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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
में जिस तीसरे ग्रन्थ मरणविभक्ति का उल्लेख हुआ है वह भी श्वेताम्बर का उल्लेख किया हो। थुदि या स्तुति से मूलाचार का तात्पर्य किस परम्परा के दस प्रकीर्णकों में एक है। यह मरणविभक्ति और मरणसमाधि ग्रन्थ से है यह भी स्पष्ट करना आवश्यक है। टीकाकार वसुनन्दी ने इन दो नामों से उल्लिखित है। स्वयं ग्रन्थकार ने भी इसे मरणविभक्ति इसका तात्पर्य समन्तभद्र की 'देवागम' नामक स्तुति-रचना से लिया कहा है। इससे यह सिद्ध होता है कि मूलाचार द्वारा निर्दिष्ट मरणविभक्ति है। किन्तु मेरी दृष्टि में यह उचित नहीं है। प्रथम तो समन्तभद्र का श्वेताम्बर परम्परा में उपलब्ध मरणविभक्ति ही है। दिगम्बर परम्परा में काल भी विवादास्पद है उसे किसी भी स्थिति में मूलाचार का पूर्ववर्ती मरणविभक्ति नाम का कोई ग्रन्थ रहा हो ऐसा उल्लेख मुझे देखने को मानना समुचित नहीं है। वस्तुतः थुई नाम से कोई प्राकृत रचना ही नहीं मिला है। यद्यपि मूलाचार में उल्लिखित मरणविभक्ति वर्तमान रहनी चाहिए। श्वेताम्बर परम्परा में थुई के नाम से वीरत्थुई और मरणविभक्ति का एक भाग मात्र थी- क्योंकि वर्तमान मरणविभक्ति सहित देविन्दत्थुओ इन दो का उल्लेख मिलता है। वीरत्थुई-सूत्रकृतांग का आठ प्राचीन ग्रन्थों का संकलन है।
ही एक अध्याय है जबकि देविंदत्थुओं की गणना दस प्रकीर्णकों में जिस चौथे ग्रन्थ का उल्लेख हमें मूलाचार में मिलता है, वह की जाती है। वैसे प्रकीर्णकों में ही वीरत्थओ (वीरस्तव) एक स्वतन्त्र संग्रह है। संग्रह से ग्रन्थकार का क्या तात्पर्य है, यह विचारणीय है। ग्रन्थ भी है और इसकी विषयवस्तु सूत्रकृतांग के छठे अध्याय वीरत्थुई पंच-संग्रह के नाम से कर्मसाहित्य सम्बन्धी ग्रन्थ श्वेताम्बर एवं दिगम्बर से भिन्न है। जैसा कि हमने पूर्व-चर्चा में देखा, मूलाचार की प्रस्तुत दोनों ही परम्पराओं में उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त दिगम्बर परम्परा गाथा में जिन ग्रन्थों के नामों का उल्लेख है उनमें अधिकतर श्वेताम्बर में पंचास्तिकाय को भी 'पंचत्थिकाय-संगहसत्त' कहा गया है। स्वयं परम्परा के प्रकीर्णकों के नामों से मिलते हैं। अतः प्रस्तुत: गाथा में इस ग्रन्थ के कर्ता ने भी इस ग्रन्थ को संग्रह कहा है अत: एक थुई नामक ग्रन्थ से तात्पर्य प्रकीर्णकों में समाविष्ट देविदंत्थओ और विकल्प तो यह हो सकता है कि संग्रह से तात्पर्य 'पंचत्थिकाय संगह' वीरत्थओ से ही होना चाहिए। यद्यपि मेरी दृष्टि में 'थुदि' से मूलाचार से हो, किन्तु यही एकमात्र विकल्प हो हम यह नहीं कह सकते, क्योंकि का तात्पर्य या तो सूत्रकृतांग के छठे अध्याय में अन्तर्निहित 'वीरत्थुई' अनेक आधारों पर मूलाचार पंचास्तिकाय की अपेक्षा प्राचीन है। दूसरे से रहा होगा या फिर देविंदत्थओ नामक प्रकीर्णक से होगा, क्योंकि यदि मूलाचार को कुन्दकुन्द के ग्रन्थों का उल्लेख इष्ट होता तो वे यह ईसा पूर्व प्रथम शती में रचित एक प्राचीन प्रकीर्णक है। (इस समयसार का भी उल्लेख करते है। पुन: कुन्दकुन्द द्वारा 'समय' शब्द सम्बन्ध में मेरे द्वारा सम्पादित एवं आगम संस्थान द्वारा प्रकाशित का जिस अर्थ में प्रयोग किया गया है, मूलाचार के समयसाराधिकार 'देविंदत्थओ' की भूमिका देखें)। प्रकीर्णकों में समाहित वीरत्थुओ मुझे में 'समय' शब्द उससे भिन्न अर्थ में ग्रहण हुआ है। श्वेताम्बर परम्परा मूलाचार की अपेक्षा परवर्ती रचना लगती है। पच्चक्खाण नामक ग्रन्थ में संग्रहणी सूत्र का उल्लेख उपलब्ध होता है। पंचकल्पमहाभाष्य के से मूलाचार का मन्तव्य क्या है यह भी विचारणीय है। दिगम्बर परम्परा अनुसार संग्रहणियों की रचना आचार्य कालक ने की थी। पाक्षिकसूत्र में पच्चक्खाण नामक कोई ग्रन्थ है, ऐसा ज्ञात नहीं होता है। जबकि में नियुक्ति और संग्रहणी दोनों का उल्लेख है। संग्रहणी आगमिक ग्रन्थों श्वेताम्बर परम्परा में प्रकीर्णकों के अन्तर्गत आउरपच्चक्खाण और का संक्षेप में परिचय देने वाली रचना है। चूँकि आगमों का महापच्चक्खाण नामक दो ग्रन्थ हैं। अतः स्पष्ट है कि पच्चक्खाण से अस्वाध्याय काल में पढ़ना वर्जित था, अत: यह हो सकता है कि मूलाचार का तात्पर्य आउरपच्चक्खाण तथा महापच्चक्खाण नामक ग्रन्थों आचार्य कालक आदि की जो संग्रहणी थी, उन्हीं से ग्रन्थकार का तात्पर्य से ही है। मूलाचार के टीकाकार वसुनन्दी ने इसे स्पष्ट नहीं किया रहा हो। संग्रह से पंचसंग्रह अर्थ ग्रहण करने पर समस्या उठ खड़ी __ है। केवल इतना ही कहकर छोड़ दिया है कि त्रिविध एवं चतुर्विध होती है। श्वेताम्बर् पंचसंग्रह जो चन्द्रऋषि की रचना माना जाता है, परित्याग का प्रतिपादक ग्रन्थ, किन्तु ऐसा कोई ग्रन्थ श्वेताम्बर या दिगम्बर वह किसी भी स्थिति में ७वीं शताब्दी से पूर्व का नहीं है। दिगम्बर परम्परा में रहा है ऐसा ध्यान में नहीं आता। जब मूलाचार में परम्परा का पंचसंग्रह तो और भी परवर्ती ही सिद्ध होता है। उसमें आउरपच्चक्खाण की ही ७० गाथाएँ मिल रही हैं, इसके अतिरिक्त उपलब्ध धवला आदि का कुछ अंश उसे १०वीं-११वीं शती तक महापच्चक्खाण की भी गाथाएँ उसमें थीं ही। इससे सिद्ध होता है ले जाता है। अत: मूलाचार में संग्रह के रूप में जिस ग्रन्थ का उल्लेख कि पच्चक्खाण से मूलाचारकार का तात्पर्य आउरपच्चक्खाण और है वह ग्रन्थ वर्तमान श्वेताम्बर-दिगम्बर परम्परा का उपलब्ध पंचसंग्रह महापच्चक्खाण से ही है। तो नहीं हो सकता। अन्यथा हमें मूलाचार की तिथि को काफी नीचे आवासय या आवश्यक से मूलाचारकार का तात्पर्य किस ग्रन्थ ले जाना होगा। गाथा के सन्दर्भ-स्थल को देखते हुए उसे प्रक्षिप्त भी से है-यह भी विचारणीय है। टीकाकार वसुनन्दी ने मात्र केवल इतना नहीं कहा जा सकता। यद्यपि यह बात निश्चित ही सत्य है कि पंचसंग्रह निर्देश दिया है कि आवश्यक से तात्पर्य सामायिक आदि षड्-आवश्यक में जिन ग्रन्थों का संग्रह किया गया है, उनमें कुछ ग्रन्थ शिवशर्मसूरि कार्यों का प्रतिपादक ग्रन्थ। दिगम्बर परम्परा में इस प्रकार का कोई की रचनाएँ हैं और इस दृष्टि से प्राचीन भी हैं। सम्भव, यही लगता ग्रन्थ नहीं रहा है जबकि श्वेताम्बर परम्परा में आवश्यक नामक स्वतन्त्र है कि उपलब्ध पंचसंग्रह के पूर्व भी कर्म सिद्धान्त से सम्बन्धित ग्रन्थ प्राचीन काल से उपलब्ध है और उसकी गणना ग्रन्थ के रूप कसायपाहुड, सतक, सित्तरी आदि कुछ ग्रन्थों का एक संग्रह रहा होगा में की गई है। अत: स्पष्ट है कि मूलाचारकार का आवश्यक से तात्पर्य और जो संग्रह नाम से प्रसिद्ध था। हो सकता है कि मूलाचार ने उसी श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आवश्यक सूत्र से ही है।
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