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महावीरकालीन विभिन्न आत्मवाद एवं जैन आत्मवाद का वैशिष्ट्य
११५ विरोधी दृष्टिकोण वाले लोगों द्वारा प्रस्तुत किया गया है। फिर भी इसमें निष्क्रिय आत्मविकासवाद एवं नियतिवाद इतनी सत्यता अवश्य होगी कि पूर्णकश्यप आत्मा को अक्रिय मानते
आत्म-अक्रियतावाद या कूटस्थ-आत्मवाद की एक धारा थे, वस्तुत: उनकी आत्म-अक्रियता की धारणा का उपर्युक्त निष्कर्ष नियतिवाद थी। यदि आत्मा अक्रिय है एवं कूटस्थ है तो पुरुषार्थवाद के निकालकर उनके विरोधियों ने उनके मत को विकृत रूप में प्रस्तुत द्वारा आत्मविकास एवं निर्वाण-प्राप्ति की धारणा को नहीं समझाया जा किया है।
सकता था। ऐसा प्रतीत होता है कि पूर्णकश्यप के इस आत्म-अक्रियवाद मक्खलीपुत्र गोशालक जो आजीवक सम्प्रदाय का प्रमुख को उसके पश्चात् कपिल के सांख्य दर्शन और भगवद्गीता में भी था- पूर्णकश्यप की आत्म-अक्रियतावाद की धारणा का तो समर्थक अपना लिया गया था। कपिल और भगवद्गीता का काल लगभग था लेकिन अक्रिय-आत्मवाद के कारण एवं आत्म-विकास की परम्परा ४०० ई.पू. माना जाता है और इस आधार पर यह माना जा सकता है को व्यक्त करने में असमर्थ था। अत: निम्न योनि से आत्म-विकास की कि ये पूर्णकश्यप के आत्म-अक्रियवाद से अवश्य प्रभावित हुए होंगे। उच्चतम स्थिति निर्वाण को प्राप्त करने के लिये उसने निष्क्रिय आत्मकपिल के दर्शन में आत्म-अक्रियवाद के साथ ही ईश्वर का अभाव विकासवाद के सिद्धान्त को स्थापित किया। सामान्यतया उसके सिद्धान्त इस बात का सबल प्रमाण है कि वह किसी अवैदिक श्रमण परम्परा के को नियतिवाद किंवा भाग्यवाद कहा गया है, लेकिन मेरी दृष्टि में उसके दर्शन से प्रभावित था और वह दर्शन पूर्ण कश्यप का आत्म अक्रियवाद सिद्धान्त को निष्क्रिय आत्म-विकासवाद कहा जाना अधिक समुचित का दर्शन ही होगा, क्योंकि उसमें भी ईश्वर के लिये कोई स्थान नहीं है। था। सांख्य दर्शन भी आत्मा को त्रिगुणयुक्त प्रकृति से भिन्न मानता है ऐसा प्रतीत होता है गौशालक उस युग का प्रबुद्ध व्यक्ति और मारना, मरवाना आदि सभी को प्रकृति का परिणाम मानता है। था, उसने अपने आजीवक सम्प्रदाय में पूर्णकश्यप के सम्प्रदाय को भी आत्मा सबसे प्रभावित नहीं होती है। वह यह भी नहीं मानता है कि शामिल कर लिया था। प्रारम्भ में उसने भगवान् महावीर के साथ अपनी आत्मा को नष्ट किया जा सकता है। आत्मा बन्धन में नहीं आता, वरन् साधना-पद्धति को प्रारम्भ किया था लेकिन उनसे वैचारिक मतभेद होने प्रकृति ही प्रकृति को बाँधती है। अत: शुभाशुभ कार्यों का प्रभाव भी पर उसने पूर्णकश्यप के सम्प्रदाय से मिलकर आजीवक सम्प्रदाय आत्मा पर नहीं पड़ता। इस प्रकार पूर्णकश्यप का दर्शन कपिल के स्थापित कर लिया होगा, जिसका दर्शन एवं सिद्धान्त पूर्ण कश्यप की दर्शन का पूर्ववर्ती था। इसी प्रकार गीता में भी पूर्ण कश्यप के इस धारणाओं से प्रभावित थे तो साधना मार्ग का बाह्य स्वरूप महावीर की आत्म-अक्रियबाद की प्रतिध्वनि यत्र-तत्र सुनाई देती है, जो सांख्य साधना-पद्धति से प्रभावित था। दर्शन के माध्यम से उस तक पहुंची थी। स्थानाभाव से हम यहाँ उन बौद्ध आगम एवं जैनागम दोनों में ही उसकी विचारणा का सब प्रमाणों को प्रस्तुत करने में असमर्थ हैं। पाठकगण उल्लिखित कुछ स्वरूप प्राप्त होता है। यद्यपि उसका प्रस्तुतीकरण एक विरोधी पक्ष स्थानों पर उन्हें देख सकते हैं।
के द्वारा हुआ है, यह तथ्य ध्यान में रखना होगा। उपर्युक्त संदर्भो के आधार पर बौद्ध आगम में प्रस्तुत पूर्ण गोशालक की विचारणा का स्वरूप पालि आगम में निम्नानुसार कश्यप के दृष्टिकोण को एक सही दृष्टिकोण से समझा जा सकता है। हैफिर भी इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि उपर्युक्त आत्म
हेतु के बिना- प्राणी अपवित्र होता है, हेत के बिनाअक्रियवाद की धारणा नैतिक सिद्धान्तों के स्थापन में तार्किक दृष्टि से प्राणी शुद्ध होते हैं- पुरुष की सामर्थ्य से कुछ नहीं होता- सर्व उपयुक्त नहीं ठहरती है।
सत्व सर्व प्राणी, सर्वभूत, सर्वजीव, अवश, दुर्बल, निवीर्य हैं, वे यदि आत्मा अक्रिय है, वह किसी क्रिया का कर्ता नहीं है तो नियति (भाग्य), संगति एवं स्वभाव के कारण परिणित होते हैंफिर वह शुभाशुभ कार्यों का उत्तरदायी भी नहीं माना जा सकता है। इसके आगे उसकी नैतिकता की धारणा को पूर्वोक्त प्रकार स्वयं प्रकृति भी चेतना एवं शुभाशुभ के विवेक के अभाव में उत्तरदायी से भ्रष्ट रूप में उपस्थित किया गया है, जो विश्वसनीय नहीं मानी जा नहीं बनती। इस प्रकार आत्म-अक्रियवाद के सिद्धान्त में उत्तरदायित्व सकती। की धारणा को अधिष्ठित नहीं किया जा सकता और उत्तरदायित्व के उपर्युक्त आधार पर उसकी धारणा का सार यही है कि अभाव में नैतिकता, कर्तव्य, धर्म आदि का मूल्य शून्यवत् हो जाता है। आत्मा निष्क्रिय है, अवीर्य है, इसका विकास स्वभावत: होता रहता है।
- इस प्रकार आत्म-अक्रियतावाद सामान्य बुद्धि की दृष्टि से विभिन्न योनियों में होता हुआ यह जीवात्मा अपना विकास करता है एवं नैतिक नियमों के स्थापन की दृष्टि से अनुपयोगी ठहरता है, फिर और निर्वाण या मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। भी दार्शनिक दृष्टि से इसका कुछ मूल्य है क्योंकि स्वभावतया आत्मा
लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि नैतिक दृष्टि से वह व्यक्ति को अक्रिय माने बिना मोक्ष एवं निर्वाण की व्याख्या सम्भव नहीं थी। को अपनी स्थिति के अनुसार कर्तव्य करने का उपदेश देता था, यही कारण था कि आत्म-अक्रियतावाद या कूटस्थ-नित्य-आत्मवाद अन्यथा वह स्वयं भी नग्न रहना आदि देह-दण्डन को क्यों स्वीकार का प्रभाव दार्शनिक विचारणा पर बना रहा।
करता? जिस प्रकार बाद में गीता में अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार
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