________________
जैन, बौद्ध और औपनिषदिक ऋषियों के उपदेशों का प्राचीनक सङ्कलन : ऋषिभाषित
८९
कुर्मापुत्र, केतलिपुत्र, तेतलिपुत्र, भयालि, इन्द्रनाग ऐसे नाम हैं जिनमें है। यह सम्भव है कि सोम, यम, वरुण, वैश्रमण इस ग्रन्थ के रचनाकाल अधिकांश का उल्लेख जैन परम्परा के इसिमण्डल एवं अन्य ग्रन्थों तक एक उपदेष्टा के रूप में लोक परम्परा में मान्य रहे हों और इसी में मिल जाता है। पुष्पशाल, वल्कलचीरी, कुर्मापुत्र आदि का उल्लेख आधार पर इनके उपदेशों का संकलन ऋषिभाषित में कर लिया गया है। बौद्ध परम्परा में भी है। किन्तु मधुरायण, सोरियायण आर्यायन आदि उपर्युक्त चर्चा के आधार पर निष्कर्ष के रूप में हम यह अवश्य जिनका उल्लेख ऋषिभाषित के अतिरिक्त हिन्दू, जैन और बौद्ध परम्परा कह सकते हैं कि ऋषिभाषित के ऋषियों में उपर्युक्त चार-पाँच नामों में अन्यत्र नहीं मिलता है उन्हें भी पूर्णतया काल्पनिक व्यक्ति नहीं कह को छोड़कर शेष सभी प्रागैतिहासिक और ऐतिहासिक काल के यथार्थ सकते। यदि हम ऋषिभाषित के ऋषियों की सम्पूर्ण सूची का अवलोकन व्यक्ति हैं, काल्पनिक चरित्र नहीं हैं। करें तो केवल सोम, यम, वरुण, वायु और वैश्रमण, ऐसे नाम हैं निष्कर्ष रूप में हम इतना ही कहना चाहेंगे कि ऋषिभाषित न जिन्हें काल्पनिक कहा जा सकता है, क्योंकि जैन, बौद्ध और वैदिक केवल जैन परम्परा की अपितु समग्र भारतीय परम्परा की एक अमूल्य तीनों ही परम्पराएँ इन्हें सामान्यतया लोकपाल के रूप में ही स्वीकार निधि है और इसमें भारतीय चेतना की धार्मिक उदारता अपने यथार्थ करती हैं, किन्तु इनमें भी महाभारत में वायु का उल्लेख एक ऋषि रूप में प्रतिबिम्बित होती है। ऐतिहासिक दृष्टि से भी इसका महत्त्वपूर्ण के रूप में मिलता है। यम को आवश्यकचूर्णि में यमदग्नि ऋषि का स्थान है, क्योंकि यह हमें अधिकांश ज्ञात और कुछ अज्ञात ऋषियों पिता कहा गया है। अत: इस सम्भावना को भी पूरी तरह निरस्त नहीं के सम्बन्ध में और उनके उपदेशों के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण एवं प्रामाणिक किया जा सकता है कि यम कोई ऋषि रहे हों। यद्यपि उपनिषदों में सूचनाएँ देता है। जैनाचार्यों ने इस निधि को सुरक्षित रखकर भारतीय भी यम को लोकपाल के रूप में भी चित्रित किया गया है। किन्तु इतिहास एवं संस्कृत की बहुमूल्य सेवा की है। वस्तुत: यह ग्रन्थ ईसापूर्व इतना ही निश्चित है कि ये एक उपदेष्टा हैं। यम और नचिकेता का १०वीं शती से लेकर ईसापूर्व ६ठीं शती तक के अनेक भारतीय ऋषियों संवाद औपनिषदिक परम्परा में सुप्रसिद्ध ही है। वरुण और वैश्रमण की ऐतिहासिक सत्ता का निर्विवाद प्रमाण है। को भी वैदिक परम्परा में मंत्रोपदेष्टा के रूप में स्वीकार किया गया १. (अ) से किं कालियं? कालियं अणेगविहं पण्णत्तं।
केसिं चि मए अंतभवंति एयाई उत्तरज्झयणे। तं जहा उत्तरज्झयणाई १ दसाओ २ कप्पो ३ ववहारो ४ णिसीहं ५ पणयालीस दिणेहिं केसि वि जोगो अणागाढो ।।६।। महानिसीहं ६ इसिभासियाई ७ जंबुद्दीवपण्णत्ती ८ दीवसागरपण्णत्ती- विधिमार्गप्रपा, पृ० ६२॥ नन्दिसूत्र ८४ (महावीर विद्यालय, बम्बई, १९६८)
(ज्ञातव्य है कि प्रकीर्णकों की संख्या के सम्बन्ध में विधिमार्गप्रपा में (ब) नमो तेसिं खमासमणाणं जेहिं इमं वाइअंग बाहिरं कालिअंभगवंतं भी मतैक्य नहीं है। 'सज्झायपट्ठवणविही' पृ० ४५ पर ११ अंग, तं जहा-१ उत्तरायणाई २ दसाओ ३ कप्पो ४ ववहारो ५ १२ उपांग, ६ छेद, ४ मूल एवं २ चूलिका सूत्र के घटाने पर लगभग इसिभासिआई ६ निसीहं ७ महानिसींह----
३१ प्रकीर्णकों के नाम मिलते हैं। जबकि पृ० ५७-५८ पर (ज्ञातव्य है कि पक्खियसुत्त में अंगबाह्यग्रन्थों की सूची में २८ ऋषिभाषित सहित १५ प्रकीर्णकों का उल्लेख है।) उत्कालिक और ३६ कालिक कुल ६४ ग्रन्थों के नाम हैं। इसमें ६ ६अ. कालियसुयं च इसिभासियाई तइओ य सूरपण्णत्ती। आवश्यक और १२ अंग मिलाने से कल ८२ की संख्या होती है, सव्वो य दिट्ठिवाओ चउत्थओ होई अणुओगो ।।१२४।। (मू० भा०) लगभग यही सूची विधिमार्गप्रपा में भी उपलब्ध होती है।) तथा ऋषिभाषितानि-उत्तराध्ययनादीनि, “तृतीयश्च" कालानुयोग:(-पक्खियसुत्त (पृ० ७९) देवचन्दलालभाई पुस्तकोद्धार फण्ड आवश्यक हारिभद्रीय वृत्ति, पृ०२०६ । सिरीज क्रमांक ९९)
(ब) आवस्सगस्स दसकालिअस्स तह उत्तरज्झमायारे। अंगबाह्यमनेकविधम्। तद्यथा-सामायिकं, चुतर्विशतिस्तवः, वन्दनं, सूयगडे निज्जुतिं वुच्छामि तहा दसाणं च ।। प्रतिक्रमणं, कायव्युत्सर्गः, प्रत्याख्यानं, दशवैकालिकं, उत्तराध्यायाः, कप्पस्स य निज्जुत्तिं ववहारस्सेव परमणिउणस्स। दशाः, कल्पव्यवहारौ, निशीथं ऋषिभाषितानीत्येवमादि।
सूरिअपण्णत्तीए वुच्छं इसिभासिआणं च ।। - तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् (स्वोपज्ञभाष्य) १/२०, (देवचन्दलालभाई
- आवश्यकनियुक्ति, ८४-८५. पुस्तकोद्धार एण्ड) क्रम-संख्या ६७.
पण्हावागरणदसाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता, तंजहा-उवमा, संखा, ३. तथा ऋषिभाषितानि उत्तराध्ययनादीनि-----|-आवश्यकनियुक्ति- इसिभासियाई, आयरियभासिताई, महावीरभासिताई,खोमपसिणाईं, हारिभद्रीयवृत्ति, पृ० २०६.
कोमलपसणाई, अद्दागपसिणाई, अंगुट्ठपसिणाई, बाहुपसिणाई। ऋषिभाषितानां च देवेन्द्रस्तवादीनां नियुक्तिं---|-वही, पृ० ४१। ठाणंगसुवे, दसम अझभयणं दसट्ठाणं। (महावीर जैन विद्यालय इसिभासियाई पणयालीसं अज्झयणाई कालियाई, तेसु दिण ४५ संस्करण, पृ० ३११) निविएहिं अणागाढजोगो। अण्णे भणंति उत्तरज्झयणेसु चेव एयाई ८. चोत्तालीसं अज्झयणा इसिभासिया दियलोगचुताभासिया पण्णत्ता। अतंभवंति। विधिमार्गप्रपा पृ० ५८।
समयवायंगसुत्त-४४। - देविंदत्थयमाई पइण्णगा होंति इगिगनिविएण।
आहेसु महापुरिसा पुव्विं तत्त तवोधणा। इसिभासियअज्झयणा आयंबलिकालतिसज्झा ।।६।।
उदएण सिद्धिभावना तत्थ मंदो विसीयति ।।१।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org