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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ क्या आगम साहित्य मूलतः शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध था?
दूसरी ओर प्राकृत-विद्या के सम्पादक डॉ. सुदीप जी का कथन ___ यहाँ सर्वप्रथम मैं इस प्रश्न की चर्चा करना चाहूँगा कि क्या जैन है कि उनके व्याख्यान की टेप हमारे पास उपलब्ध है और हमने उसे आगम साहित्य मूलतः शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध था और उसे बाद अविकल रूप से यथावत् दिया है। मात्र इतना ही नहीं डॉ. सुदीपजी में परिवर्तित करके अर्धमागधी रूप दिया गया? जैन विद्या के कुछ का तो यह भी कथन है कि तुलसीप्रज्ञा के खण्डन के बाद भी वे विद्वानों की यह मान्यता है कि जैन आगम साहित्य मूलत: शौरसेनी टॉटिया जी से मिले हैं और टॉटिया जी ने उन्हें कहा है कि वे अपने कथन प्राकृत में निबद्ध हुआ था और उसे बाद में अर्धमागधी में रूपान्तरित पर आज भी दृढ़ हैं। टॉटिया जी के इस कथन को उन्होंने किया गया। अपने इस कथन के पक्ष में वे श्वेताम्बर, दिगम्बर किन्हीं प्राकृत-विद्या जुलाई-सितम्बर ९६ के अङ्क में निम्न शब्दों में प्रस्तुत भी आगमों का प्रमाण न देकर प्रो. टॉटिया के व्याख्यान से कुछ अंश किया - उद्धृत करते हैं। डॉ. सुदीप जैन ने 'प्राकृत विद्या', जनवरी-मार्च ९६ “मैं संस्कृत विद्यापीठ की व्याख्यानमाला में प्रस्तुत तथ्यों पर के सम्पादकीय में उनके कथन को निम्न रूप में प्रस्तुत किया है- पूर्णतया दृढ़ हूँ तथा यह मेरी तथ्याधारित स्पष्ट अवधारणा है जिससे
"हाल ही में श्री लालबहादुरशास्त्री संस्कृत विद्यापीठ में सम्पत्र विचलित होने का प्रश्न ही नहीं उठता है"। (पृ. ९) . द्वितीय आचार्य कुन्दकुन्दस्मृति व्याख्यानमाला में विश्वविश्रुत भाषाशास्त्री यह समस्त विवाद दो पत्रिकाओं के माध्यम से दोनों सम्पादकों एवं दार्शनिक विचारक प्रो० नथमल जी टॉटिया ने स्पष्ट रूप से घोषित के मध्य है, किन्तु इस विवाद में सत्यता क्या है और उसका मूल किया कि "श्रमण-साहित्य का प्राचीन रूप, चाहे वे बौद्धों के त्रिपिटक मन्तव्य क्या है, इसका निर्णय तो तभी सम्भव है जब डॉ. टॉटिया
आदि हों, श्वेताम्बरों के आचाराङ्गसूत्र, दशवैकालिकसूत्र आदि हों अथवा स्वयं इस सम्बन्ध में लिखित वक्तव्य दें, किन्तु वे इस सम्बन्ध में दिगम्बरों के षट्खण्डागमसूत्र, समयसार आदि हों, सभी शौरसेनी प्राकृत मौन हैं। मैंने स्वयं उन्हें पत्र लिखा था, किन्तु उनका कोई प्रत्युत्तर में ही निबद्ध थे। उन्होंने आगे सप्रमाण स्पष्ट किया कि बौद्धों ने बाद नहीं आया। मैं डॉ. टॉटिया की उलझन समझता हूँ। एक ओर कुन्दकुन्दमें श्रीलंका में एक बृहत्सङ्गीति में योजनापूर्वक शौरसेनी में निबद्ध भारती ने उन्हें कुन्दकुन्द व्याख्यानमाला में आमन्त्रित कर पुरस्कृत किया बौद्धसाहित्य का मागधीकरण किया और प्राचीन शौरसेनी में निबद्ध है तो दूसरी और वे जैन विश्वभारती की सेवा में हैं, जब जिस मञ्च बौद्धसाहित्य के ग्रन्थों को अग्निसात् कर दिया। इसी प्रकार श्वेताम्बर से बोले होंगे भावावेश में उनके अनुकूल वक्तव्य दे दिये होंगे और जैन साहित्य का भी प्राचीन रूप शौरसेनी प्राकृत में ही था, जिसका अब स्पष्ट खण्डन भी कैसे करें? फिर भी मेरी अन्तरात्मा यह स्वीकार रूप क्रमश: अर्धमागधी में बदल गया। यदि हम वर्तमान अर्धमागधी नहीं करती है कि डॉ. टॉटिया जैसे गम्भीर विद्वान् बिना प्रमाण के आगम साहित्य को ही मूल श्वेताम्बर आगम-साहित्य मानने पर जोर ऐसे वक्तव्य दें। कहीं न कहीं शब्दों की जोड़-तोड़ अवश्य हो रही देंगे, तो इस अर्धमागधी भाषा का आज से पन्द्रह सौ वर्ष के पहिले है। डॉ. सुदीपजी प्राकृत-विद्या, जुलाई-सितम्बर ९६ में डॉ. टॉटिया अस्तित्व ही नहीं होने से इस स्थिति में हमें अपने आगम साहित्य जी के उक्त व्याख्यानों के विचार बिन्दुओं को अविकल रूप से प्रस्तुत को भी ५०० वर्ष ई. के परवर्ती मानना पड़ेगा।" उन्होंने स्पष्ट किया करते हुए लिखते हैं कि- "हरिभद्र का सारा योगशतक धवला कि आज भी आचाराङ्गसूत्र आदि की प्राचीन प्रतियों में शौरसेनी के से है।" शब्दों की प्रचुरता मिलती है, जबकि नये प्रकाशित संस्करणों में उन इसका तात्पर्य है कि हरिभद्र के योगशतक को धवला के आधार शब्दों का अर्द्धमागधीकरण हो गया है। उन्होंने कहा कि पक्षव्यामोह पर बनाया गया है। क्या टॉटिया जी जैसे विद्वान् को इतना भी इतिहास के कारण ऐसे परिवर्तनों से हम अपने साहित्य का प्राचीन मूलरूप बोध नहीं है कि योगशतक के कर्ता हरिभद्रसूरि और धवला के कर्ता खो रहे हैं। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि दिगम्बर जैन साहित्य में में कौन पहले हुआ है? यह तो ऐतिहासिक सत्य है कि हरिभद्रसूरि ही शौरसेनी भाषा के प्राचीनरूप सुरक्षित उपलब्ध हैं।"
का योगशतक (आठवीं शती), धवला (१०वीं शती) से पूर्ववर्ती है। निस्संदेह प्रोटॉटिया जैन और बौद्ध विद्याओं के वरिष्ठतम विद्वानों मुझे विश्वास ही नहीं होता है, कि टॉटिया जी जैसा विद्वान् इस ऐतिहासिक में एक हैं और उनके कथन का कोई अर्थ और आधार भी होगा। सत्य को अनदेखा कर दे। कहीं न कहीं उनके नाम पर कोई भ्रम किन्तु ये कथन उनके अपने हैं या उन्हें अपने पक्ष की पुष्टि हेतु तोड़-मरोड़ खड़ा किया जा रहा है। डॉ. टॉटिया जी को अपनी चुप्पी तोड़कर कर प्रस्तुत किया गया है, यह एक विवादास्पद प्रश्न है? क्योंकि एक इस भ्रम का निराकरण करना चाहिए। वस्तुत: यदि कोई भी चर्चा ओर तुलसीप्रज्ञा के सम्पादक का कहना है कि टॉटिया जी ने इसका प्रमाणों के आधार पर नहीं होती है तो उसको कैसे मान्य किया जा खण्डन किया है। वे तुलसीप्रज्ञा (अप्रैल-जून, ९६, खण्ड २२, अंक सकता है, फिर चाहे उसे कितने ही बड़े विद्वान् ने क्यों न कहा हो? ४) में लिखते हैं कि- "डॉ. नथमल टॉटिया ने दिल्ली की एक यदि व्यक्ति का ही महत्त्व मान्य है, तो अभी संयोग से टॉटिया जी पत्रिका में छपे और उनके नाम से प्रचारित इस कथन का खण्डन से भी वरिष्ठ अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के जैन, बौद्ध विद्याओं के महामनीषी किया है कि महावीरवाणी शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध हुई। उन्होंने स्पष्ट और स्वयं टॉटिया जी के गुरु पद्मविभूषण पं. दलसुखभाई मालवणिया मत प्रकट किया कि आचाराङ्ग, उत्तराध्ययन, सूत्रकृताङ्ग और हमारे बीच हैं, फिर तो उनके कथन को अधिक प्रामाणिक मानकर दशवैकालिक में अर्धमागधी भाषा का उत्कृष्ट रूप है।"
प्राकृत-विद्या के सम्पादक को स्वीकार करना होगा। खैर यह सब
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