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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ हो गया। इनके पश्चात् नक्षत्र, यशपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन और कंस- तित्थोगालिय एवं अन्य ग्रन्थों के साक्ष्य से ज्ञात होता है कि ये पाँच आचार्य एकादश अंगों के ज्ञाता हुए। इनका सम्मिलित काल श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार अन्तिम चतुर्दशपूर्वधर आर्य भद्रबाहु हुए। २२० वर्ष माना गया। इस प्रकार भगवान् महावीर निर्वाण के ५६५ आर्य भद्रबाहु के स्वर्गवास के साथ ही चतुर्दश पूर्वधरों की परम्परा वर्ष पश्चात् आचारांग को छोड़कर शेष अंगों का भी विच्छेद हो गया। समाप्त हो गयी। इनका स्वर्गवास काल वीरनिर्वाण के १७० वर्ष पश्चात् इनके बाद सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और लोहाचार्य- ये चार आचार्य । माना जाता है। इसके पश्चात् स्थूलिभद्र दस पूर्वो के अर्थ सहित और आचारांग के धारक हुए। इनका काल ११८ वर्ष रहा।इस प्रकार शेष चार पूर्वो के मूल मात्र के ज्ञाता हुए। यथार्थ में तो वे दस पूर्वो वीरनिर्वाण के ६८३ वर्ष पश्चात् अंग एवं पूर्व साहित्य के ग्रन्थों के के ही ज्ञाता थे। तित्थोगालिय में स्थूलिभद्र को दस पूर्वधरों में प्रथम पूर्णज्ञाता आचार्यों की परम्परा समाप्त हो गई। इनके बाद आचार्य कहा गया है। उसमें अन्तिम दसपूर्वी सत्यमित्र (पाठभेद से सर्वमित्र) धरसेन तक अंग और पूर्व के एकदेश ज्ञाता (आंशिकज्ञाता) आचार्यों को बताया गया है, किन्तु उनके काल का निर्देश नहीं किया गया की परम्परा चली। उसके बाद पूर्व और अंग-साहित्य का विच्छेद हो है। उसके बाद उस ग्रन्थ में यह उल्लिखित है कि अनुक्रम से भगवान् गया। मात्र अंग और पूर्व के आधार पर उनके एकदेश ज्ञाता आचार्यों महावीर के निर्वाण के १००० वर्ष पश्चात् वाचक वृषभ के समय में द्वारा निर्मित ग्रन्थ ही शेष रहे। अंग और पूर्वधरों की यह सूची हमने । पूर्वगत श्रुत का विच्छेद हो जायगा। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार दस हरिवंशपुराण के आधार पर दी है। अन्य ग्रन्थों एवं श्रवणबेलगोला पूर्वधरों के पश्चात् भी पूर्वधरों की परम्परा चलती रही है, श्वेताम्बरों के कुछ अभिलेखों में भी यह सूची दी गयी है, किन्तु इन सभी सूचियों में अभिन्न-अक्षर दसपूर्वधर और भिन्न-अक्षर दसपूर्वधर, ऐसे दो प्रकार में कहीं नामों में और कहीं क्रम में अन्तर है, जिससे इनकी प्रामाणिकता के वर्गों का उल्लेख है। जो सम्पूर्ण दस पूर्वो के ज्ञाता होते थे, वे संदेहास्पद बन जाती है। किन्तु जो कुछ साहित्यिक और अभिलेखीय अभिन्न अक्षर दसपूर्वधर कहे जाते थे और जो आंशिक रूप से दस साक्ष्य उपलब्ध हैं उन्हें ही आधार बनाना होगा, अन्य कोई विकल्प पूर्वो के ज्ञाता होते थे, उन्हें भिन्न-अक्षर दसपूर्वधर कहा जाता था। भी नहीं है। यद्यपि इन साक्ष्यों में भी एक भी साक्ष्य ऐसा नहीं है, इस प्रकार हम देखते हैं कि चतुर्दश पूर्वधरों के विच्छेद की जो सातवीं शती से पूर्व का हो। इन समस्त विवरणों से हम इस इस चर्चा में दोनों परम्परा में अन्तिम चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु को ही माना निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि दिगम्बर परम्परा में श्रुत विच्छेद की गया है। श्वेताबर परम्परा के अनुसार वीरनिर्वाण के १७० वर्ष पश्चात् इस चर्चा का प्रारम्भ लगभग छठीं-सातवीं शताब्दी में हुआ और उसमें और दिगम्बर परम्परा के अनुसार १६२ वर्ष पश्चात् चतुर्दश पूर्वधरों अंग एवं पूर्व साहित्य के ग्रन्थों के ज्ञाता आचार्यों के विच्छेद की चर्चा का विच्छेद हुआ। यहाँ दोनों परम्पराओं में मात्र आठ वर्षों का अन्तर
है। किन्तु दस पूर्वधरों के विच्छेद के सम्बन्ध में दोनों परम्पराओं में श्वेताम्बर परम्परा में पूर्व-ज्ञान के विच्छेद की चर्चा तो नियुक्ति, कोई समरूपता नहीं देखी जाती है। श्वेताम्बर परम्परानुसार आर्य सर्वमित्र भाष्य, चूर्णि आदि आगामिक व्याख्या ग्रन्थों में हुई है। किन्तु और दिगम्बर परम्परा के अनुसार आर्य धर्मसेन या आर्य सिद्धार्थ अन्तिम अंग-आगमों के विच्छेद की चर्चा मात्र तित्थोगालिय प्रकीर्णक के दस पूर्वी हुए हैं। श्वेताम्बर परम्परा में आर्य सर्वमित्र को अन्तिम दस अतिरिक्त अन्यत्र कहीं नहीं मिलती है। तित्थोगालिय प्रकीर्णक को देखने पूर्वधर कहा गया है। दिगम्बर परम्परा में भगवतीआराधना के कर्ता से लगता है कि यह ग्रन्थ लगभग छठी-सातवीं शताब्दी में निर्मित शिवार्य के गुरुओं के नामों में सर्वगुप्तगणि और मित्रगणि नाम आते हआ है। इसका रचना काल और कुछ विषय-वस्तु भी तिलोयपण्णत्ति हैं किन्तु दोनों में कोई समरूपता हो यह निर्णय करना कठिन है। से समरूप ही है। इस प्रकीर्णक का उल्लेख नन्दीसूत्र की कालिक दिगम्बर परम्परा में दस पूर्वधरों के पश्चात् एकदेश पूर्वधरों का उल्लेख
और उत्कालिक ग्रन्थों की सूची में नहीं है, किन्तु व्यवहारभाष्य (१०/ तो हुआ है, किन्तु उनकी कोई सूची उपलब्ध नहीं होती। अत: इस ७०४) में इसका उल्लेख हुआ है। व्यवहारभाष्य स्पष्टत: सातवीं शताब्दी सम्बन्ध में किसी प्रकार की तुलना कर पाना सम्भव नहीं है। की रचना है। अन्तत: तित्थोगालिय पाँचवीं शती के पश्चात् तथा सातवीं पूर्व साहित्य के विच्छेद की चर्चा के पश्चात् तित्थोगालिय में शती के पूर्व अर्थात् लगभग ईस्वी सन् की छठी शताब्दी में निर्मित अंग साहित्य के विच्छेद की चर्चा हुई है। जो निम्नानुसार हैहुआ होगा। यही काल तिलोयपण्णत्ति का भी है। इन दोनों ग्रन्थों में उसमें उल्लिखित है कि वीरनिर्वाण के १२५० वर्ष पश्चात् ही सर्वप्रथम श्रुत के विच्छेद की चर्चा है। तित्थोगालिय में तीर्थङ्करों विपाकसूत्र सहित छ: अंगों का विच्छेद हो जायेगा, इसके पश्चात् की माताओं के चौदह स्वप्न, स्त्री-मुक्ति तथा दस आश्चर्यों का उल्लेख वीरनिर्वाण सं. १३०० में समवायांग का, वीरनिर्वाण सं. १३५० होने से एवं नन्दीसूत्र, अनुयोगद्वार तथा आवश्यकनियुक्ति से इसमें में स्थानांग का, वीरनिर्वाण सं. १४०० में कल्प-व्यवहार का, वीरनिर्वाण अनेक गाथाएँ अवतरित किये जाने से यही सिद्ध होता है कि यह सं. १५०० में आयारदशा का, वीरनिर्वाण सं. १९०० में सूत्रकृतांग श्वेताम्बर ग्रन्थ है। श्वेताम्बर परम्परा में प्रकीर्णक रूप में इसकी आज का और वीरनिर्वाण सं. २००० में निशीथसूत्र का विच्छेद होगा। ज्ञातव्य भी मान्यता है। इस ग्रन्थ की गाथा ८०७ से ८५७ तक में न केवल है कि इसके पश्चात् लगभग अठारह हजार वर्ष तक विच्छेद की कोई पूर्वो के विच्छेद की चर्चा है, अपितु अंग-साहित्य के विच्छेद की चर्चा नहीं है। फिर वीरनिर्वाण सं. २०,००० में आचारांग का, भी चर्चा है।
वीरनिर्वाण सं. २०५०० में उत्तराध्ययन का, वीरनिर्वाण सं. २०९००
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