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आचारांगसूत्र : एक विश्लेषण
करता है।
अतः हम कह सकते हैं कि संक्षेप में आत्मा, पुनर्जन्म, कर्म, बन्धन, आश्रव, संवर, निर्जरा और मुक्ति इन सब अवधारणाओं को चाहे संक्षेप में ही क्यों न सही, स्वीकार करके चलता है फिर भी उपर्युक्त विवेचन से इतना स्पष्ट हो जाता है कि आचारांग, दर्शन के सम्बन्ध में केवल उन्हीं तथ्यों को रखना चाहता है जो उसके आचार- शास्त्र की पूर्व मान्यता के लिए अपरिहार्य है। जैनधर्म का जो विकसित तत्त्वज्ञान है उसका उसमें अभाव ही देखा जाता है, जीव और पुद्रल को छोड़कर आकाश, धर्म, अधर्म और काल की उसमें कोई स्वतन्त्र व्याख्या नहीं।
वासनाओं का दमन नहीं, अपतु उनसे ऊपर उठ जाना है। वह इन्द्रिय निग्रह नहीं, अपितु ऐन्द्रिक अनुभूतियों में भी मन की वीतरागता या समत्व की अवस्था है।
अतः यह स्पष्ट है कि आचारांगसूत्र अपनी विवेचनाओं में मनोवैज्ञानिक आधारों पर खड़ा हुआ है। उत्तम आचार के जो नियमउपनियम बनाये गये हैं, वे भी उसकी मनोवैज्ञानिक दृष्टि के परिचायक हैं, किन्तु यहाँ उन सबकी गहराइयों में जाना सम्भव नहीं है। यद्यपि इस सम्पूर्ण विवेचना का यह अर्थ भी नहीं है कि आचारांग में जो कुछ कहा गया, वह सभी मनोवैज्ञानिक सत्यों पर आधारित है अहिंसा, समता और अनासक्ति के जो आदर्श उसमें प्रस्तुत किये गए हैं, वे चाहे मनोवैज्ञानिक आधारों पर अधिष्ठित हों, किन्तु उनकी जीवन में पूर्ण उपलब्धि की संभावनाओं पर मनोवैज्ञानिक दृष्टि से ही प्रश्न चिह्न भी लगाया जा सकता है। ये आदर्श के रूप में चाहे कितने ही सुहावने हों, किन्तु मानव जीवन में इनकी व्यावहारिक सम्भावना कितनी है, यह विवाद का विषय बन सकता है फिर भी मानवीय दुर्बलता के आधार पर उनसे विमुख होना उचित नहीं होगा। क्योंकि इनके द्वारा ही न केवल मनुष्य का आध्यात्मिक विकास होगा, अपतु लोक मंगल की भावना भी साकार बन सकेगी।
आचारांग में प्रतिपादित तत्त्वज्ञान
जैसा कि हम संकेत कर चुके हैं कि आचारांग मूलतः दर्शन का ग्रन्थ न होकर आचार शास्त्र का ग्रन्थ है फिर भी ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि उसमें दर्शन के तत्त्वों का पूर्णतः अभाव है। आचारांग का प्रारम्भ ही एक पारिणामिक नित्य आत्मा की अवधारणा से होता है। आचारांग आत्मा और पुनर्जन्म की अवधारणा को स्वीकार करके चलता है। वह कर्म की अवधारणा को भी स्वीकार करता है तथा यह मानता है कि कर्म ही बन्धन के कारण हैं। यदि हम सूक्ष्मता से देखें तो उसमें कर्म को पौगलिक मानकर कर्म शरीर का भी उल्लेख किया गया है, और साधक को कहा गया है कि वह कर्म शरीर का ही विधूनन करे। इसी प्रकार आचारांग में आश्रव, संवर और प्रकारान्तर से निर्जरा की व्यवस्थायें भी उपलब्ध हो जाती हैं। आचारांग मुक्तात्मा के अनिर्वचनीय स्वरूप की भी औपनिषदिक शैली में व्याख्या
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आचारांग के आचार - नियम
जहाँ तक आचारांग में प्रतिपादित आचार नियमों का प्रश्न है मूलतः वे सभी नियम अहिंसा के केन्द्र में रखकर बनाये गये हैं। आचारांग के आचार नियमों का केन्द्रबिन्दु अहिंसा का परिपालन ही है। जीवन में अहिंसा और अनासक्ति को किस चरमसीमा तक अपनाया जा सकता है इसका आदर्श हमें आचारांग में देखने को मिल सकता है। आचारांग के दो श्रुतस्कन्धों में जहाँ प्रथम श्रुतस्कन्ध आचार के सामान्य सिद्धान्तों को प्रस्तुत करता है वहाँ द्वितीय श्रुतस्कन्ध उसके व्यवहार पक्ष को स्पष्ट करने का प्रयास करता है। विद्वानों ने आचारांग के दूसरे श्रुतस्कन्ध को प्रथम श्रुतस्कन्ध की व्यावहारिक व्याख्या ही माना है। प्रथम श्रुतस्कन्ध में मूलतः अहिंसा, अनासक्ति तथा कषायों और वासनाओं के विजय का सूत्र रूप में संकेत किया गया है। जबकि दूसरे श्रुतस्कन्ध में इनसे ऊपर उठकर कैसा जीवन जिया जा सकता है इसका चित्रण किया गया है। दूसरा श्रुतस्कन्ध मूलतः मुनि जीवन में भोजन, वस्त्र, पात्र आदि सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति किस प्रकार की जाय इसका विस्तार से विवेचन करता है। इस श्रुतस्कन्ध का अन्तिम भाग जहाँ एक ओर महावीर का जीवनवृत्त प्रस्तुत करता है वहीं दूसरी ओर यह इन्द्रिय विजय की मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया पर भी प्रकाश डालता है। यद्यपि आचारांग का आचारपक्ष व्यावहारिक दृष्टि से कठोर कहा जा सकता है, किन्तु उसमें साधना के जिस आदर्श स्वरूप का चित्रण है, उसके मूल्य को नकारा नहीं जा सकता।
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