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आचारांगसूत्र : एक विश्लेषण विश्लेषण प्राप्त होता है। सूत्रकार स्पष्ट रूप से कहता है कि-"आसं वह मोह (अविद्या) को देख लेता है, और जो मोह को देखता है च छंदं च विगिंच धीरे। तुमंच चेव तं सल्लमाहट्ट-१२।४। हे धीर वह गर्भ (भावी जन्म) को देखता है और जो गर्भ को देखता है वह पुरुष! विषय भोगों की आकांक्षा और तत्संबंधी संकल्प-विकल्पों का जन्म-मरण की प्रक्रिया को देख लेता है। इस प्रकार एक कषाय का परित्याग करो। तुम स्वयं इस काँटे को अपने अन्त:करण में रखकर सम्यक् विश्लेषण उससे संबंधित अन्य कषायों का तथा उनके दुःखी हो रहे हो। इस प्रकार आचारांग बन्धन, पीड़ा या दुःख के। परिणामों और कारणों का सम्यक् बोध करा देता है (१।३।४); प्रति एक आत्मनिष्ठ एवं मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। वह क्योंकि सभी मनोवृत्तियाँ परस्पर सापेक्ष होकर रहती हैं। जहाँ मोह कहता है-जे आसवा ते परिस्सवा जे परिस्सवा, ते आसवा (१।४।२) होता है वहाँ राग-द्वेष होते हैं, वहाँ लोभ होता ही है। जहाँ लोभवृत्ति अर्थात् बाहर में जो बन्धन के निमित्त हैं वे भी कभी मुक्ति के निमित्त होती है वहाँ माया या कपटाचार आ ही जाता है। जहाँ कपटाचार बन जाते हैं। इसका आशय यही है कि बन्धन और मुक्ति का सारा होता है वहाँ उसके पीछे मान या अहंकार का प्रश्न जुड़ा रहता खेल साधक के अंतरंग भावों पर आधारित है। यदि इसी प्रश्न पर है और जहाँ मान या अहंकार होता है उसके साथ क्रोध जुड़ा रहता हम आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से विचार करें तो यह पाते हैं कि है। राग के बिना द्वेष का और द्वेष के बिना राग का टिकाव नहीं आधुनिक मनोविकृतियों के कारणों का विश्लेषण करते हुए स्पष्ट रूप है। इसी प्रकार क्रोध का टिकाव अहंकार पर और अहंकार का टिकाव से यह बताया गया है कि आकांक्षाओं का उच्चस्तर ही मन में कुण्ठाओं मायाचार पर, मायाचार का टिकाव लोभ पर निर्भर करता है। कोई को उत्पन्न करता है और उन कुण्ठाओं के कारण मनोग्रन्थियों की रचना भी कषाय दूसरी कषाय से पूरी तरह निरपेक्ष होकर नहीं रह सकती होती है, जो अन्ततोगत्वा व्यक्ति में मनोविकृतियों को उत्पन्न है, अत: किसी एक कषाय का समग्र भाव से विजेता सभी करती है।
कषायों का विजेता बन जाता है और एक का द्रष्टा सभी का द्रष्टा
बन जाता है। मनोवृत्तियों की सापेक्षता
आचारांगसूत्र में क्रोध, मान, माया, लोभ, राग (प्रेम), द्वेष, मोह कवाय-विजय का उपाय : द्रष्टा या साक्षीभाव आदि की परस्पर की सापेक्षता को सूचित करते हुए यह बताया गया आचारांग में मुनि और अमुनि का अन्तर स्पष्ट करते हुए है कि जो इनमें से किसी एक को भी सम्यक् प्रकार जान लेता है बताया गया है कि जो सोता है, वह अमुनि है, जो जागता है वह वह अन्य सभी को जान लेता है और जो एक पर पूर्ण विजय प्राप्त मुनि है। यहाँ जागने का तात्पर्य है अपने प्रति, अपनी मनोवृत्तियों कर लेता है, वह अन्य सभी पर विजय प्राप्त कर लेता है। के प्रति सजग होना या अप्रमत्तचेता होना है। प्रश्न हो सकता है कि (जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ, जे अप्रमत्तचेता या सजग होना क्यों आवश्यक है? वस्तुत: जब एगं नामे से बहुं नामे जे बहुं नामे से एगं नामे-१३।४) आश्चर्य व्यक्ति अपने अन्तर में झाँककर अपनी वृत्तियों का द्रष्टा बनता है तो यही है कि अभी तक इन सूत्रों के तत्त्वमीमांसीय या ज्ञानमीमांसीय दुर्विचार और दुष्पवृत्तियाँ स्वयं विलीन होती जाती हैं। जब घर का अर्थ लगाये गये और इनके मनोवैज्ञानिक सन्दर्भ को ओझल किया मालिक जागता है तो चोर प्रवेश नहीं करते हैं, उसी प्रकार जो गया, जबकि ये सूत्र विशुद्ध रूप से मनोवैज्ञानिक हैं, क्योंकि इस साधक सजग हैं, अप्रमत्त हैं, तो उनमें कषायें पनप नहीं सकतीं, उद्देशक का सम्पूर्ण सन्दर्भ कषायों से सम्बन्धित है, जो मनोविज्ञान क्योंकि कषाय स्वयं प्रमाद है, तथा प्रमाद और अप्रमाद एक साथ का विषय है। इन कषायों के दुश्चक्र से वही मुक्त हो सकता है, जो नहीं रह सकते हैं। अत: अप्रमाद होने पर कषाय पनप नहीं अप्रमत्त चेता है, क्योंकि जैसे ही व्यक्ति इनके प्रति सजग बनता है, सकते। आचारांगसूत्र में बार-बार कहा गया है,-'तू देख' "तू देख इनके कारणों और परिणामों को देखने लगता है, वह मनोवृत्तियों के (पास! पास!)। यहाँ देखने का तात्पर्य है अपने प्रति या अपनी वृत्तियों पारस्परिक सम्बन्ध स्पष्ट होते हुए पाता है। जब व्यक्ति क्रोध को देखता के प्रति सजग होना। क्योंकि जो द्रष्टा है, वही निरुपाधिक दशा को है, तो क्रोध के कारणभूत द्वेषभाव और द्वेष के कारणभूत रागभाव प्राप्त हो सकता है (किमस्थि उवाही पासगस्स, ण विज्जइ? नत्थि को भी देख लेता है। जब वह अहं या मान का द्रष्टा बनता है, तो १।३।४)। अहं की तुष्टि के लिये मायावी मुखौटों का जीवन भी उसके सामने वस्तुत: आत्मा जब अपने शुद्ध ज्ञाता स्वरूप में अवस्थित होती स्पष्ट हो जाता है। सूत्रकार ने पूरी स्पष्टता के साथ इस बात को प्रस्तुत है, संसार के समस्त पदार्थ ही नहीं वरन् उसकी अपनी चित्तवृत्तियाँ किया कि किस प्रकार किसी एक मनोवृत्ति (कवाय) का द्रष्टा दूसरी और मनोभाव भी उसे 'पर' (स्व से भिन्न) प्रतीत होते हैं। जब वह सभी सापेक्ष रूप में रही हुई मनोवृत्तियों का द्रष्टा बन जाता है। वह 'पर' को 'पर' के रूप में जान लेता है और उससे अपनी पृथकता कहता है-जो क्रोध को देखता है, वह मान (अंहकार) को देख लेता का बोध कर लेता हैं तब वह अपने शुद्ध ज्ञायक स्वरूप को जानकर है। जो मान को देखता है वह माया (कपटवृत्ति) को देख लेता है। उसमें अवस्थित हो जाता है। यही वह अवसर होता है, जब मुक्ति जो माया को देखता है वह लोभ को देख लेता है। जो लोभ को का द्वार उद्घाटित होता है, क्योंकि जिसने 'पर' को 'पर' के रूप देखता है वह राग-द्वेष को देख लेता है। जो राग-द्वेष को देखता है, में जान लिया है उसके लिए ममत्व या राग के लिए कोई स्थान ही
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