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मूलाचार : एक विवेचन
मूलाचार का महत्त्व
क्योंकि अभी तक श्वेताम्बर परम्परा का कोई भी ग्रन्थ शौरसेनी प्राकृत मूलाचार को वर्तमान में दिगम्बर जैन परम्परा में आगम स्थानीय में लिखा गया हो, यह ज्ञात नहीं होता। यह सत्य है कि शौरसेनी ग्रन्थ के रूप में मान्य किया जाता है। यह ग्रन्थ मुख्यत: अचेल परम्परा प्राकृत में लेखन कार्य मुख्यत: अचेल परम्परा में ही हुआ है। के साधु-साध्वियों के आचार से सम्बन्धित है। यह भी निर्विवाद सत्य किन्तु इसमें कुछ ऐसे भी तथ्य हैं, जिनके आधार पर यह भी है कि दिगम्बर परम्परा में इस ग्रन्थ का उतना ही महत्त्व है जितना नहीं कहा जा सकता कि यह दिगम्बर परम्परा का ग्रन्थ है। सर्वप्रथम कि श्वेताम्बर परम्परा में आचारांग का। यही कारण है कि धवला और तो इसमें आर्यिका को श्रमण के समकक्ष मानकर उसकी मुक्ति का जयधवला (दसवीं शताब्दी) में इसकी गाथाओं को आचारांग की गाथा जो विधान किया गया है वह इसे दिगम्बर ग्रन्थ मानने में बाधा उत्पन्न कहकर उद्धृत किया गया है। यह स्पष्ट है कि दिगम्बर परम्परा में करता है। दिगम्बर परम्परा के बहुश्रुत विद्वान् पं० नाथूराम प्रेमी ने जब आचारांग को लुप्त मान लिया गया, तो उसके स्थान पर मूलाचार अनेक तर्कों के आधार पर कहा है कि यह दिगम्बर परम्परा का ग्रन्थ को ही आचारांग के रूप में देखा जाने लगा। वस्तुत: आचारांग के नहीं है। अत: यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है कि यदि प्राचीनतम अंश प्रथम श्रुतस्कन्ध में अचेलता का प्रतिपादन होते हुए मूलाचार श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों में से किसी परम्परा का ग्रन्थ भी मुनि के वस्त्र-ग्रहण सम्बन्धी कुछ उल्लेख, फिर चाहे वे आपवादिक नहीं है तो फिर किस परम्परा का ग्रन्थ है? यह स्पष्टत: सत्य है कि स्थिति के क्यों न हो, पाये ही जाते हैं। यही कारण था कि अचेलकत्व यह ग्रन्थ अचेलकता आदि के सम्बन्ध में दिगम्बर परम्परा के निकट पर अत्यधिक बल देने वाली यापनीय एवं दिगम्बर परम्परा उसे अपने है किन्तु स्त्री-दीक्षा, स्त्री-मुक्ति, आगमों का मान्य करने आदि कुछ सम्प्रदाय में मान्य न रख सकी और उसके स्थान पर मूलाचार को बातों में श्वेताम्बर परम्परा से भी समानता रखता है। इससे यह स्पष्ट ही अपनी परम्परा का मुनि आचार सम्बन्धी ग्रन्थ मान लिया। सिद्ध होता है कि यह ग्रन्थ एक ऐसी परम्परा का ग्रन्थ है जो कुछ
रूप में श्वेताम्बरों और कुछ रूप में दिगम्बरों से समानता रखती थी। मूलाचार के आधार प्रन्थ
डॉ० उपाध्ये, पं० नाथूराम प्रेमी के लेखों एवं प्राचीन भारतीय अभिलेखीय ___ आर्यिका ज्ञानमती जी ने भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित मूलाचार तथा साहित्यिक साक्ष्यों के अध्ययन से अब यह स्पष्ट हो गया है कि की भूमिका में यह लिखा है कि आचारांग के आधार पर चौदह सौ श्वेताम्बर और दिगम्बरों के बीच एक योजक सेतु का काम करने वाली गाथाओं में ग्रन्थकर्ता ने इस ग्रन्थ की रचना की; किन्तु हमें यह स्मरण ___यापनीय' नाम की एक तीसरी परम्परा भी थी। हम पूर्व में यह स्पष्ट रखना चाहिए कि यह ग्रन्थ आचारांग और विशेष रूप से उसके प्राचीनतम कर चुके हैं कि यापनीय परम्परा जहाँ अचेलकत्व पर बल देने के अंश प्रथम श्रुतस्कन्ध के आधार पर तो बिल्कुल ही नहीं लिखा गया कारण दिगम्बर परम्परा के निकट थी, वहीं स्त्रीमुक्ति, केवलीभुक्ति और है। जिन ग्रन्थों के आधार पर मूलाचार की रचना हुई है वे श्वेताम्बर आगमों की उपस्थिति, आपवादिक रूप में वस्त्र एवं पात्र व्यवहार आदि परम्परा के मान्य बृहद्प्रत्याख्यान, आतुरप्रत्याख्यान, आवश्यकनियुक्ति, से श्वेताम्बर परम्परा के निकट थी। मूलाचार की रचना इसी परम्परा जीवसमास आदि हैं जिनकी सैकड़ों गाथाएँ शौरसेनी रूपान्तरण के में हुई है। आइए इस सम्बन्ध में कुछ अधिक विस्तार से चर्चा करेंसाथ इसमें गृहीत की गई हैं। वस्तुत: मूलाचार श्वेताम्बर परम्परा में मान्य नियुक्तियों एवं प्रकीर्णकों की विषयवस्तु एवं सामाग्री से मूलाचार : यापनीय परम्परा का ग्रन्थ निर्मित है।
बहुश्रुत दिगम्बर विद्वान् पं० नाथूराम जी 'प्रेमी' ने इसे यापनीय
परम्परा का ग्रन्थ माना है, इस सम्बन्ध में वे लिखते हैं - मूलाचार की परम्परा
"मुझे ऐसा लगता है कि यह ग्रन्थ कुन्दकुन्द का तो नहीं ही यद्यपि हमें स्पष्ट रूप से इस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए है, उनकी विचार परम्परा का भी नहीं है, बल्कि यह उस परम्परा का कि यह ग्रन्थ श्वेताम्बर परम्परा का ग्रन्थ नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि जान पड़ता है जिसमें शिवार्य और अपराजित हुए हैं। कुछ बारीकी इसमें मुनि के अचेलकत्व पर जितना अधिक बल दिया गया है उतना से अध्ययन करने से यह बात स्पष्ट हो जाती है"श्वेताम्बर परम्परा के आचारांग को छोड़कर किसी भी आचारपरक ग्रन्थ १. मूलाचार और भगवती आराधना की पचासों गाथाएँ एक सी और में नहीं मिलता। इसे श्वेताम्बर परम्परा का ग्रन्थ मानने में दूसरी कठिनाई समान अभिप्राय प्रकट करने वाली हैं। यह है कि इसकी भाषा न तो अर्धमागधी है और न महाराष्ट्री प्राकृत २. मूलाचार की 'आचेलक्कुद्देसिय' आदि ९०९वीं गाथा भगवती ही; वस्तुत: इसमें अर्धमागधी और महाराष्ट्री प्राकृत में रचित श्वेताम्बर आराधना की ४२१वीं गाथा है। इसमें दस कल्पों के नाम हैं। आगम ग्रन्थों की सैकड़ों गाथाएँ शौरसेनी रूपान्तरण में मिलती हैं। जीतकल्पभाष्य की १९७२वीं गाथा भी यही है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय किन्तु इस आधार पर इसे श्वेताम्बर परम्परा का ग्रन्थ नहीं कह सकते के अन्य टीकाग्रन्थों और नियुक्तियों में भी यह है। प्रमेयकमलमार्तण्ड
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