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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
कभी भी नकारा नहीं जा सकता। यदि सत् त्रिकाल में अविकारी और करेगा और जो वेतन मिलेगा वह किसी अन्य को। इसी प्रकार ऋण अपरिवर्तनशील हो तो फिर वैयक्तिक जीवों या आत्माओं के बंधन और कोई अन्य व्यक्ति लेगा और उसका भुगतान किसी अन्य व्यक्ति को मुक्ति की व्याख्या भी अर्थहीन हो जायेगी। धर्म और नैतिकता दोनों का करना होगा। ही उन दर्शनों में कोई स्थान नहीं है, जो सत् की अपरिणामी मानते हैं। यह सत्य है कि बौद्ध दर्शन में सत् के अनित्य एवं क्षणिक जैसे जीवन में बाल्यावस्था, युवावस्था और प्रौढ़ावस्था आती है, उसी स्वरूप पर अधिक बल दिया गया है। यह भी सत्य है कि भगवान् बुद्ध प्रकार सत्ता में भी परिवर्तन घटित होते हैं। आज का हमारे अनुभव का सत् को एक प्रक्रिया (Process) के रूप में देखते हैं। उनकी दृष्टि में विश्व वही नहीं है, जो हजार वर्ष पूर्व था, उसमें प्रतिक्षण परिवर्तन विश्व मात्र एक प्रक्रिया (परिवर्तनशीलता) है, उस प्रक्रिया से पृथक् घटित होते हैं। न केवल जगत् में अपितु हमारे वैयक्तिक जीवन में भी कोई सत्ता नहीं है। वे कहते हैं क्रिया है, किन्तु क्रिया से पृथक् कोई परिवर्तन घटित होते रहते हैं अत: अस्तित्व या सत्ता के सम्बन्ध में कर्ता नहीं है। इस प्रकार प्रक्रिया से अलग कोई सत्ता नहीं है किन्तु हमें अपरिवर्तनशीलता की अवधारणा समीचीन नहीं है।
यह स्मरण रखना चाहिये कि बौद्ध दर्शन के इन मन्तव्यों का आशय इसके विपरीत यदि सत् को क्षणिक या परिवर्तनशील माना एकान्त क्षणिकवाद या उच्छेदवाद नहीं है। आलोचकों ने उसे उच्छेदवाद जाता है तो भी कर्मफल या नैतिक उत्तरदायित्व की व्याख्या संभव नहीं समझकर जो आलोचना प्रस्तुत की है, चाहे वह उच्छेदवाद के संदर्भ में होती। यदि प्रत्येक क्षण स्वतन्त्र है तो फिर हम नैतिक उत्तरदायित्व की संगत हो किन्तु बौद्ध दर्शन के सम्बन्ध में नितान्त असंगत है। बुद्ध सत् व्याख्या नहीं कर सकते। यदि व्यक्ति अथवा वस्तु अपने पूर्व क्षण की के परिवर्तनशील पक्ष पर बल देते हैं किन्तु इस आधार पर उन्हें अपेक्षा उत्तर क्षण में पूर्णत: बदल जाती है तो फिर हम किसी को पूर्व उच्छेदवाद का समर्थक नहीं कहा जा सकता। बुद्ध के इस कथन का कि में किए गये चोरी आदि कार्यों के लिए कैसे उत्तरदायी बना पायेंगे? “क्रिया है, कर्ता नहीं" का आशय यह नहीं है कि वे कर्ता या
सैद्धान्तिक दृष्टि से जैन दार्शनिकों का इस धारणा के विपरीत क्रियाशील तत्त्व का निषेध करते हैं। उनके इस कथन का तात्पर्य मात्र यह कहना है कि उत्पत्ति के बिना नाश और नाश के बिना उत्पत्ति इतना ही है कि क्रिया से भिन्न कर्ता नहीं है। सत्ता और परिवर्तन में पूर्ण संभव नहीं है दूसरे शब्दों में पूर्व-पर्याय के नाश के बिना उत्तर-पर्याय तादात्म्य है। सत्ता से भिन्न परिवर्तन और परिवर्तन से भिन्न सत्ता की की उत्पत्ति संभव नहीं है किन्तु उत्पत्ति और नाश दोनों का आश्रय कोई स्थिति नहीं है। परिवर्तन और परिवर्तनशील अन्योन्याश्रित हैं, दूसरे वस्तुतत्त्व होना चाहिये। एकान्तनित्य वस्तुतत्त्व/पदार्थ में परिवर्तन संभव शब्दों में वे सापेक्ष हैं, निरपेक्ष नहीं। वस्तुत: बौद्ध दर्शन का सत् नहीं है और यदि पदार्थों को एकान्त क्षणिक माना जाय तो परिवर्तित सम्बन्धी यह दृष्टिकोण जैन दर्शन से उतना दूर नहीं है जितना माना कौन होता है, यह नहीं बताया जा सकता। आचार्य समन्तभद्र आप्तमीमांसा गया है। बौद्ध दर्शन में सत्ता को अनुच्छेद और अशाश्वत कहा गया है में इस दृष्टिकोण की समालोचना करते हुए कहते हैं कि “एकान्त अर्थात् वे न उसे एकान्त अनित्य मानते हैं और न एकान्त नित्य। वह क्षणिकवाद में प्रेत्यभाव अर्थात् पुनर्जन्म असंभव होगा और प्रेत्यभाव न अनित्य है और न नित्य है जबकि जैन दार्शनिकों ने उसे नित्यानित्य के अभाव में पुण्य-पाप के प्रतिफल और बंधन-मुक्ति की अवधारणायें कहा है, किन्तु दोनों परम्पराओं का यह अन्तर निषेधात्मक अथवा भी संभव नहीं होगी। पुन: एकान्त क्षणिकवाद में प्रत्यभिज्ञा भी संभव स्वीकारात्मक भाषा-शैली का अन्तर है। बुद्ध और महावीर के कथन का नहीं और प्रत्यभिज्ञा के अभाव में कार्यारम्भ ही नहीं होगा फिर फल मूल उत्स एक-दूसरे से उतना भिन्न नहीं है, जितना कि हम उसे मान कहाँ से?६ इस प्रकार इसमें बंधन-मुक्ति, पुनर्जन्म का कोई स्थान नहीं लेते हैं। भगवान् बुद्ध का सत् के स्वरूप के सम्बन्ध में यथार्थ मन्तव्य है। "युक्त्यानुशान" में कहा गया है कि क्षणिकवाद संवृत्ति सत्य के क्या था, इसकी विस्तृत चर्चा हमने “जैन, बौद्ध और गीता के आचार रूप में भी बन्धन-मुक्ति आदि की स्थापना नहीं कर सकता क्योंकि दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन" भाग-१ (पृ० १९२-१९४) में की उसकी दृष्टि में परमार्थ या सत् नि:स्वभाव है। यदि परमार्थ निःस्वभाव है, इच्छुक पाठक उसे वहाँ देख सकते हैं। सत् के स्वरूप के सम्बन्ध है तो फिर व्यवहार का विधान कैसे होगा?७ आचार्य हेमचन्द्र ने में प्रस्तुत विवेचना का मूल उद्देश्य मात्र इतना है कि सत् को अव्यय 'अन्ययोगव्यवच्छेदिका' में क्षणिकवाद पर पाँच आक्षेप लगाये हैं- १. है। इसी प्रकार सत् के सम्बन्ध में एकान्त अभेदवाद और एकान्त कृत-प्रणाश, २. अकृत-भोग, ३. भव-भंग, ४. प्रमोक्ष-भंग और ५. भेदवाद भी उन्हें मान्य नहीं रहे हैं। स्मृति-भंगा८ यदि कोई नित्य सत्ता ही नहीं है और प्रत्येक सत्ता
जैन दार्शनिकों के अनुसार सत्ता सामान्य-विशेषात्मक या क्षणजीवी है तो फिर व्यक्ति द्वारा किये गये कर्मों का फलभोग कैसे भेदाभेदात्मक है। वह एक भी है और अनेक भी। वे भेद में अभेद और सम्भव होगा, क्योंकि फलभोग के लिए कर्तृत्वकाल और भोक्तृत्व अभेद में भेद को स्वीकार करते हैं। दूसरे शब्दों वे अनेकता में एकता काल में उसी व्यक्ति का होना आवश्यक है अन्यथा कार्य कौन करेगा का और एकता में अनेकता का दर्शन करता है। मानवता की अपेक्षा और फल कौन भोगेगा? वस्तुतः एकान्त क्षणिकवाद में अध्ययन कोई मनुष्यजाति एक है, किन्तु देश-भेद, वर्णभेद, वर्ग-भेद या व्यक्ति भेद और करेगा, परीक्षा कोई और देगा, उसका प्रमाण-पत्र किसी और को की अपेक्षा वह अनेक है। जैन दार्शनिकों के अनुसार एकता में अनेकता मिलेगा, उस प्रमाण-पत्र के आधार पर नौकरी कोई अन्य व्यक्ति प्राप्त और अनेकता में एकता अनुस्यूत है।
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