________________
जैन, बौद्ध और औपनिषदिक ऋषियों के उपदेशों का प्राचीनतम
सङ्कलन : ऋषिभाषित
जैन आगम-साहित्य में ऋषिभाषित का स्थान
विधि को समाप्त किया है। उन्होंने जिन प्रकीर्णकों का उल्लेख किया ऋषिभाषित-(इसिभासियाई) अर्धमागधी जैन आगम-साहित्य का है उनमें ऋषिभाषित भी समाहित है। इस प्रकार वर्गीकरण की प्रचलित एक प्राचीनतम ग्रन्थ है। वर्तमान में जैन आगमों के वर्गीकरण की पद्धति में ऋषिभाषित की गणना प्रकीर्णक सूत्रों में की जा सकती है। जो पद्धति प्रचलित है, उसमें इसे प्रकीर्णक ग्रन्थों के अन्तर्गत वर्गीकृत प्राचीनकाल में जैन परम्परा में इसे एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ माना किया जाता है। दिगम्बर परम्परा में १२ अंग और १४ अंगबाह्य माने जाता था। आवश्यकनियुक्ति में भद्रबाहु ऋषिभाषित पर भी नियुक्ति गये हैं; किन्तु उनमें ऋषिभाषित का उल्लेख नहीं है। श्वेताम्बर जैन लिखने की प्रतिज्ञा करते हैं, वर्तमान में यह नियुक्ति उपलब्ध नहीं परम्परा में स्थानकवासी और तेरापंथी, जो ३२ आगम मानते हैं , होती है। आज तो यह कहना भी कठिन है कि यह नियुक्ति लिखी उनमें भी ऋषिभाषित का उल्लेख नहीं है। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा गई थी या नहीं। यद्यपि 'इसिमण्डल' जिसका उल्लेख आचारांगचूर्णि में ११ अंग, १२ उपांग, ६ छेदसूत्र, ४ मूलसूत्र, २चूलिकासूत्र और में है, इससे सम्बन्धित अवश्य प्रतीत होता है। इन सबसे इतना तो १० प्रकीर्णक, ऐसे जो ४५ आगम माने जाते हैं, उनमें भी १० प्रकीर्णको सिद्ध हो जाता है कि ऋषिभाषित एक समय तक जैन परम्परा का मे हमें कहीं ऋषिभाषित का नाम नहीं मिलता। यद्यपि नन्दीसूत्र और महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ रहा है। स्थानांग में इसका उल्लेख प्रश्नव्याकरणदशा पाक्षिकसूत्र में जो कालिक सूत्रों की गणना की गयी है उनमें ऋषिभाषित के एक भाग के रूप में हुआ है। समवायांग इसके ४४ अध्ययनों का उल्लेख है। आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थभाष्य में अंगबाह्य ग्रन्थों का उल्लेख करता है। नन्दीसूत्र, पाक्षिकसूत्र आदि में इसकी गणना की जो सूची दी है उसमें सर्वप्रथम सामायिक आदि ६ ग्रन्थों का उल्लेख कालिकसूत्रों में की गई है। आवश्यकनियुक्ति इसे धर्मकथानुयोग का है और उसके पश्चात् दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, दशा (आचारदशा), ग्रन्थ कहती है (आवश्यकनियुक्ति-हारिभद्रीयवृत्ति, पृ० २०६)। कल्प, व्यवहार, निशीथ और ऋषिभाषित का उल्लेख है। हरिभद्र आवश्यकनियुक्ति की वृत्ति में एक स्थान पर इसका उल्लेख उत्तराध्ययन ऋषिभाषित का रचनाक्रम एवं काल के साथ करते हैं और दूसरे स्थान पर 'देविंदथय' नामक प्रकीर्णक यह ग्रन्थ अपनी भाषा, छन्दयोजना और विषयवस्तु की दृष्टि के साथ।' हरिभद्र के इस भ्रम का कारण यह हो सकता है कि उनके से अर्धमागधी जैन आगम ग्रन्थों में अतिप्राचीन है। मेरी दृष्टि में यह सामने ऋषिभाषित (इसिभासियाई) के साथ-साथ ऋषिमण्डलस्तव ग्रन्थ आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध से किंचित् परवर्ती तथा सूत्रकृतांग, (इसिमण्डलथउ) नामक ग्रन्थ भी था, जिसका उल्लेख आचारांगचूर्णि उत्तराध्ययन एवं दशवैकालिक जैसे प्राचीन आगम ग्रन्थों की अपेक्षा में है और उनका उद्देश्य ऋषिभाषित को उत्तराध्ययन के साथ और पूर्ववर्ती सिद्ध होता है। इतना सुनिश्चित है कि इसकी छन्दयोजना, ऋषिमण्डलस्तव को 'देविंदथय' के साथ जोड़ने का होगा। यह भी शैली एवं भाषा अत्यन्त प्राचीन है। मेरी दृष्टि में इसका वर्तमान स्वरूप स्मरणीय है कि इसिमण्डल (ऋषिमण्डल) में न केवल ऋषिभाषित भी किसी भी स्थिति में ईसापूर्व तीसरी-चौथी शताब्दी से परवर्ती सिद्ध के अनेक ऋषियों का उल्लेख है, अपित इसिभासियाई में उनके जो नहीं होता है। स्थानांग में प्राप्त सूचना के अनुसार यह ग्रन्थ प्रारम्भ उपदेश और अध्याय हैं उनका भी संकेत है। इससे यह भी निश्चित में प्रश्नव्याकरणदशा का एक भाग था, स्थानांग में प्रश्नव्याकरणदशा होता है कि इसिमण्डल का कर्ता ऋषिभाषित से अवगत था। मात्र की जो दस दशाएँ वर्णित हैं, उनमें ऋषिभाषित का भी उल्लेख है। यही नहीं ऋषिमण्डल में तो क्रम और नामभेद के साथ ऋषिभाषित समवायांग इसके ४४ अध्ययन होने की भी सूचना देता है। अतः के लगभग सभी ऋषियों का भी उल्लेख मिलता है। इसिमण्डल का यह इनका पूर्ववर्ती तो अवश्य ही है। सूत्रकृतांग में नमि, बाहुक, रामपुत्त, उल्लेख आचारांगचूर्णि 'इसिणामकित्तणं इसिमण्डलस्थउ ' (पृ० ३७४) असितदेवल, द्वैपायन, पराशर आदि ऋषियों का एवं उनकी आचारगत में होने से यह निश्चित ही उसके पूर्व (७वीं शती) का पूर्व के ग्रन्थ मान्यताओं का किंचित् निर्देश है। इन्हें तपोधन और महापुरुष कहा है। विद्वानों को इस सम्बन्ध में विशेष रूप से चिन्तन करना चाहिए। गया है। उसमें कहा गया है कि ये पूर्व ऋषि इस (आर्हत् प्रवचन) इसिमण्डल के संबंध में यह मान्यता है कि वह तपागच्छ के धर्मघोषसूरि में ‘सम्मत' माने गये हैं। इन्होंने (सचित्त) बीज और पानी का सेवन की रचना है, किन्तु यह धारणा मुझे भ्रान्त प्रतीत होती है क्योंकि करके भी मोक्ष प्राप्त किया था। अत: पहला प्रश्न यही उठता है ये १४ वीं शती के आचार्य हैं। वस्तुत: इसिमण्डल की भाषा से भी कि इन्हें सम्मानित रूप में जैन परम्परा में सूत्रकृतांग के पहले किस ऐसा लगता है कि यह प्राचीन ग्रन्थ है और इसका लेखक ऋषिभाषित ग्रन्थ में स्वीकार किया गया है। मेरी दृष्टि में केवल ऋषिभाषित ही का ज्ञाता है। आचार्य जिनप्रभ ने विधिमार्गप्रपा में तप आराधना के एक ऐसा ग्रन्थ है, जिसमें इन्हें सम्मानित रूप से स्वीकार किया गया। साथ आगमों के स्वाध्याय की जिस विधि का वर्णन किया है, उसमें सूत्रकृतांग की गाथा का 'इस-सम्मता' शब्द स्वयं सूत्रकृतांग की अपेक्षा प्रकीर्णकों में ऋषिभाषित का उल्लेख करके प्रकीर्णक अध्ययन क्रम ऋषिभाषित के पूर्व अस्तित्व की सूचना देता है। ज्ञातव्य है कि सूत्रकृतांग
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org