________________
११४
उसे स्वयं संन्यास - मार्ग का पथिक नहीं बनना था, न उसके संघ में संन्यासी या गृहत्यागी का स्थान होना था।
है कि आत्मनित्यतावाद और आत्म- अनित्यतावाद में कौन सी धारणा सत्य है और कौन सी असत्य ?
सम्भवतः वस्तुस्थिति ऐसी प्रतीत होती है कि अजित दार्शनिक दृष्टि से अनित्यवादी था, जगत् की परिवर्तनशीलता पर ही उसका जोर था। वह लोक परलोक, देवता, आत्मा आदि किसी भी तत्त्व को नित्य नहीं मानता था। उसका यह कहना "यह लोक नहीं परलोक नहीं, माता-पिता नहीं, देवता नहीं..." केवल इसी अर्थ का द्योतक है कि इन सभी की शाश्वत् सत्ता नहीं है, सभी अनित्य हैं। वह आत्मा को भी अनित्य मानता था और इसी आधार पर यह कहा गया कि उसकी नैतिक धारणा में सुकृत और दुष्कृत कर्मों का विपाक नहीं
इस प्रकार यह तो निर्भ्रान्त रूप से सत्य है कि महावीर के समकालीन विचारकों में आत्म-अनित्यतावाद को मानने वाले विचारक थे। लेकिन वह अनित्य आत्मवाद भौतिक आत्मवाद नहीं, वरन् दार्शनिक अनित्य आत्मवाद था। उनके मानने वाले विचारक आधुनिक सुखवादी विचारकों के समान भौतिक सुखवादी नहीं थे, वरन् वे आत्म- शान्ति एवं आसक्तिनाश या तृष्णाक्षय के हेतु प्रयासशील थे।
ऐसा प्रतीत होता है कि अजित का दर्शन और धर्म (नैतिकता ) बौद्ध दर्शन एवं धर्म की पूर्व कड़ी था। बौद्धों ने उसके दर्शन की जो पश्चिम में यूनानी दार्शनिक हेराक्टिस (५३५ ई.पू.) भी आलोचना की थी अथवा उसके नैतिक निष्कर्ष प्रस्तुत किये थे कि इसी का समकालीन था और वह भी अनित्य वादी ही था। उसके अनुसार दुष्कृत एवं सुकृत कर्मों का विपाक नहीं, यही आलोचना पश्चात् काल में बौद्ध आत्मवाद को कृतप्रणाश एवं अकृत-कर्मभोग के दोष से युक्त कहकर हेमचन्द्राचार्य ने प्रस्तुत की।
अनित्य आत्मवाद की धारणा नैतिक दृष्टि से उचित नहीं बैठती क्योंकि उसके आधार पर कर्म विपाक या कर्म फल के सिद्धान्त को नहीं समझाया जा सकता। समस्त शुभाशुभ कर्मों का प्रतिफल तत्काल प्राप्त नहीं होता । अतः कर्म फल की धारणा के लिये नित्य आत्मवाद की ओर आना होता है। दूसरे अनित्य आत्मवाद की धारणा में पुण्य संचय, परोपकार, दान आदि के नैतिक आदर्शों का भी कोई अर्थ नहीं रहता ।
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
सम्भवतः अजित नित्य आत्मवाद के आधार पर नैतिकता की धारणा को स्थापित करने में उत्पन्न होने वाली दार्शनिक कठिनाइयों से अवगत था। क्योंकि नित्य आत्मवाद के आधार पर हिंसा की बुराई को नहीं समाप्त किया जा सकता। यदि आत्मा नित्य है तो फिर हिंसा किसकी? अतः अजित ने यश याग एवं युद्ध जनित हिंसा से मानवजाति को मुक्त करने के लिये अनित्य आत्मवाद का उपदेश दिया होगा |
साथ ही ऐसा भी प्रतीत होता है कि वह तृष्णा और आसक्ति से उत्पन्न होने वाले सांसारिक क्लेशों से भी मानव जाति को मुक्त करना चाहता था और इसी हेतु उसने गृह त्याग और देह- दण्डन, जिससे आत्म-सुख और भौतिक सुख की विभिन्नता को समझा जा सके, को आवश्यक माना था।
इस प्रकार अजित का दर्शन आत्म-अनित्यवाद का दर्शन है और उसकी नैतिकता है— आत्म-सुख (Subjective Pleasure) की
-
उपलब्धि।
सम्भवतः ऐसा प्रतीत होता है कि बुद्ध ने अपने अनात्मवादी दर्शन के निर्माण में अजित का यह अनित्य आत्मवाद अपना लिया था और उसकी नैतिक धारणा में से देह दण्डन की प्रणाली को समाप्त कर दिया था। यही कारण है कि अजित की यह दार्शनिक परम्परा बुद्ध की दार्शनिक परम्परा के प्रारम्भ होने पर विलुप्त हो गई। बुद्ध के दर्शन
अजित के अनित्यतावादी आत्म-सिद्धान्त को आत्मसात् कर लिया और उसकी नैतिक धारणा को परिष्कृत कर उसे ही एक नये रूप में प्रस्तुत कर दिया।
अनित्य आत्मवाद के सम्बन्ध में जैनागम उत्तराध्ययन के १४वें अध्ययन की १८वीं गाथा में भी विवेचन प्राप्त होता है, जहाँ यह बताया गया कि यह आत्मा शरीर में उसी प्रकार रहती है जैसे तिल में तेल, अरणी में अग्नि या दूध में घृत रहता है और इस शरीर के नष्ट हो जाने के साथ ही वह नष्ट हो जाती है।
औपनिषदिक साहित्य में कठोपनिषद् की प्रथम वल्ली के अध्याय १ के २०वें श्लोक में नचिकेता भी यह रहस्य जानना चाहता
Jain Education International
नित्य कूटस्थ आत्मवाद
वर्तमान दार्शनिक परम्पराओं में भी अनेक इस सिद्धान्त के समर्थक हैं कि आत्मा कूटस्थ ( निष्क्रिय) एवं नित्य है, सांख्य और वेदान्त भी इसके समर्थक हैं। जिन विचारकों ने आत्मा को कूटस्थ माना है, उन्होंने उसे नित्य भी माना है। अतः हमने भी अपने विवेचन हेतु नित्य आत्मवाद और कूटस्थ आत्मवाद दोनों को समन्वित रूप से एक ही साथ रखा है। महावीर के समकालीन कूटस्थ नित्य आत्मवाद के प्रतिनिधि पूर्णकश्यप थे।
पूर्णकश्यप के सिद्धान्तों का चित्रण बौद्ध साहित्य में इस प्रकार है- अगर कोई क्रिया करे, कराये, काटे, कटवाये, कष्ट दे या दिलाये― चोरी करे- प्राणियों को मार डाले - परदार गमन करे या असत्य बोले तो भी उसे पाप नहीं तीक्ष्ण धार वाले चक्र से यदि कोई इस संसार के प्राणियों के माँस का ढेर लगा दे तो भी उसे कोई पाप नहीं है, दोष नहीं है— दान, धर्म और सत्य भाषण से कोई पुण्य - प्राप्ति नहीं होती।
इस धारणा को देखकर सहज ही शंका होती है कि इस प्रकार का उपदेश देने वाला कोई यशस्वी, लोकसम्मानित व्यक्ति नहीं हो सकता, वरन् कोई धूर्त होगा। लेकिन पूर्णकश्यप एक लोकपूजित शास्ता थे, अतः यह निश्चित है कि ऐसा अनैतिक दृष्टिकोण उनका नहीं हो सकता, यह उनके आत्मवाद का नैतिक फलित होगा जो एक
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.