय शब्द का सामान्य अर्थ अवस्था विशेष है। दार्शनिक जगत् में पर्याय का जो अर्थ प्रसिद्ध हुआ है, उससे आगम में वह किंचित् भिन्न अर्थ में प्रयोग हुआ है। दार्शनिक ग्रन्थों में द्रव्य के क्रमभावी परिणाम को पर्याय कहा गया है तथा गुण एवं पर्याय से युक्त पदार्थ को द्रव्य कहा गया है। वहाँ पर एक ही द्रव्य या वस्तु की विभिन्न पर्यायों की चर्चा है । आगम में पर्याय का निरूपण द्रव्य के क्रमभावी परिणमन के रूप में नहीं हुआ है। आगम में तो एक पदार्थ जितनी अवस्थाओं में प्राप्त होता है उन्हें उस पदार्थ की पर्याय कहा गया है जैसे जीव की पर्याय है-नारक, देव, मनुष्य तिर्यच सिद्ध आदि।
पर्याय द्रव्य की भी होती है और गुण की भी होती है गुणों की पर्याय का उल्लेख अनुयोगद्वारसूत्र में इस प्रकार हुआ है-"एक गुण काला, द्विगुण काला यावत् अनन्तगुण काला।" काले गुण की अनन्त पर्याय होती हैं। इसी प्रकार नीले, पीले, लाल एवं सफेद वर्णों की पर्याय भी अनन्त होती हैं। वर्ण की भाँति गन्ध, रस, स्पर्श के भेदों की भी एक गुण से लेकर अनन्तगुण तक पर्याय होती हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में एकत्व, पृथक्त्व, संख्या, संस्थान, संयोग और विभाग को पर्याय का लक्षण कहा है। एक पर्याय का दूसरे पर्याय के साथ द्रव्य की दृष्टि से एकत्व ( तादात्म्य) होता है, पर्याय की दृष्टि से दोनों पर्याय एक दूसरे से पृथक होती है। संख्या के आधार पर भी पर्यायों में भेद होता
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है। इसी प्रकार संस्थान अर्थात् आकृति की दृष्टि से भी पर्याय भेद होता है जिस पर्याय का संयोग (उत्पाद) होता है उसका वियोग (विनाश) भी निश्चित रूप से होता है। कोई भी द्रव्य कभी भी पर्याय से रहित नहीं होता। किन्तु पर्याव स्थिर भी नहीं रहती है वह प्रति समय परिवर्तित होती रहती है। जैन दार्शनिकों ने पर्याय परिवर्तन की इन घटनाओं को द्रव्य में होने वाले उत्पाद और व्यय के माध्यम से स्पष्ट किया है। द्रव्य में प्रति क्षण पूर्व पर्याय का नाश या व्यय तथा उत्तरपर्याय का उत्पाद होता रहता है। उत्पाद और व्यय की घटना जिसके या जिसमें आश्रित या घटित होती है या जो परिवर्तित होता है, वही द्रव्य है। जैन दर्शन के अनुसार द्रव्य और पर्याय की कथंचित् तादात्म्य इस अर्थ में है कि पर्याय से रहित होकर द्रव्य का कोई अस्तित्व ही नहीं है । द्रव्य की पर्याय बदलते रहने पर भी द्रव्य में एक क्षण के लिए भी ऐसा नहीं होता कि वह पर्याय से रहित हो न तो पर्यायों से पृथक् होकर द्रव्य अपना अस्तित्व रख सकता है और न द्रव्य से पृथक् होकर पर्याय का ही कोई अस्तित्व होता है सत्तात्मक स्तर पर द्रव्य और पर्याय अलगअलग सत्ताएँ नहीं हैं वे तत्वतः अभिन्न हैं। किन्तु द्रव्य के बने रहने पर भी पर्यायों की उत्पत्ति और विनाश का क्रम घटित होता रहता है। यदि पर्याय उत्पन्न होती है और विनष्ट होती है।, तो उसे द्रव्य से कथंचित् भिन्न भी मानना होगा। जिस प्रकार बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था व्यक्ति से पृथक् कहीं नहीं देखी जाती। वे व्यक्ति में ही घटित होती हैं। और व्यक्ति से अभिन्न होती हैं किन्तु एक ही व्यक्ति में बाल्यावस्था का विनाश और युवावस्था की प्राप्ति देखी जाती है। अतः अपने विनाश और उत्पत्ति की दृष्टि से वे पर्यायें व्यक्ति के पृथक् भी कही जा सकती हैं। वैचारिक स्तर पर प्रत्येक पर्याय द्रव्य से भिन्नता रखती है। संक्षेप में तात्विक स्तर पर या सत्ता की दृष्टि से हम द्रव्य और पर्याय को अलगअलग नहीं कर सकते, अतः वे अभिन्न हैं। किन्तु वैचारिक स्तर पर द्रव्य और पर्याय को परस्पर पृथक माना जा सकता है क्योंकि पर्याय उत्पन्न होती है और नष्ट होती है, जबकि द्रव्य बना रहता है, अत: वह द्रव्य से भिन्न भी है। जैन आचार्यों के अनुसार द्रव्य और पर्याय की यह कथंचित् अभिन्नता और कथंचित् भिन्नता वस्तु के अनेकांतिक स्वरूप की परिचायक है।
पर्याय के प्रकार
पर्यायों के प्रकारों की आगमिक आधारों पर चर्चा करते हुए द्रव्यानुयोग ( पृ०३८) पर उपाध्याय श्री कन्हैयालालजी म.सा. 'कमल' लिखते हैं कि प्रज्ञापनासूत्र में पर्याय के दो भेद प्रतिपादित हैं- (१) जीव पर्याय और (२) अजीव पर्याय ये दोनों प्रकार की पर्याय अनन्त होती हैं। जीव पर्याय किस प्रकार अनन्त होती है, इसका समाधान करते हुए कहा गया है कि नैरयिक, भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क, वैमानिक, पृथ्वीकायिक, अष्कायिक, तेजस्कायिक, वावुकायिक, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक और मनुष्य ये सभी जीव असंख्यात हैं, किन्तु वनस्पतिकायिक और सिद्ध जीव तो अनन्त हैं, इसलिए जीव पर्याय अनन्त हैं।
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