________________
जैनदर्शन में सत् का स्वरूप
१०३ हैं और उसका अन्य द्रव्य से पृथक्त्व स्थापित करते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र आचार्यों ने 'गुणाणां समूहो दव्वो' अथवा 'गुणसमुदायो द्रव्यमिति' (२८/११-१२) में जीव और पुद्गल के अनेक लक्षणों का भी चित्रण कहकर के द्रव्य को गुणों का संघात माना है। जब द्रव्य और गुण की हुआ है। उसमें ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य एवं उपयोग-ये जीव के अलग-अलग सत्ता ही मान्य नहीं है, तो वहाँ उनके तादात्म्य के लक्षण बताये गये हैं और शब्द, प्रकाश, अंधकार, प्रभा, छाया, अतिरिक्त अन्य कोई सम्बन्ध मानने का प्रश्न ही नहीं उठता है। अन्य आतप, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श आदि को पुद्गल का लक्षण कहा गया है। कोई सम्बन्ध मानने का तात्पर्य यह है कि वे एक-दूसरे से पृथक् होकर ज्ञातव्य है कि द्रव्य और गुण विचार के स्तर पर ही अलग-अलग माने अपना अस्तित्व रखते हैं। यह दृष्टिकोण बौद्ध अवधारणा से प्रभावित गये हैं लेकिन अस्तित्व की दृष्टि से वे पृथक्-पृथक् सत्ताएँ नहीं हैं। है। यह संघातवाद का ही अपररूप है जबकि जैन परम्परा संघातवाद गुणों के संदर्भ में हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि कुछ गुण को स्वीकार नहीं करती है। वस्तुत: द्रव्य के साथ गुण और पर्याय के सामान्य होते हैं और वे सभी द्रव्यों में पाये जाते हैं और कुछ गुण सम्बन्ध को लेकर तत्त्वार्थसूत्रकार ने जो द्रव्य की परिभाषा दी है, वही विशिष्ट होते हैं, जो कुछ ही द्रव्यों में पाये जाते हैं। जैसे-अस्तित्व अधिक उचित जान पड़ती है। तत्त्वार्थसूत्रकार के अनुसार जो गुण और लक्षण सामान्य है जो सभी द्रव्यों में पाया जाता है किन्तु चेतना आदि पर्यायों से युक्त है, वही (द्रव्य है)। वैचारिक स्तर पर तो गुण द्रव्य से कुछ गुण ऐसे हैं जो केवल जीव द्रव्य में पाये जाते हैं, अजीव द्रव्य में भिन्न है और उस दृष्टि से उनमें आश्रय-आश्रयी भाव भी देखा जाता है उनका अभाव होता है। दूसरे शब्दों में कुछ गुण सामान्य और कुछ किन्तु अस्तित्व के स्तर पर द्रव्य और गुण एक-दूसरे से पृथक् विशिष्ट होते हैं। सामान्य गुणों के आधार पर जाति या वर्ग की पहचान (विविक्त) सत्ताएँ नहीं हैं। अत: उनमें तादात्म्य भी है। इस प्रकार गुण होती है। वे द्रव्य या वस्तुओं का एकत्व प्रतिपादित करते हैं, जबकि और द्रव्य में कथंचित् तादात्म्य सम्बन्ध है। डॉ. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य विशिष्ट गुण एक द्रव्य का दूसरे से अन्तर स्थापित करते हैं। गुणों के जैन-दर्शन (पृ. १४४) में लिखते हैं कि गुण से द्रव्य को पृथक् नहीं सन्दर्भ में चर्चा करते हुए हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि अनेक किया जा सकता, इसलिए वे द्रव्य से अभिन्न हैं। किन्तु प्रयोजन आदि गुण सहभावी रूप से एक ही द्रव्य में रहते हैं। इसीलिए जैन दर्शन में भेद से उसका विभिन्न रूप से निरूपण किया जा सकता है, अत: वे वस्तु को अनन्त धर्मात्मक कहा गया है। गुणों के सम्बन्ध में एक अन्य भिन्न भी हैं। “एक ही पुद्गल परमाणु में युगपत् रूप से रूप, रस, गंध विशेषता है कि वे द्रव्य विशेष के विभिन्न पर्यायों में भी बने रहते हैं। आदि अनेक गुण रहते हैं। अनुभूति के स्तर पर रूप, रस, गन्ध आदि द्रव्य और गुण का सम्बन्ध
पृथक्-पृथक् गुण हैं। अत: वैचारिक स्तर पर एक गुण न केवल दूसरे कोई भी द्रव्य गुण से रहित नहीं होता। द्रव्य और गुण का गुण से भिन्न है अपितु उस स्तर पर वह द्रव्य से भी भिन्न कल्पित किया विभाजन मात्र वैचारिक स्तर पर किया जाता है सत्ता के स्तर पर नहीं। जा सकता है। पुनः गुण अपनी पूर्वपर्याय को छोड़कर उत्तरपर्याय को गुण से रहित होकर न तो द्रव्य की कोई सत्ता होती है न द्रव्य से रहित धारण करता है और इस प्रकार वह परिवर्तित होता रहता है, किन्तु गुण की। अत: सत्ता के स्तर पर गुण और द्रव्य में अभेद है जबकि उसमें यह पर्याय परिवर्तन द्रव्य से भिन्न होकर नहीं होता। पर्यायों में वैचारिक स्तर पर दोनों में भेद किया जा सकता है।
होने वाले परिवर्तन वस्तुत: द्रव्य के ही परिवर्तन हैं। पर्याय और गुण जैसा कि हमने पूर्व में सूचित किया है कि द्रव्य और गुण को छोड़कर द्रव्य का कोई अस्तित्व ही नहीं है। पर्यायों और गुणों में अन्योन्याश्रित हैं। द्रव्य के बिना गुण का अस्तित्व नहीं है और गुण के होने वाले परिवर्तनों के बीच जो एक अविच्छिन्नता का नियामक तत्त्व बिना द्रव्य का अस्तित्व नहीं है। तत्त्वार्थसूत्र (५/४०) में गुण की है, वही द्रव्य है। उदाहरण के रूप में एक पुद्गल परमाणु के रूप, रस, परिभाषा देते हुए कहा गया है कि “स्व-गुण को छोड़कर जिनका अन्य गंध और स्पर्श के गुण बदलते रहते हैं और उस गुण परिवर्तन के कोई गुण नहीं होता अर्थात् जो निर्गुण है वही गुण है।" द्रव्य और गुण परिणामस्वरूप उसकी पर्याय भी बदलती रहती है, किन्तु इन परिवर्तित के पारस्परिक सम्बन्ध को लेकर जैन परम्परा में हमें तीन प्रकार के होने वाले गुणों और पर्यायों के बीच भी एक तत्त्व है जो इन परिवर्तनों सन्दर्भ प्राप्त होते हैं। आगम ग्रंथों में द्रव्य और गुण में आश्रय-आश्रयी के बीच भी बना रहता है, वही द्रव्य है। प्रत्येक द्रव्य में प्रति समय भाव माना गया है। उत्तराध्ययन सूत्र (२८/६) में द्रव्य को गुण का स्वाभाविक गुण कृत और वैभाविकगुण कृत अर्थात् पर्यायकृत उत्पाद आश्रय स्थान माना गया है। उत्तराध्ययन सूत्रकार के अनुसार गुण द्रव्य और व्यय होते रहते हैं। यह सब उस द्रव्य की सम्पत्ति या स्वरूप है। में रहते हैं अर्थात् द्रव्य गुणों का आश्रय स्थल है किन्तु यहाँ आपत्ति इसलिए द्रव्य को उत्पाद-व्यय और ध्रौव्यात्मक कहा जाता है। द्रव्य के यह हो सकती है कि जब द्रव्य और गुण की भिन्न-भिन्न सत्ता ही नहीं साथ-साथ उसके गुणों में भी उत्पाद-व्यय होता रहता है। जीव का गुण है तो उनमें आश्रय-आश्रयी भाव किस प्रकार होगा? वस्तुत: द्रव्य और चेतना है उसमें पृथक् होने पर जीव जीव नहीं रहेगा, फिर भी जीव की गुण के सम्बन्ध को लेकर किया गया यह विवेचन मूलत: वैशेषिक चेतन अनुभूतियाँ स्थिर नहीं रहती हैं, वे प्रति क्षण बदलती रहती हैं, परम्परा के प्रभाव का परिणाम है। जैनों के अनुसार सिद्धान्तत: आश्रय- अत: गुणों में भी उत्पाद-व्यय होता रहता है। पुन: वस्तु का स्व-लक्षण आश्रयी भाव उन्हीं दो तत्त्वों में हो सकता है जो एक-दूसरे से पृथक् कभी बदलता नहीं है अत: गुण में ध्रौव्यत्व पक्ष भी है। अत: गुण भी सत्ता रखते हैं। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर पूज्यपाद आदि कुछ द्रव्य के समान उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य लक्षण युक्त है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
.www.jainelibrary.org