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जैनदर्शन में पंच अस्तिकाय और षट् द्रव्यों की अवधारणा
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का, अपितु इसे जीव व पुद्गल की गति के सहायक तत्त्व के रूप में लक्षण 'अवगाहन' है। वह जीव और अजीव द्रव्यों को स्थान प्रदान स्वीकार किया गया है। जो जीव और पुद्गल की गति के माध्यम का करता है। लोक को भी अपने में समाहित करने के कारण आकाश का कार्य करता है, उसे धर्म द्रव्य कहा जाता है। जिस प्रकार मछली की विस्तार क्षेत्र लोक के बाहर भी मानना आवश्यक है। यही कारण है कि गति जल के माध्यम से ही सम्भव होती है अथवा जैसे-विद्युत धारा जैन आचार्य आकाश के दो विभाग करते हैं-लोकाकाश और अलोकाकाश। उसके चालक द्रव्य तार आदि के माध्यम से ही प्रवाहित होती है, उसी विश्व में जो रिक्त स्थान है वह लोकाकाश है और इस विश्व से बाहर जो प्रकार जीव और पुद्गल विश्व में प्रसारित धर्म द्रव्य के माध्यम से ही रिक्त स्थान है वह अलोकाकाश है। इस प्रकार जहाँ धर्म द्रव्य और इसका प्रसार क्षेत्र लोक तक सीमित है। अलोक में धर्म द्रव्य का अभाव अधर्म द्रव्य असंख्य प्रदेशी माने गए हैं वहाँ आकाश को अनन्त प्रदेशी है। इसीलिए उसमें जीव और पुद्गल की गति सम्भव नहीं होती और माना गया है। लोक की कोई सीमा हो सकती है किन्तु अलोक की कोई यही कारण है कि उसे अलोक कहा जाता है। अलोक का तात्पर्य है कि सीमा नहीं है- वह अनन्त है। चूंकि आकाश लोक और अलोक दोनों जिसमें जीव और पुद्गल का अभाव हो। धर्म द्रव्य प्रसारित स्वभाव वाला में है इसलिए वह अनन्त प्रदेशी है। संख्या की दृष्टि से आकाश को भी (अस्तिकाय) होकर भी अमूर्त (अरूपी) और अचेतन है। धर्म द्रव्य एक एक और अखण्ड द्रव्य माना गया है। उसके देश-प्रदेश आदि की
और अखण्ड द्रव्य है। जहाँ जीवात्माएँ अनेक मानी गई हैं। वहाँ धर्म कल्पना भी केवल वैचारिक स्तर तक ही सम्भव है। वस्तुत: आकाश में द्रव्य एक ही है। लोक तक सीमित होने के कारण इसे अनन्त प्रदेशी किसी प्रकार का विभाजन कर पाना सम्भव नहीं है। यही कारण है कि न कहकर असंख्य प्रदेशी कहा गया है। जैन दर्शन के अनुसार लोक उसे अखण्ड द्रव्य कहा जाता है। जैन आचार्यों की अवधारणा है कि चाहे कितना ही विस्तृत क्यों न हो वह असीम न होकर ससीम है और जिन्हें हम सामान्यतया ठोस पिण्ड समझते हैं उनमें भी आकाश अर्थात् ससीम लोक में व्याप्त होने के कारण धर्म द्रव्य को आकाश के समान रिक्त स्थान होता है। एक पुद्गल परमाणु में भी दूसरे अनन्त पुद्गल अनन्त प्रदेशी न मानकर असंख्य प्रदेशी मानना ही उपयुक्त है। परमाणुओं को अपने में समाविष्ट करने की शक्ति तभी सम्भव हो
सकती है जबकि उनमें विपुल मात्रा में रिक्त स्थान या आकाश हो। अत: अधर्म द्रव्य
मूर्त द्रव्यों में भी आकाश तो निहित ही रहता है। लकड़ी में जब हम अधर्म द्रव्य भी अस्तिकाय वर्ग के अन्तर्गत आता है। इसका कील ठोंकते हैं तो वह वस्तुत: उसमें निहित रिक्त स्थान में ही समाहित भी विस्तार क्षेत्र या प्रदेश-प्रचयत्व लोकव्यापी है। लोक में इसका होती है। इसका तात्पर्य है कि उसमें भी आकाश है। परम्परागत अस्तित्व नहीं है। अधर्म द्रव्य का लक्षण या कार्य जीव और पुद्गल की उदाहरण के रूप में यह कहा जाता है कि दूध या जल के भरे हुए स्थिति में सहायक होना माना गया है। परम्परागत उदाहरण के रूप में ग्लास में यदि धीरे-धीरे शक्कर या नमक डाला जाय तो वह उसमें यह कहा जाता है कि जिस प्रकार वृक्ष की छाया पथिक के विश्राम में समाविष्ट हो जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि दूध या जल से भरे हुए सहायक होती है उसी प्रकार अधर्म द्रव्य जीव और पुद्गल की अवस्थिति ग्लास में भी रिक्त स्थान अर्थात् आकाश था। वैज्ञानिकों ने भी यह मान में सहायक होता है। जहाँ धर्म द्रव्य गति का माध्यम (चालक) है वहाँ लिया है कि प्रत्येक परमाणु में पर्याप्त रूप से रिक्त स्थान होता है। अत: अधर्म द्रव्य गति का कुचालक है अत: उसे स्थिति का माध्यम कहा आकाश को लोकालोकव्यापी, एक और अखण्ड द्रव्य मानने में कोई गया है। यदि अधर्म द्रव्य नहीं होता तो जीव व पुद्गल की गति का बाधा नहीं आती है। नियमन असम्भव हो जाता और वे अनन्त आकाश में बिखर जाते। जिस प्रकार वैज्ञानिक दृष्टि से गुरुत्वाकर्षण आकाश में स्थिति पुद्गल पुद्गल-द्रव्य पिण्डों को नियंत्रित करता है उसी प्रकार अधर्म द्रव्य भी जीव व पुद्गल पुद्गल को भी अस्तिकाय द्रव्य माना गया है। यह मूर्त और की गति का नियमन कर उसे विराम देता है। संख्या की दृष्टि से अधर्म अचेतन द्रव्य है। पुद्गल का लक्षण शब्द, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श आदि द्रव्य को एक और अखण्ड द्रव्य माना गया है। प्रदेश-प्रचयत्व की दृष्टि माना जाता है। जैन आचार्यों ने हल्कापन, भारीपन, प्रकाश, अंधकार, से इसका विस्तार क्षेत्र लोक तक सीमित होने के कारण इसे असंख्य छाया, आतप आदि को भी पुद्गल का लक्षण माना है। जहाँ धर्म, अधर्म प्रदेशी माना जाता है, फिर भी वह एक अखण्ड द्रव्य है क्योंकि उसका और आकाश एक द्रव्य माने गये हैं वहाँ पुद्गल अनेक द्रव्य हैं। जैन विखण्डन सम्भव नहीं है। धर्म और अधर्म द्रव्यों में देश-प्रदेश आदि आचार्यों ने प्रत्येक परमाणु को एक स्वतन्त्र द्रव्य इकाई माना है। की कल्पना मात्र वैचारिक स्तर पर ही होती है।
वस्तुत: पुद्गल द्रव्य समस्त दृश्य जगत् का मूलभूत घटक है।
यह दृश्य जगत् पुद्गल द्रव्य के ही विभिन्न संयोगों का विस्तार आकाश द्रव्य
है। अनेक पुद्गल परमाणु मिलकर स्कंध की रचना करते हैं और इन आकाश द्रव्य भी अस्तिकाय वर्ग के अन्तर्गत ही आता है स्कंधों से ही मिलकर दृश्य जगत् की सभी वस्तुयें निर्मित होती हैं। किन्तु जहाँ धर्म और अधर्म द्रव्यों का विस्तार क्षेत्र लोकव्यापी है वहाँ नवीन स्कंधों के निर्माण और पूर्व निर्मित स्कन्धों के संगठन और आकाश का विस्तार क्षेत्र लोक और अलोक दोनों है। आकाश का विघटन की प्रक्रिया के माध्यम से ही दृश्य जगत् में परिवर्तन घटित
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