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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ शती में निर्मित अवधारणाओं की उपस्थिति उन्हें श्वेताम्बर आगमों और का सृजन हुआ है। पैशाची प्राकृत के प्रभाव से युक्त मात्र एक ग्रन्थउमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र (लगभग चतुर्थ शती) से परवर्ती ही सिद्ध प्राकृत धम्मपद मिला है। इन्हीं जन-बोलियों को जब एक साहित्यिक करती हैं, क्योंकि इनमें ये अवधारणाएँ अनुपस्थित हैं। इस सम्बन्ध भाषा का रूप देने का प्रयत्न जैनाचार्यों ने किया, तो उसमें भी आधारगत में मैंने अपने ग्रन्थ 'गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण' और 'जैन विभिन्नता के कारण शब्द रूपों की विभिनता रह गई। सत्य तो यह धर्म का यापनीय सम्प्रदाय' में विस्तार से प्रकाश डाला है। इस प्रकार है कि विभिन्न बोलियों पर आधारित होने के कारण साहित्यिक प्राकृतों सत्य तो यह है कि अर्धमागधी भाषा या अर्धमागधी आगम नहीं, अपितु में भी शब्द रूपों की यह विविधता रह जाना स्वाभाविक है। शौरसेनी भाषा ईसा की दूसरी शती के पश्चात् और शौरसेनी आगम विभिन्न बोलियों की लक्षणगत विशेषताओं के कारण ही प्राकृत ईसा० की ५ वी शती के पश्चात् अस्तित्व में आये। अच्छा होगा कि भाषाओं के विविध रूप बने हैं। बोलियों के आधार पर विकसित इन भाई सुदीप जी पहले मागधी और पालि तथा अर्धमागधी और महाराष्ट्री प्राकृतों के जो मागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री आदि रूप बने हैं, उनमें के अन्तर एवं इनके प्रत्येक के लक्षणों तथा जैन आगमिक साहित्य भी प्रत्येक में वैकल्पिक शब्द रूप पाये जाते हैं। अत: उन सभी में के ग्रन्थों के कालक्रम और जैन इतिहास को तटस्थ दृष्टि से समझ व्याकरण की दृष्टि से पूर्ण एकरूपता का अभाव है। फिर भी भाषाविदों लें और फिर प्रमाण सहित अपनी कलम निर्भीक रूप से चलायें, व्यर्थ । ने व्याकरण के नियमों के आधार पर उनकी कुछ लक्षणगत विशेषताएँ की आधारहीन भ्रान्तियाँ खड़ी करके समाज में कटुता के बीज न बोयें। मान ली हैं जैसे मागधी में "स" के स्थान पर “श", "र" के स्थान
पर "ल" का उच्चारण होता है। अत: मागधी में “पुरुष" का "पुलिश" जैन आगमों में हुआ भाषिक स्वरूप परिवर्तन
और "राजा" का "लाजा' रूप पाया जाता है, जबकि महाराष्ट्री में जैन आगम मूलत: प्राकृत भाषा में निबद्ध हैं, किन्तु प्राकृत एक "पुरिस" और "राया" रूप बनता है। जहाँ अर्द्धमागधी में "त" श्रुति भाषा न होकर, भाषा समूह है। प्राकृत के इन अनेक भाषिक रूपों की प्रधानता है और व्यंजनों के लोप की प्रवृत्ति अल्प है, वहीं शौरसेनी का उल्लेख हेमचन्द्र प्रभृति प्राकृत-व्याकरणविदों ने किया है। प्राकृत में “द" श्रुति की और महाराष्ट्री में "य" श्रुति की प्रधानता पायी के जो विभिन्न भाषिक रूप उपलब्ध हैं, उन्हें निम्न भाषिक वर्गों में जाती है तथा लोप की प्रवृत्ति अधिक है। दूसरे शब्दों में अर्द्धमागधी विभक्त किया जाता है- मागधी, अर्द्धमागधी, शौरसेनी, जैन-शौरसेनी, में "त" यथावत् रहता है, शौरसेनी में "त" के स्थान पर “द" और महाराष्ट्री, जैन महाराष्ट्री, पैशाची, ब्राचड, चूलिका, ढक्की आदि। इन महाराष्ट्री में लुप्त-व्यंजन के बाद शेष रहे “अ” का “य' होता है। विभिन्न प्राकृतों से ही आगे चलकर अपभ्रंश के विविध रूपों का प्राकृतों में इन लक्षणगत विशेषताओं के बावजूद भी धातु रूपों एवं विकास हुआ और जिनसे कालान्तर में असमिया, बंगला, उड़िया, शब्द रूपों में अनेक वैकल्पिक रूप तो पाये ही जाते हैं। यहाँ यह भोजपुरी या पूर्वी हिन्दी, पंजाबी, राजस्थानी, गुजराती, मराठी आदि भी स्मरण रहे कि नाटकों में प्रयुक्त विभिन्न प्राकृतों की अपेक्षा जैन भारतीय भाषाएँ अस्तित्व में आयीं। अत: प्राकृतें सभी भारतीय भाषाओं ग्रन्थों में प्रयुक्त इन प्राकृत भाषाओं का रूप कुछ भिन्न है और किसी की पूर्वज हैं और आधुनिक हिन्दी का विकास भी इन्हीं के आधार सीमा तक उनमें लक्षणगत बहुरूपता भी है। इसीलिए जैन आगमों पर हुआ।
में प्रयुक्त मागधी को अर्धमागधी कहा जाता है, क्योंकि उसमें मागधी प्राकृत के सन्दर्भ में हमें एक दो बातें और समझ लेना चाहिए। के अतिरिक्त अन्य बोलियों के प्रभाव के कारण मागधी से भिन्न लक्षण प्रथम तो यह कि प्राकृत भाषा की आधारगत बहुविधता का कारण भी पाये जाते हैं। जहाँ अभिलेखीय प्राकृतों का प्रश्न है उनमें शब्द यह है कि उसका विकास विविध बोलियों से हुआ है और बोलियों रूपों की इतनी अधिक विविधता या भित्रता है कि उन्हें व्याकरण में विविधता होती है। साथ ही उनमें देश कालगत प्रभावों और की दृष्टि से व्याख्यायित कर पाना सम्भव ही नहीं है क्योंकि उनकी मुख-सुविधा (उच्चारण सुविधा) के कारण परिवर्तन होते रहते हैं। प्राकृत प्राकृत साहित्यिक प्राकृत न होकर स्थानीय बोलियों पर आधारित है। निर्झर की भाँति बहती भाषा है उसे व्याकरण में आबद्ध कर पाना यापनीय एवं दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में जिस भाषा का प्रयोग सम्भव नहीं है। इसीलिए प्राकृत को “बहुल" अर्थात् विविध वैकल्पिक हुआ है, वह जैन-शौरसेनी कही जाती है। उसे जैन-शौरसेनी इसलिये रूपों वाली भाषा कहा जाता है।
__ कहते हैं कि उसमें शौरसेनी के अतिरिक्त अर्द्धमागधी के भी कुछ लक्षण वस्तुतः प्राकृतें अपने मूल रूप में भाषा न होकर बोलियाँ ही पाये जाते हैं। उस पर अर्द्धमागधी- का स्पष्ट प्रभाव देखा जाता रहीं हैं। यहाँ तक कि साहित्यिक नाटकों में भी इनका प्रयोग बोलियों है क्योंकि इसमें रचित ग्रन्थों का आधार अर्द्धमागधी आगम ही थे। के रूप में ही देखा जाता है और यही कारण है कि मृच्छकटिक जैसे इसी प्रकार श्वेताम्बर आचार्यों ने प्राकृत के जिस भाषायी रूप को अपनाया नाटक में अनेक प्राकृतों का प्रयोग हुआ है, उसके विभिन्न पात्र भिन्न-भिन्न वह जैन-महाराष्ट्री कही जाती है। इसमें महाराष्ट्री के लक्षणों के अतिरिक्त प्राकृतें बोलते हैं। इन विभिन्न प्राकृतों में से अधिकांश का अस्तित्व कहीं-कहीं अर्द्धमागधी और शौरसेनी के लक्षण भी पाये जाते हैं, क्योंकि मात्र बोली के रूप में ही रहा, जिनके निदर्शन केवल नाटकों और इसमें रचित ग्रन्थों का आधार भी मुख्यत: अर्द्धमागधी और अंशत: अभिलेखों में पाये जाते हैं। मात्र अर्द्धमागधी, जैन-शौरसेनी और शौरसेनी साहित्य रहा है। जैन-महाराष्ट्री ही ऐसी भाषायें हैं, जिनमें जैनधर्म के विपुल साहित्य अत: जैन परम्परा में उपलब्ध किसी भी ग्रन्थ की प्राकृत का
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