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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ का अभाव है, अत: वे सभी रचनाएँ तत्त्वार्थ के बाद की कृतियाँ मानी के पन्द्रहवें शतक में मंखली गोशाल की समालोचना भी की गई है। जा सकती हैं। इसी प्रकार कषायप्राभृत, षट्खण्डागम, गोम्मटसार आदि इस आधार पर हम कह सकते हैं कि जैन परम्परा में अन्य परम्पराओं शौरसेनी आगम ग्रन्थों में कर्मसिद्धान्त की जो गहन चर्चा है, वह भी के प्रति उदारता का भाव कैसे परिवर्तित होता गया और साम्प्रदायिक अर्धमागधी आगम-साहित्य में अनुपलब्ध है। अत: शौरसेनी आगमों अभिनिवेश कैसे दृढमूल होते गये, इसका यथार्थ चित्रण उनमें उपलब्ध की अपेक्षा अर्धमागधी आगमों की सरल, बोधगम्य एवं प्राथमिक स्तर हो जाता है। इसी प्रकार आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध, आचारचूला, की विवरणात्मक शैली उनकी प्राचीनता की सूचक है।
दशवैकालिक, निशीथ आदि छेदसूत्र तथा उनके भाष्य और चूर्णियों
के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि जैनाचार में कालक्रम में क्या-क्या तथ्यों का सहज संकलन
परिवर्तन हुआ है। इसी प्रकार ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन, भगवती, अर्धमागधी आगमों में तथ्यों का सहज संकलन किया गया है ज्ञाताधर्म कथा आदि के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि पार्थापत्यों का अत: अनेक स्थानों पर सैद्धान्तिक दृष्टि से उनमें भिन्नताएँ भी पायी। महावीर के संघ पर क्या प्रभाव पड़ा और दोनों के बीच सम्बन्धों में जाती हैं। वस्तुत: ये ग्रन्थ अकृत्रिम भाव से रचे गये हैं और उनके कैसे परिवर्तन होता गया। इसी प्रकार के अनेक प्रश्न, जिनके कारण सम्पादन काल में भी संगतियुक्त बनाने का कोई प्रयास नहीं किया आज का जैन समाज साम्प्रदायिक कटघरों में बन्द है, अर्धमागधी आगमों गया है। एक ओर उत्सर्ग की दृष्टि से उनमें अहिंसा की सूक्ष्मता के के निष्पक्ष अध्ययन के माध्यम से सुलझाये जा सकते हैं। शौरसेनी साथ पालन करने के निर्देश हैं तो दूसरी ओर अपवाद की अपेक्षा आगमोंमें मात्र मूलाचार और भगवती आराधना को, जो अपनी से ऐसे अनेक विवरण भी हैं जो इस सूक्ष्म अहिंसक जीवनशैली के विषय-वस्तु के लिये अर्धमागधी आगम-साहित्य के ऋणी हैं, इस कोटि अनुकूल नहीं हैं। इसी प्रकार एक ओर उनमें मुनि की अचेलता का में रखा जा सकता है, किन्तु शेष आगमतुल्य शौरसेनी ग्रन्थ जैनधर्म प्रतिपादन-समर्थन किया गया है, तो दूसरी ओर वस्त्र-पात्र के साथ-साथ को सीमित घेरों में आबद्ध ही करते हैं। मुनि के उपकरणों की लम्बी सूची भी मिल जाती है। एक ओर केशलोच का विधान है तो दूसरी ओर क्षुर-मुण्डन की अनुज्ञा भी है। उत्तराध्ययन अर्धमागधी-आगमः शौरसेनी-आगम और परवर्ती महाराष्ट्री व्याख्या में वेदनीय के भेदों में क्रोध वेदनीय आदि का उल्लेख है, जो कि साहित्य के आधार कर्मसिद्धान्त के ग्रन्थों में यहाँ तक कि स्वयं उत्तराध्ययन के कर्मप्रकृति अर्धमागधी-आगम शौरसेनी-आगम और महाराष्ट्री-आगमिक नामक अध्ययन में भी अनुपलब्ध है। उक्त साक्ष्यों से ऐसा प्रतीत होता व्याख्या साहित्य के आधार रहे हैं। अर्धमागधी आगमों की व्याख्या है कि अर्धमागधी आगम साहित्य जैन संघ का निष्पक्ष इतिहास प्रस्तुत के रूप में क्रमश: नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, वृत्ति, टब्बा आदि लिखे करता है। तथ्यों का यथार्थ रूप में प्रस्तुतीकरण उसकी अपनी विशेषता गये हैं, ये सभी जैनधर्म एवं दर्शन के प्राचीनतम स्रोत हैं। यद्यपि है। वस्तुत: तथ्यात्मक विविधताओं एवं अन्तर्विरोधों के कारण शौरसेनी आगम और व्याख्या साहित्य में चिन्तन के विकास के साथ-साथ अर्धमागधी आगम साहित्य के ग्रन्थों के काल-क्रम का निर्धारण भी देश, काल और सहगामी परम्पराओं के प्रभाव से बहुत कुछ ऐसी सहज हो जाता है।
सामग्री भी है, जो उनकी अपनी मौलिक कही जा सकती है फिर भी
अर्धमागधी आगमों को उनके अनेक ग्रन्थों के मूलस्रोत के रूप में अर्धमागधी आगमों में जैनसंघ के इतिहास का प्रामाणिक रूप स्वीकार किया जा सकता है। मात्र मूलाचार में ही तीन सौ से अधिक
यदि हम अर्धमागधी आगमों का समीक्षात्मक दृष्टि से अध्ययन गाथाएँ उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, आवश्यकनियुक्ति, जीवसमास, करें, तो हमें यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन परम्परा के आचार एवं आतुरप्रत्याख्यान, चन्द्रवेध्यक (चन्दावेज्झय) आदि में उपलब्ध होती विचार में देश-कालगत परिस्थितियों के कारण कालक्रम में क्या-क्या हैं। इसी प्रकार भगवतीआराधना में भी अनेक गाथाएँ अर्धमागधी आगम परिवर्तन हुए इसको जानने का आधार अर्धमागधी आगम ही है, क्योंकि और विशेष रूप से प्रकीर्णकों (पइन्ना) से मिलती हैं। षट्खण्डागम इन परिवर्तनों को समझने के लिए उनमें उन तथ्यों के विकास क्रम और प्रज्ञापना में भी जो समानताएँ परिलक्षित होती हैं, उनकी विस्तृत को खोजा जा सकता है। उदाहरण के रूप में जैनधर्म में साम्प्रदायिक चर्चा पण्डित दलसुखभाई मालवणिया ने (प्रो.ए.एन. उपाध्ये व्याख्यानमाला अभिनिवेश कैसे दृढ़-मूल होता गया इसकी जानकारी ऋषिभाषित, में) की है। नियमसार की कुछ गाथाएँ अनुयोगद्वार एवं इतर आगमों उत्तराध्ययन, सूत्रकृतांग और भगवती के पन्द्रहवें शतक के समीक्षात्मक में भी पाई जाती हैं, जबकि समयसार आदि कुछ ऐसे शौरसेनी आगम अध्ययन से मिल जाती है। ऋषिभाषित में नारद, मंखलिगोशाल, तुल्य ग्रन्थ भी हैं, जिनकी मौलिक रचना का श्रेय उनके कर्ताओं को असितदेवल, नारायण, याज्ञवल्क्य, बाहुक आदि ऋषियों को अर्हत् ही है। तिलोयपन्नत्ति का प्राथमिक रूप विशेष रूप से आवश्यकनियुक्ति ऋषि कहकर सम्मानित किया गया है। उत्तराध्ययन में भी कपिल, नमि, तथा कुछ प्रकीर्णकों के आधार पर तैयार हुआ था, यद्यपि बाद में करकण्ड, नग्गति, गर्दभाली, संजय आदि का सम्मानपूर्वक स्मरण किया उसमें पर्याप्त रूप से परिवर्तन और परिवर्धन किया गया है। इस प्रकार गया और सूत्रकृतांग में इनमें से कुछ को आचारभेद के बावजूद भी शौरसेनी आगमों के निष्पक्ष अध्ययन से यह बात स्पष्ट हो जाती है परम्परा-सम्मत माना गया। किन्तु ज्ञाताधर्मकथा में नारद की और भगवती कि उनका मूल आधार अर्धमागधी आगम-साहित्य ही रहा है तथापि
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