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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ में ही विकसित हैं किन्तु एक पर वैशेषिक दर्शन का और दूसरी पर प्राप्त होती है, यह पर्याय कहलाती हैं। ये परिवर्तनशील पर्याय ही द्रव्य बौद्ध दर्शन का प्रभाव है। ये दोनों परिभाषायें जैन दर्शन की अनेकान्तिक का अनित्य पक्ष है। दृष्टि का पूर्ण परिचय नहीं देती क्योंकि एक में द्रव्य और गुण में भेद इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि द्रव्य अपने स्व-लक्षण माना गया है तो दूसरे में अभेद, जबकि जैन दृष्टिकोण भेद-अभेद या गुण की अपेक्षा से नित्य और अपनी पर्याय की अपेक्षा से अनित्य मूलक है। उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र सर्वार्थसिद्धिमान्य पाठ में 'सत् द्रव्य कहा जाता है। उदाहरण के रूप में जीवद्रव्य अपने चैतन्य गुण का कभी लक्षण' (५/२९) कहकर सत् को द्रव्य का लक्षण बताया है। इस परित्याग नहीं करता, किन्तु अपने चेतना लक्षण का परित्याग के बिना परिभाषा से यह फलित होता है कि द्रव्य का मुख्य लक्षण अस्तित्व है। वह देव, मनुष्य, पशु इन विभिन्न योनियों को अथवा बालक, युवा, जो अस्तित्ववान् है, वही द्रव्य है। इसी आधार पर यह कहा गया है कि वृद्ध आदि अवस्थाओं को प्राप्त होता है। जिन गुणों का परित्याग नहीं जो त्रिकाल में अपने स्वभाव का परित्याग न करे उसे ही सत् या द्रव्य किया जा सकता वे ही गुण वस्तु के स्व-लक्षण कहे जाते हैं। जिन गुणों कहा जा सकता है। तत्त्वार्थसूत्र (५/२९) में उमास्वाति ने एक ओर अथवा अवस्थाओं का परित्याग किया जा सकता है, वे पर्याय कहलाती द्रव्य का लक्षण सत् बताया तो दूसरी ओर सत् को उत्पाद-व्यय- हैं। पर्याय बदलती रहती हैं, किन्तु गुण वही बना रहता है। ये पर्याय भी ध्रौव्यात्मक बताया। अत: द्रव्य को भी उत्पाद-व्यय ध्रौव्यात्मक कहा जा दो प्रकार की कही गयी हैं- १. स्वभाव पर्याय और २. विभाव पर्याय। सकता है। साथ ही उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र (५/३८) में द्रव्य को जो पर्याय या अवस्थायें स्व-लक्षण के निमित्त से होती हैं वे स्वभाव परिभाषित करते हुए उसे गुण, पर्याय से युक्त भी कहा है। आचार्य पर्याय कहलाती हैं और जो अन्य निमित्त से होती हैं वे विभाव पर्याय कुंदकुंद ने 'पंचास्तिकायसार' और 'प्रवचनसार' में इन्हीं दोनों लक्षणों कहलाती हैं। उदाहरण के रूप में ज्ञान और दर्शन (प्रत्यक्षीकरण) को मिलाकर द्रव्य को परिभाषित किया है। 'पंचास्तिकायसार' (१०) में सम्बन्धी विभिन्न अनुभूतिपरक अवस्थायें आत्मा की स्वभाव पर्याय हैं। वे कहते है कि "द्रव्य सत् लक्षण वाला है।" इसी परिभाषा को और क्योंकि वे आत्मा के स्व-लक्षण 'उपयोग' से फलित होती हैं, जबकि स्पष्ट करते हुए प्रवचनसार (९५-९६) में वे कहते हैं "जो अपरित्यक्त क्रोध आदि कषाय भाव कर्म के निमित्त से या दूसरों के निमित्त से होते स्वभाव वाला उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य से युक्त तथा गुण पर्याय सहित हैं, अत: वे विभाव पर्याय हैं। फिर भी इतना निश्चित है कि इन गुणों है, उसे द्रव्य कहा जाता है।" इस प्रकार कुंदकुंद ने द्रव्य की परिभाषा और पर्यायों का अधिष्ठान या उपादान तो-द्रव्य स्वयं ही हैं। द्रव्य गुण के सन्दर्भ में उमास्वाति के सभी लक्षणों को स्वीकार कर लिया है। और पर्यायों से अभिन्न हैं, वे परस्पर सापेक्ष हैं। तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वाति की विशेषता यह है कि उन्होंने 'गुण पर्यायवत् गुण द्रव्य' कहकर जैन दर्शन के भेद-अभेदवाद को पुष्ट किया है। यद्यपि द्रव्य को गुण और पर्यायों का आधार माना गया है। वस्तुतः तत्त्वार्थसूत्र में द्रव्य की यह परिभाषा भी वैशेषिक सूत्र के गुण द्रव्य के स्वभाव या स्व-लक्षण होते हैं। तत्त्वार्थसूत्र में उमास्वाति 'द्रव्यगुणकर्मभ्योऽर्थान्तरं स सत्ता (१/२/८) नामक सूत्र के निकट ही ने 'द्रव्याश्रयानिर्गुणा गुणा:' (५/४०) कहकर यह बताया है कि गुण सिद्ध होती है। उमास्वाति ने इस सूत्र में कर्म के स्थान पर पर्याय को द्रव्य में रहते हैं, पर वे स्वयं निर्गुण होते हैं। गुण निर्गुण होते हैं यह रख दिया है। जैन दर्शन के सत् सम्बन्धी सिद्धान्त की चर्चा में हम यह परिभाषा सामान्यतया आत्म-विरोधी सी लगती है। किन्तु इस परिभाषा स्पष्ट कर चुके हैं कि द्रव्य या सत्ता परिवर्तनशील होकर भी नित्य है। की मूलभूत दृष्टि यह है कि यदि हम गुण का भी गुण मानेंगे तो फिर परिणमन यह द्रव्य का आधारभूत लक्षण है, किन्तु इसकी प्रक्रिया में अनवस्थादोष का प्रसंग आयेगा। आगमिक दृष्टि से गुण की परिभाषा द्रव्य अपने स्वरूप का परित्याग नहीं करता है। स्व-स्वरूप का परित्याग इस रूप में की गयी है कि गुण द्रव्य का विधान है यानि उसका स्वकिये बिना विभिन्न अवस्थाओं को धारण करने के कारण ही द्रव्य को लक्षण है जबकि पर्याय द्रव्य का विकार है। गुण भी द्रव्य के समान ही नित्य कहा जाता है, किन्तु प्रतिक्षण उत्पन्न होने वाले और नष्ट होने अविनाशी है। जिस द्रव्य का जो गुण है वह उसमें सदैव रहता है। दूसरे वाले पर्यायों की अपेक्षा से उसे अनित्य कहा जाता है। उसे इस प्रकार शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि द्रव्य का जो अविनाशी लक्षण है भी समझाया जा सकता है कि मृत्तिका अपने स्व-जातीय धर्म का अथवा द्रव्य जिसका परित्याग नहीं कर सकता है वही गुण है। गुण परित्याग किये बिना घट आदि को उत्पन्न करती है। घट की उत्पत्ति में वस्तु की सहभावी विशेषताओं का सूचक है। पिण्ड का विनाश होता है। जब तक पिण्ड विनष्ट नहीं होता तब तक वे विशेषताएँ या लक्षण जिनके आधार पर एक द्रव्य को घट उत्पन्न नहीं होता किन्तु इस उत्पाद और व्यय में भी मृत्तिका-लक्षण दूसरे द्रव्य से अलग किया जा सकता है, वे विशिष्ट गुण कहे जाते हैं। यथावत् बना रहता है। वस्तुत: कोई भी द्रव्य अपने स्व-लक्षण, स्व- उदाहरण के रूप में धर्म-द्रव्य का लक्षण गति में सहायक होना है। स्वभाव अथवा स्व-जातीय धर्म का परित्याग नहीं करता है। द्रव्य अपने अधर्म-द्रव्य का लक्षण स्थिति में सहायक होना है। जो सभी द्रव्यों का गुण या स्व-लक्षण की अपेक्षा से नित्य होता है, क्योंकि स्व-लक्षण का अवगाहन करता है, उन्हें स्थान देता है, वह आकाश कहा जाता है। त्याग सम्भव नहीं है। यह स्व-लक्षण ही वस्तु का नित्य पक्ष होता है। इसी प्रकार परिवर्तन काल का लक्षण है और उपयोग जीव का लक्षण स्व-लक्षण का त्याग किये बिना वस्तु जिन विभिन्न अवस्थाओं को है। अतः गुण वे हैं, जिसके आधार पर हम किसी द्रव्य को पहचानते
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