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से आकर जैन परम्परा में दीक्षित हुए थे। मेरी दृष्टि में यह नियुक्ति आचारांग के प्रथम अध्ययन और दशवैकालिक के चतुर्थ षड्जीवनिकाय नामक अध्ययन से सम्बन्धित रही होगी और इसका उद्देश्य बौद्धों के विरुद्ध पृथ्वी, पानी आदि में जीवन की सिद्धि करना रहा होगा। यही कारण है कि इसकी गणना दर्शन प्रभावक ग्रन्थ में की गयी है। संज्ञी श्रुत के सन्दर्भ में इसका उल्लेख भी यही बताता है। १२
इसी प्रकार संसक्तनिर्युक्ति" नामक एक और नियुक्ति का उल्लेख मिलता है। इसमें ८४ आगमों के सम्बन्ध में उल्लेख है। इसमें मात्र ९४ गाथाएँ हैं। ८४ आगमों का उल्लेख होने से विद्वानों ने इसे पर्याप्त परवर्ती एवं विसंगत रचना माना है अतः इसे प्राचीन निर्युक्ति साहित्य में परिगणित नहीं किया जा सकता है। इस प्रकार वर्तमान नियुक्तियों दस नियुक्तियों में समाहित हो जाती हैं। इनके अतिरिक्त अन्य किसी नियुक्ति नामक ग्रन्थ की जानकारी हमें नहीं है ।
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
दस नियुक्तियों का रचनाक्रम
यद्यपि दसों नियुक्तियाँ एक ही व्यक्ति की रचनायें हैं, फिर भी इनकी रचना एक क्रम में हुई होगी आवश्यकनियुक्ति में जिस क्रम से इन दस नियुक्तियों का नामोल्लेख है" उसी क्रम से उनकी रचना हुई होगी, विद्वानों के इस कथन की पुष्टि निम्र प्रमाणों से होती है
१. आवश्यकनिर्युक्ति की रचना सर्वप्रथम हुई है, यह तथ्य स्वतः सिद्ध है, क्योंकि इसी नियुक्ति में सर्वप्रथम दस नियुक्तियों की रचना करने की प्रतिज्ञा की गयी है और उसमें भी आवश्यक का नामोल्लेख सर्वप्रथम हुआ है।" पुनः आवश्यकनियुक्ति से निह्नववाद से सम्बन्धित सभी गाथाएं (गाथा ७७८ से ७८४ तक) उत्तराध्ययननियुक्ति (गाथा १६४ से १७८ तक) १७ में ली गयी है। इससे भी यही सिद्ध होता है कि आवश्यकनियुक्ति के बाद ही उत्तराध्ययननियुक्ति आदि अन्य नियुक्तियों की रचना हुई है। आवश्यकनियुक्ति के बाद सबसे पहले दशवैकालिकनियुक्ति की रचना हुई है और उसके बाद प्रतिज्ञागाथा के क्रमानुसार अन्य नियुक्तियों की रचना की गई इस कथन की पुष्टि आगे दिये गये उत्तराध्ययननियुक्ति के सन्दर्भों से होती है।
२. उत्तराध्ययननियुक्ति, गाया २९ में 'विनय' की व्याख्या करते हुए यह कहा गया है 'विणओ पुव्वुद्दिट्ठा' अर्थात् विनय के सम्बन्ध में हम पहले कह चुके हैं।" इसका तात्पर्य यह है कि उत्तराध्ययननियुक्ति की रचना से पूर्व किसी ऐसी नियुक्ति की रचना हो चुकी थी, जिसमें विनय सम्बन्धी विवेचन था। यह बात दशवैकालिकनियुक्ति को देखने से स्पष्ट हो जाती है, क्योंकि दशवैकालिकनियुक्ति में विनय समाधि नामक नये अध्ययन की नियुक्ति (गाथा ३०९ से ३२६ तक) में 'विनय' शब्द की व्याख्या है। इसी प्रकार उत्तराध्ययननियुक्ति (गाथा २०७) में 'कामापुव्वुद्दिट्ठा' कहकर यह सूचित किया गया है कि काम के विषय में पहले विवेचन किया जा चुका है।" यह विवेचन भी हमें दशवैकालिकनियुक्ति की गाथा १६१ से १६३ तक में मिल जाता है। उपर्युक्त दोनों सूचनाओं के आधार पर यह बात सिद्ध होती है कि उत्तराध्ययननियुक्ति, दशवैकालिकनियुक्ति के बाद ही लिखी गयी।
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३. आवश्यकनियुक्ति के बाद दशवैकालिकनियुक्ति और फिर उत्तराध्ययननियुक्ति की रचना हुई, यह तो पूर्व चर्चा से सिद्ध हो चुका है। इन तीनों नियुक्तियों की रचना के पश्चात् आचारांगनियुक्ति की रचना हुई है, क्योंकि आचारांगनिर्युक्ति की गाथा ५ में कहा गया है- 'आयारे अंगम्मि य पुव्वुद्दिट्ठा चउक्कयं निक्खेवो'– आचार और अंग के निक्षेपों का विवेचन पहले हो चुका है।" दशवैकालिकनियुक्ति में दशवैकालिकसूत्र के क्षुल्लकाचार अध्ययन की नियुक्ति (गावा ७९-८८) में 'आचार' शब्द के अर्थ का विवेचन तथा उत्तराध्ययननियुक्ति में उत्तराध्ययनसूत्र के तृतीय 'चतुरंग' अध्ययन की नियुक्ति करते हुए गाथा १४३-१४४ में 'अंग' शब्द का विवेचन किया है।" अतः यह सिद्ध होता है कि आवश्यक, दशवैकालिक एवं उत्तराध्ययन के पश्चात् ही आचारांगनियुक्ति का क्रम है।
इसी प्रकार आचारांग की चतुर्थ विमुक्तिचूलिका की नियुक्ति में 'विमुक्ति' शब्द की नियुक्ति करते हुए गाया ३३१ में लिखा है कि 'मोक्ष' शब्द की नियुक्ति के अनुसार ही 'विमुक्ति' शब्द की नियुक्ति भी समझना चाहिए । २४ चूँकि उत्तराध्ययन के अट्ठाईसवें अध्ययन की निर्युक्ति (गाथा ४९७-९८ ) में मोक्ष शब्द की नियुक्ति की जा चुकी थी। अतः इससे यही सिद्ध हुआ कि आचारांगनियुक्ति का क्रम उत्तराध्ययन के पश्चात् है। आवश्यकनियुक्ति, दशवैकालिकनियुक्ति, उत्तराध्ययननियुक्ति एवं आचारांगनियुक्ति के पश्चात् सूत्रकतांगनिर्युक्ति का क्रम आता है। इस तथ्य की पुष्टि इस आधार पर भी होती है। कि सूत्रकृतांगनियुक्ति की गाथा ९९ में यह उल्लिखित है कि 'धर्म' शब्द के निक्षेपों का विवेचन पूर्व में हो चुका है (धम्मो पुब्बुद्दिट्ठो)। " दशवैकालिकनियुक्ति में दशवेकालिकसूत्र की प्रथम गाथा का विवेचन करते समय 'धर्म' शब्द के निक्षेपों का विवेचन हुआ है।" इससे यह सिद्ध होता है कि सूत्रकृतांगनियुक्ति, दशवैकालिकनियुक्ति के बाद निर्मित हुई है। इसी प्रकार सूत्रकृतांगनिर्युक्ति की गाथा १२७ में कहा है 'बोपुल्लुट्ठिो'।" हम देखते हैं कि उत्तराध्ययननियुक्ति गाथा २६७-२६८ में अन्य शब्द के निक्षेपों का भी कथन हुआ है। इससे सूत्रकृतांग नियुक्ति भी दशवैकालिकनियुक्ति एवं उत्तराध्ययननियुक्ति से परवर्ती ही सिद्ध होती है।
४. उपर्युक्त पाँच नियुक्तियों के यथाक्रम से निर्मित होने के पश्चात् ही तीन छेद सूत्रों यथा- दशाश्रुतस्कंध, वृहत्कल्प एवं व्यवहार सूत्र पर नियुक्तियाँ भी उनके उल्लेख क्रम से ही लिखी गयीं हैं, क्योंकि दशाश्रुतस्कंधनियुक्ति के प्रारम्भ में ही प्राचीनगोत्रीय सकल श्रुत के ज्ञाता और दशाश्रुतस्कंध बृहत्कल्प एवं व्यवहार के रचयिता भद्रबाहु को नमस्कार किया गया है। इसमें भी इन तीनों ग्रन्थों का उल्लेख उसी क्रम से है जिस क्रम से नियुक्ति लेखन की प्रतिज्ञा में है।" अतः यह कहा जा सकता है कि इन तीनों ग्रन्थों की नियुक्तियाँ इसी क्रम में लिखी गयी होगी। उपर्युक्त आठ नियुक्तियों की रचना के पश्चात् ही सूर्यप्रज्ञप्ति एवं इसिमासियाई की नियुक्ति की रचना होनी थी। इन दोनों ग्रन्थों पर नियुक्तियाँ लिखी भी गयीं या नहीं, आज यह निर्णय करना अत्यन्त कठिन है, क्योंकि पूर्वोक्त प्रतिज्ञा गाया के अतिरिक्त
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