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प्रश्नव्याकरणसूत्र की प्राचीन विषयवस्तु की खोज
७५ प्रश्नव्याकरण अंग की सीमित वाचनायें हैं, संख्यात अनुयोग में ऋषिभाषित, आचार्यभाषित और महावीरभाषित ही इसकी प्रमुख द्वार हैं, संख्यात प्रतिपत्तियाँ हैं, संख्यात वेढ हैं, संख्यात श्लोक हैं, विषयवस्तु रही होगी। ऋषिभाषित में 'वागरण' ग्रन्थ का एवं उसकी संख्यात नियुक्तियाँ हैं और संख्यात सग्रहणियाँ हैं।
विषयवस्तु की ऋषिभासित से समानता का उल्लेख है। इससे प्रश्नव्याकरण अंगरूप से दसवाँ अंग है, इसमें एक श्रुतस्कन्ध । प्राचीनकाल (ई०पू० ४थी या ३री शताब्दी) में उसके अस्तित्त्व की है, पैंतालीस उद्देशन काल हैं, पैंतालीस समुद्देशन काल हैं, पद-गणना सूचना तो मिलती ही है साथ ही प्रश्नव्याकरण और ऋषिभाषित का की अपेक्षा संख्यात लाख पद कहे गये हैं। इसमें संख्यात अक्षर हैं, सम्बन्ध भी स्पष्ट होता है। अनन्त गम हैं, अनन्त पर्याय हैं, परीत त्रस हैं, अनन्त स्थावर हैं, स्थानांगसूत्र में प्रश्नव्याकरण का वर्गीकरण दस दशाओं में किया इसमें शाश्वत कृत, निबद्ध, निकाचित जिन-प्रज्ञप्त भाव कहे जाते हैं, है। सम्भवत: जब प्रश्नव्याकरण के इस प्राचीन संस्करण की रचना प्रज्ञापित किये जाते हैं, प्ररूपित किये जाते हैं, निदर्शित किये जाते हुई होगी तब ग्यारह अंगों अथवा द्वादश गणिपिटिक की अवधारणा हैं और उपदर्शित किये जाते हैं। इस अंग के द्वारा आत्मा ज्ञाता होता भी स्पष्ट रूप से नहीं बन पायी थी। अंग-आगम साहित्य के ५ ग्रन्थ है, विज्ञाता होता है। इस प्रकार चरण और करण की प्ररूपणा के उपासकदशा, अन्तकृद्दशा, प्रश्नव्याकरणदशा, अनुत्तरौपपातिक दशा द्वारा वस्तु-स्वरूप का कथन, प्रज्ञापन, निदर्शन और उपदर्शन किया तथा कर्मविपाकदशा (विपाकदशा) दस दशाओं में ही परिगणित किये जाता हैं।
जाते थे। आज इन दशाओं में उपर्युक्त पाँच तथा आचारदशा, जो (स) नन्दीसूत्र- नन्दीसूत्र में प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु का । आज दशाश्रुतस्कन्ध के नाम से जानी जाती है, को छोड़कर शेष चारजो उल्लेख है वह समवायांग के विवरण का मात्र संक्षिप्त रूप है। बन्धदशा, द्विगृद्धिदशा, दीर्घदशा और संक्षेपदशा-अनुपलब्ध हैं। उसके भाव और भाषा दोनों ही समान हैं। मात्र विशेषता यह है कि उपलब्ध छह दशाओं में भी उपासकदशा और आयारदशा की विषयवस्तु इसमें प्रश्नव्याकरण के ४५ अध्ययन बताये गये हैं, जबकि समवायांग स्थानांग में उपलब्ध विवरण के अनुरूप है। कर्मविपाक और में केवल ४५ समुद्देशन कालों का उल्लेख है, ४५ अध्ययन का उल्लेख अनुसरौपपातिकदशा की विषयवस्तु में कुछ समानता है और कुछ भित्रता समवायांग में नहीं है।
है। जबकि प्रश्नव्याकरणदशा और अन्तकृद्दशा की विषयवस्तु पूरी तरह (द) तत्त्वार्थवार्तिक- तत्त्वार्थवार्तिक में प्रश्नव्याकरण की व्याख्या बदल गई है। स्थानांग में प्रश्नव्याकरण की जो विषयवस्तु सूचित की करते हुए कहा गया है कि आक्षेप और विक्षेप के द्वारा हेतु और नय गई है वही इसका प्राचीनतम संस्करण लगता है, क्योंकि यहाँ तक के आश्रय से प्रश्नों के व्याकरण को प्रश्नव्याकरण कहते है। इसमें इसकी विषयवस्तु में नैमित्तिक विद्याओं का अधिक प्रवेश नहीं देखा लौकिक और वैदिक अर्थों का निर्णय किया जाता है।६
जाता है। स्थानांग प्रश्नव्याकरण के जिन दश अध्ययनों का निर्देश (इ) धवला- धवला में प्रश्नव्याकरण की जो विषयवस्तु बताई करता है, उनमें भी मेरी दृष्टि में इसिभासियाई, आयरियभासियाइं और गई है वह तत्त्वार्थवार्तिक में प्रतिपादित विषय-वस्तु से किंचित् विभिन्नता महावीरभासियाइं-ये तीन प्राचीन प्रतीत होते हैं। 'उवमा' और 'संखा' रखती है। उसमें कहा गया है कि प्रश्नव्याकरण में आक्षेपणी, विक्षेपणी, की सामग्री क्या थी? कहा नहीं जा सकता। यद्यपि मेरी दृष्टि में 'उवमा' संवेदनी और निवेदनी-इन चार प्रकार की कथाओं का वर्णन है। उसमें में कुछ रूपकों के द्वारा धर्म-बोध कराया गया होगा। जैसा कि यह भी स्पष्ट किया गया है कि आक्षेपणी कथा परसमयों (अन्य मतों) ज्ञाताधर्मकथा में कर्म और अण्डों के रूपकों द्वारा क्रमश: यह समझाया का निराकरण कर ६ द्रव्यों और नव तत्त्वों का प्रतिपादन करती है। गया है कि जो इन्द्रिय संयम नहीं करता है वह दुःख को प्राप्त होता विक्षेपणी कथा परसमय के द्वारा स्वसमय पर लगाये गये आक्षेपों का है और जो साधना में अस्थिर-चित्त रहता है वह फल को प्राप्त नहीं निराकरण कर स्वसमय की स्थापना करती है। संवेदनी कथा पुण्यफल करता है। इसी प्रकार ‘संखा' में स्थानांग और समवायांग के समान की कथा है। इसमें तीर्थङ्कर, गणधर, ऋषि, चक्रवर्ती आदि की ऋद्धि संख्या के आधार पर वर्णित सामग्री हो। यद्यपि यह भी संभव हैं कि का विवरण है। निवेदनी कथा पाप फल की कथा है, इसमें नरक, संखा नामक अध्ययन का सम्बन्ध सांख्य दर्शन से रहा हो। क्योंकि तिर्यंच, जरा-मरण, रोग आदि सांसारिक दुःखों का वर्णन किया जाता अन्य परम्पराओं के विचारों को प्रस्तुत करने की उदारता इस ग्रन्थ है। उसमें यह भी कहा गया है कि प्रश्नव्याकरण प्रश्नों के अनुसार में थी। साथ ही प्राचीन काल में सांख्य श्रमणधारा का ही दर्शन था हत, नष्ट, मुष्टि, चिन्ता, लाभ, अलाभ, सुख, दुःख, जीवित, मरण, और जैन दर्शन से उसकी निकटता थी। ऐसा प्रतीत होता है कि जय, पराजय, नाम, द्रव्य, आयु और संख्या निरूपण करता है। अद्दागपसिणाई, बाहुपसिणाई आदि अध्यायों का सम्बन्ध भी निमित्तशास्त्र
इस प्रकार प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु के सम्बन्ध में प्राचीन से न होकर इन नामवाले व्यक्तियों की तात्त्विक परिचर्चा से रहा हो उल्लेखों में एकरूपता नहीं है।
जो क्रमश: आर्द्रक और बाहुक नामक ऋषियों की तत्त्वचर्चा से सम्बन्धित
रहे होंगे। अद्दागपसिणाई की टीकाकारों ने 'आदर्श प्रश्न' ऐसी जो प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु सम्बन्धी विवरणों की समीक्षा संस्कृत छाया की है वह भी उचित नहीं है। उसकी संस्कृत छाया
मेरी दृष्टि में प्रश्नव्याकरणसूत्र की विषयवस्तु के तीन संस्कार 'आर्द्रक प्रश्न' ऐसी होना चाहिए। आईक से हुए प्रश्नोत्तरों की चर्चा हुए होंगे। प्रथम एवं प्राचीनतम संस्कार, जो 'वागरण' कहा जाता था, सूत्रकृतांग में मिलती है साथ ही वर्तमान ऋषिभाषित में भी 'अद्दाएण'
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